November 11, 2021

1917 की समाजवादी क्रांति अमर रहे!

 

आज से लगभग 104 वर्ष पहले रूस में समाजवादी क्रांति हुई। अक्टूबर क्रांति रूस के इतिहास की तीसरी क्रांति थी। 1905-07 में पहली क्रांति हुई थी। यह क्रांति जारशाही का अंत तो नहीं कर सकी परंतु उसने जारशाही की चूलें ऐसी हिलाई कि उसके बाद वह दस साल भी नहीं टिक सकी।

जारशाही के काल में किसानों, मजदूरों की हालत बहुत खराब थी। उन्हें हर तरह से दबाया जाता था। जार ने रूस को राष्ट्रीयताओं का जेलखाना बनाया हुआ था। आम जनता को किसी भी प्रकार के अधिकार हासिल नहीं थे। भाषण देने, सभा करने, प्रदर्शन करने, संगठित होने, अखबार निकालने, यूनियन बनाने, हड़ताल करने जैसे जनवादी अधिकार भी उन्हें हासिल नहीं थे। 1905-07 की असफल क्रांति के पूर्व तक कोई निर्वाचित संस्था नहीं थी। 1905-07 की क्रांति के बाद बेहद मजबूरी में रूसी संसद का गठन जार ने किया।

जार ने रूस में क्रांति के मंडराते खतरे को टालने के लिए युद्ध को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। 1901 से ही मजदूरों, किसानों, छात्रों की एक से बढ़कर एक संघर्ष किए। खूनी इतवार की घटना के बाद क्रांति की शुरुआत हुई। पूरा रूस विद्रोह की आग में सुलग उठा।

October 3, 2021

सत्ता के नशे मे चूर भाजपा मंत्री के बेटे ने चढ़ाई आंदोलनकारी किसानों पर गाड़ी

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का एक कार्यक्रम था। जिसके विरोध में किसानों द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया गया। किसानों ने योजना बनाई थी कि वह यूपी के डिप्टी सीएम के हेलीकॉप्टर पर जाने से रोकने के लिए हेलीपैड का घेराव करेंगे।  जिसमें किसानों ने काले झंडे दिखा कर अपना विरोध दर्ज किया। प्रोग्राम खत्म होने के बाद किसान वापस जा रहे थे। तिकुनिया के पास 3 कार आई और 7-8 किसानों को बेहरमी से कुचल दिया गया। जिसमें 8 किसानों की मौत हो गई। तराई संयुक्त किसान मोर्चा के एक नेता तजिंदर सिंह विर्क भी गंभीर रूप से घायल हैं। किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने वाला केंद्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के सुपुत्र आशीष मिश्र उर्फ मोनू था। किसानों ने जब अजय मिश्रा के लड़के आशीष उर्फ मोनू को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागे तो वह गन्ने के खेतों में दौड़ा और फायरिंग करते हुए फरार हो गया। 

September 16, 2021

कॉमरेड कंचन को अंतिम लाल सलाम

 

इंकलाबी मज़दूर केंद्र के साथी कंचन का आज (16 सितंबर) सुबह कैंसर की असाध्य बीमारी से निधन हो गया।

52 वर्षीय साथी कंचन मज़दूर वर्ग की मुक्ति के ध्येय को समर्पित इंकलाबी योध्दा थे, जो कि अपनी अंतिम सांस तक अपने लक्ष्य को समर्पित रहे। मुख्यतः बरेली में सक्रिय साथी  कंचन दा 2 माह पूर्व अपनी तबियत बिगड़ने से पहले किसान आंदोलन के गाजीपुर बॉर्डर पर इंकलाबी मज़दूर केंद्र की टीम के साथ डटे हुये थे। वे बेहद प्रतिभाशाली, लोकप्रिय संस्कृतिकर्मी और उतने ही जिंदादिल इंसान भी थे। उनके जोशीले क्रांतिकारी गीत हमारे बीच आज भी मौजूद हैं।

August 18, 2021

अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा

दिनांक 16 अगस्त 2021 को तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर अपना कब्जा कर लिया। अब पूरे अफगानिस्तान पर तालिबान का अपना कब्जा है और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर रेगिस्तान भाग गए हैं। जो कल तक अपनी राजधानी के विषय में महफूज थे कि कुछ नहीं होगl अब वह अपने देश की जनता को तानाशाहों के हाथों में छोड़ भाग गये।

अफगानिस्तान में अमेरिकी यूरोपीय यूनियन के साथ-साथ चीन एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में मौजूद है। उसके अपने हित इस क्षेत्र में किसी से भी नहीं छिपे हैं। भारत से भी सैन्य मदद की अपील गनी सरकार कई बार कर चुकी है, लेकिन साम्राज्यवादी खिलाड़ी अभी भारत को तरजीह नहीं दे रहे हैं। भारतीय शासकों के भी पर्दे के पीछे तालिबान से वार्ता की खबरें आती रही हैं पर अपनी और अमेरिकापरस्ती के चलते उसे तालिबान की बढ़त से अपने निवेश के डूबने का ही अधिक भय है। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन बातें कर रहे थे कि सेनाएं हटाए जाने के बाद तालिबान कुछ नहीं कर सकता है। लेकिन इस सबके पीछे अमेरिका के अपने हित मौजूद हैं। यह सियासत की चालें चलने वाले ही बेहतर समझ सकते हैं कि उनके मंसूबे क्या हैं

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का कहना है कि अफगानिस्तान की गुलामी की जंजीर टूट गई है। चीन अपना दोस्ती का हाथ तालिबान के साथ बढ़ा रहा है आमजन खतरे का अहसास कर अफरातफरी के माहौल में देश छोड़कर भाग रहा है तो कोई मौत का डर ना मानकर तालिबान के डर से मौत को गले लगा रहा है। समाचारों में कुछ ऐसा ही मंजर दिखाई देता है जब लोग हवाई जहाज के पहिए पकड़कर देश से भागने का प्रयास करने मैं ऊपर से गिर गये और 3 लोगों की मौत हो गयी।

August 4, 2021

देश की राजधानी में बच्ची के साथ हैवानियत, हत्या और बिना परिजनों की मर्जी के जबरन अंतिम संस्कार

3 अगस्त 2021 देश की राजधानी दिल्ली कैंट इलाके के नांगल राय गांव में 9 साल की बच्ची के साथ 4 लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर उसके शव को बिना परिवार को बताएं अंतिम संस्कार कर दिया गया। नांगल राया शमशान घाट के पास गांव में रहने वाले एक दलित परिवार की बच्ची शमशान घाट पर लगे वॉटर कूलर से पानी भरने भरने गई थी जहां पुजारी समेत 4 अन्य लोगों ने उसका बलात्कार करने के बाद हत्या कर दी। घटना के उपरांत पुजारी ने बच्ची की मां को शमशान घाट पर बुलाया और उससे कहा कि बच्ची की करंट लगने से मौत हो गई है। और उन्होंने मां-बाप के विरोध के बावजूद बच्ची का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया। बच्ची की मां का कहना है कि पुजारी ने अंतिम संस्कार करते समय किसी तरह की कोई कागजी कारर्वाई नहीं की जैसा कि सामान्यतः अन्य शवों के साथ किया जाता है। जब मां ने अंतिम संस्कार के लिए मना किया तो पुजारी ने कहा कि पुलिस को बुलाने पर पुलिस शव को ले लेगी और उसके अंग निकाल दिए जाएंगे। जब यह खबर गांव तक पहुंची तो गांव से लोग शमशान घाट आ गए और उन्होंने बच्ची की आधे जले शव को चिता से बाहर निकाला। स्थानीय नागरिकों द्वारा रोष में प्रदर्शन किया गया और पुलिस को सूचना पहुंचाई गई। दिल्ली पुलिस ने लापरवाही और सबूतों को नष्ट करने समेत अन्य तमाम धाराओं के तहत मामला दर्ज कर लिया है. और पुजारी को हिरासत मे ले लिया है।

धर्म के ठेकेदार द्वारा यह बलात्कार की पहली घटना नहीं है। ऐसी ही घटना जम्मू में भी हुई थी जहां मंदिर के अंदर एक आठ साल की बच्ची का बलात्कार किया गया था। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ और महिला को देवी कहने वाली इस सरकार के ठीक नाक के नीचे एक पुजारी द्वारा एक 9 साल की मासूम बच्ची का बलात्कार इस बात को स्पष्ट दिखाता है कि इस देश में 8 महीने की बच्ची से लेकर 60 साल तक की वृद्धा सुरक्षित नहीं है। अभी दो दिन पूर्व गोवा में दो नाबालिग लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ इस पर गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत का बेशर्मी पूर्ण बयान आया कि माता-पिता को आत्ममंथन करने की जरूरत है मुख्यमंत्री सावंत ने कहा कि अपने बच्चों की सुरक्षा करना सुनिश्चित करना माता-पिता की जिम्मेदारी है उन्हें अपने बच्चों को रात में बाहर नहीं भेजना चाहिए यह बयान कानून व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति को तो दिखाता ही है साथ ही मुख्यमंत्री सावंत की महिलाओं के प्रति तुच्छ मानसिकता को भी दिखाता है। संविधान में वर्णित समानता और बराबरी की धाराओं की धज्जियां उड़ाता है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र ऐसी मानसिकता और बच्चियों की हत्या का पुरजोर विरोध करता है और यह मानता है कि जब तक पतित पूंजीवादी संस्कृति रहेगी जिसमें महिलाओं को सिर्फ उपभोग की वस्तु माना जाएगा और पेश किया जाएगा तब तक चाहे जितने भी कानून बना लिए जाए बलात्कार नहीं रुकने वाले हैं और हमारी छोटी-छोटी बच्चियां ऐसे ही घरों के बाहर और घरों के भीतर असुरक्षित रहेंगी।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों से इस घटना की निष्पक्ष जांच करवाए जाने और दोषियों को सजा दिए जाने की मांग करता है।

इंकलाब जिंदाबाद

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी

July 31, 2021

मुंशी प्रेमचंद्र की प्रासंगिकता

हिंदी साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारने वाली शख्सियत, मुंशी प्रेमचंद जी के जन्मदिवस पर क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं। मुंशी प्रेमचंद्र जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमहि ग्राम में हुआ था।कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने तत्कालीन इतिहास की रूढ़ीवादी परंपराओं का विरोध करते हुए, मध्यम वर्गीय मजदूरों की, किसानों की, महिलाओं की समस्याओं की यथार्थवादी परंपराओं की नींव राखी। उनकी कहानियां केवल कहानियां नहीं है, हमारे जीवन के अंधेरों को मिटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाली प्रेरणा हैं। मुंशी प्रेमचंद जी ने 20 वी सदी के पूर्वार्ध  से लगभग 3 दशक तक मानवीय जीवन में घटित होने वाली तमाम घटनाओं के केवल मानवीय पक्ष को ही नहीं रखा बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन के तमाम पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई। ऐसा लगता है कि मुंशी प्रेमचंद के अंतर्मन की आवाजें उनमें प्रदर्शित हो रही हैं। उनकी आत्मा बोल रही है।

प्रेमचंद्र हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुए है। प्रेमचंद जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न एक सफल कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार है। तत्कालीन सामंती समाज में यद्यपि तकनीकी सुविधाओं का नितांत अभाव था तथापि उनकी कृतियां बोलती हैं। उनकी कृतियों में अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग, शोषण, उत्पीड़न, अन्याय व मानव जीवन के हर पक्ष को उजागर करती है। उनकी कहानियां की सचेत और सजीव हैं। वे परंपरागत, रूढ़िवादी विचारों को झकझोर कर रख देती हैं। कुरीतियों और कुप्रथाओं का प्रेमचंद जी ने अपनी कृतियों में खंडन ही नहीं किया बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है। "साहित्य समाज का दर्पण होता है।" इस उक्ति को सही साबित किया है।

तत्कालीन सामंती समाज में किसानों की दुर्दशा महाजनी कर्ज जाल में डूबे, दबे-कुचले कृषक जीवन को सजीवता से उकेरा है। बंधुआ मजदूरों की मजबूरी का सजीव चित्रण किया है। मुंशी प्रेमचंद जी का साहित्य राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। "दुनिया का अनमोल रत्न" उनकी अनमोल रचना है। वह मानते हैं कि खून का आखिरी कतरा भी वतन की हिफाजत में गिरे, इससे बढ़कर गर्व की बात क्या हो सकती है। देश प्रेम की भावना से युक्त उनकी पांच कहानियों का संग्रह जो सबसे पहले प्रकाशित हुआ,  "सोजे वतन", देश का मातम जिसमें आजादी के दीवानों की शहादत का ओजपूर्ण, भावपूर्ण, देशभक्तिपूर्ण अपूर्व वर्णन है। उनकी देशभक्ति से ओतप्रोत इस प्रस्तुति व लोकप्रियता से  घबराकर तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी तमाम कृतियों को जप्त कर लिया था। देश प्रेम के मुंशी जी के जज्बे ने अंग्रेजी हुक्मरानों की नींद ही नहीं उड़ाई, नीव भी हिला दी थी। सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने लगभग 300 कहानियां, 15 उपन्यास व 3 नाटक लिखे।उन्होंने समाज की कुरीतियों व कुप्रथाओं के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। उनकी कहानी कफन, इसका जीता जागता उदाहरण है- मालिक!...क्या हुआ रे विश्वा! काहे रो रहा है। गरीबों का खून चूस-चूस कर धन इकट्ठा करने वाले पूंजीपतियों पर करारा व्यंग है। माधव के जरिए सेठ साहूकार पर व्यंग करते हुए, अरे! जीवित रहते जिसे पहन को कपड़ा नसीब नहीं हुआ उसे मरे बाद नए कफन की क्या जरूरत है

प्रेमचंद जीवन भर राजनीतिक आंदोलनों, गतिविधियों से जुड़े रहे। राजनीतिक पट कथाए उनके साहित्य में खूब देखने को मिलती हैं। "शतरंज के खिलाड़ी" कहानी के जरिए, गुलामी के दौरान भारतीयों में कम होती राजनीतिक चेतना के बारे में प्रेमचंद जी कहते हैं कि विलासिता के रंग में डूबे हुए राजाओं और छोटे-बड़े, अमीर-गरीब की दुर्दशा ने हीं अंग्रेजों को शासन सत्ता पर काबिज होने का मौका दिया।

जमीदारी पर महाजनी शोषण के खिलाफ प्रेमचंद की कहानी उनकी "पूस की एक रात" किसानों के कर्ज जाल में फंसे होने की मरमानतक कहानी है। जिसका आति सजीवता पूर्ण चित्रण प्रेमचंद जी ने किया है। वे किसान की बदहाल होती जिंदगी जीते कहानी के नायक हल्कू बेहद ठंडी, कड़कड़ाती रात में फटे कपड़े पहने अपनी फसल की सुरक्षा के लिए खेत में पहरा रहा था। उसका कुत्ता गबरु भी देखभाल करता था। परंतु रात्रि के तीसरे पहर में हल्कू को हल्की सी नींद आ जाने के कारण पूरे खेत की फसल को नीलगाय चट कर जाती है। सुबह उसकी पत्नी यह सब देख कर भयभीत हो जाती है और हल्कू से कहती है- अब मालिक का कर्ज और मालगुजारी कैसे चुकाएंगे? अब दूसरों के खेत में मजदूरी करनी होगी। आहा: अति अभावग्रस्तता में आदमी किस तरह टूट जाता है। मजदूरी करके कर्ज की भरपाई करना कितना दुष्कर कार्य है। गरीब किसान मजदूर बनने को मजबूर हो जाता है।

 " नमक का दरोगा" कहानी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवेश पर आधारित अधिकारी वर्ग के शोषण को दर्शाती है। जो धन के लालच में गलत आदमी का साथ देने से नहीं चूकते। प्रेमचंद जी यहां यह बताना चाहते हैं कि किस प्रकार धन के आगे न्याय हार जाता है। तत्कालीन न्याय व्यवस्था पर बेहद करारा व्यंग है। जो आज की न्याय व्यवस्था और सरकारी महकमे में हमें सर्वत्र दिखाई देती है। आज भी प्रेमचंद की कहानी कितनी सार्थक कितनी सही है।

दलित समस्या को उठाती एक कहानी ठाकुर का कुआं समाज में व्याप्त अछूतों की समस्या को इसके माध्यम से उठाया गया है और साथ में नारी समस्या को भी अपनी कहानियों में पटकथा बनाया है। दरअसल मुंशी प्रेमचंद जी समकालीन सामाजिक परिवेश को आवाज देते हुए अपनी कहानियों में समेटते चले हैं। उन्होंने समाज का जीवन की गहराईयों से अध्ययन किया है और अपनी कहानियो में उकेरा है।

गोदान 1936 में लिखा एक कालजई उपन्यास है। इसकी सार्थकता आज भी बरकरार है। इंकलाब का आगाज होने लगा था। रेलवे लाइन बिछने लगी थी। गांव और शहर जोड़े जा रहे थे। भूरी और धनिया की करुण कथा है। इस उपन्यास में प्रेमचंद जी ने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव इस प्रकार पिरोकर रखा है। एक तरफ किसानों का शोषण करने वाला महाजन और पटवारी का गठबंधन है तो दूसरी और शहरों में कंपनी मालिक और दलालों का गठजोड़ है जो मजदूरों के श्रम का दोहन कर रहा है।


गबन 1931 में लिखा एक विशेष चिंताकुल समस्या पूर्ण जीवन का चित्रण करता है। इसका विषय- टूटते जीवन मूल्यों के अंधेरों में भटकते मध्यम वर्गीय परिवार की वास्तविकता का भावपूर्ण, मार्मिक चित्रण है। जहां महिला का पति के जीवन पर विशेष प्रभाव है। इस उपन्यास में नारी समस्या को विशेष आयाम देते हुए तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ते हुए जनादोलन के प्रति विशेष आकर्षण को प्रदर्शित करता हुआ मध्यम वर्ग के बीच आज भी देखने को मिलता है।

प्रेमचंद्र जी का साहित्य समूचे हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा को नई दिशा प्रदान करने वाला है। सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत इस उपन्यास में नारी पराधीनता, दहेज प्रथा, वेश्यावृत्ति संबंधी समस्याओं को चित्राअंकित किया गया है। मध्यम वर्गीय परिवारों की आर्थिक और सामाजिक जीवन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है। आज हम देखते हैं कि वेश्यावृत्ति कॉल-गर्ल के रूप में आज भी बड़े पैमाने पर समाज में व्याप्त है। दहेज तो समाज में पूर्व के समान कितनी ही जिंदगियों को लील चुका है। नारी का एक बड़ा वर्ग आज भी पराधीनता का जीवन जीने को मजबूर हैं। तत्कालीन समाज की तमाम अच्छाइयों और बुराइयों का चित्रांकन है जो आज भी हर जगह दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचंद के उपन्यास में दिखाई देता है।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक भारत में फैली कुरीतियों, पाखंड, महाजनी व्यवस्था, गरीबी, बदहाली, क्रांतिकारी आंदोलन व राजनीतिक और आर्थिक जीवन के हर पहलू पर, हर समस्या पर अपनी लेखनी चलाई। भारतीय परंपराओं के सजग वाहक बन कर अपना दायित्व निभाया। उनका साहित्यिक जीवन की तमाम समस्याओं की गहराइयों का मानो उन्होंने स्वयं अनुभव किया। प्रेमचंद जी को याद करना उन चुनौतियों का अनुभव करना है जिनसे भारतीय समाज लंबे समय से जूझ रहा है और आज भी उन चुनौतियों का हल ढूंढ रहा है। दलितों की समस्या, नारी जीवन की तमाम समस्याएं, दहेज-प्रथा, विधवा-विवाह, बेमेल विवाह, मजदूर-किसान, रिश्वतखोरी, अन्याय, धार्मिक पाखंड, मानवीय मूल्यों का खत्म होना, ऐसे ही तमाम सारे प्रश्न हमारे जीवन में आज भी मुंह बाए खड़े हैं। यही सब कारण है कि प्रेमचंद जी की प्रासंगिकता आज भी पढ़ने वाले के विचारों को झकझोर कर रख देती है। उनकी सोच तत्कालीन समाज को लेकर जिस तरह से उन्होंने अपने साहित्य में उठाया है, मजबूती के साथ, दृढ़ता के साथ वे निश्चित तौर पर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जहां वर्ण, जाति, धर्म से ऊपर उठकर सबका सम्मान हो। वह समाज जहां सामाजिक बराबरी हो, स्त्री और पुरुष को समान शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता और अवसर प्राप्त हो सके। वे किसी भी प्रकार की छुआछूत के विरोधी थे जो आज भी समाज में व्याप्त है। जो आए दिन देखने को मिलती है- जैसे आजमगढ़ के गोधोरा में जिला पंचायत के चुनाव ने अन्याय को ना सहकर न्याय की मांग करने के बदले पुलिस में हैवानियत का नंगा नाच दलित महिलाओं के साथ खेला है। ऐसे ही हम देखते हैं आज किसान कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे लंबे समय से आंदोलनरत हैं। प्रेमचंद जी का कहना था किसान, दलित और महिलाएं देश के विकास के लिए धुरी  के समान है और बार-बार जगह-जगह इस बात को दोहराया है कि इन के विकास के बिना देश के विकास की कल्पना बेमानी है। प्रेमचंद जी ने समाज के हर शोषित-उत्पीड़ित जन की आवाज बुलंद की है। उनके पात्र आज भी समाज में जिंदा है। हमें अपने आसपास पास में दिख जाते हैं। एक तरफ वे शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के लिए आवाज उठाते हैं तो दूसरी ओर शोषित-उत्पीड़ित  वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। कहीं वह सोई मानवता को आवाज देकर गहरी नींद से जागृत करने का काम करते दृष्टिगोचर होते हैं। आमजन को नायक बनाकर सच्चे रूप में जनतंत्र को स्थापित करना चाहते हैं। मानवता के पथ प्रदर्शक हैं और जब तक यह पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी तब तक मुंशी प्रेम चंद्र जी के साहित्य की प्रासंगिकता बनी रहेगी। कालजई, कलम के जादूगर, उपन्यास सम्राट प्रासंगिक बने रहेंगे।

July 30, 2021

शहीद उधम सिंह को याद करने की जरूरत

देश की आजादी के लिए उधम सिंह जैसे हजारों-हजार क्रांतिकारियों ने शहादत दी थी। उनका ख्वाब था कि भारत में भूख, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण-उत्पिडन न हो। मजदूर-मेहनतकशों का राज हो। उधम सिंह का साफ मानना था कि भारत में कौमी एकता को खंडित करने वाले सांप्रदायिक, उपद्रवी, कट्टरपंथी तत्वों की साजिश का भंडाफोड़ किया जाना चाहिए। भारत के मजदूर, किसानों, उत्पिड़ित तबको, समुदाय का हित कौमी एकता को बनाए रखने में ही है। लेकिन उधम सिंह की शहादत को इतना लंबा समय बीत जाने और अंग्रेजो से आजादी भी मिलने के बाद भी देश की जनता परेशान है। 
शहीद उधम सिंह एक महान क्रांतिकारी और देश प्रेमी थे। जिनके दिल में सिर्फ और सिर्फ देश प्रेम की भावना और अंग्रेजों के प्रति क्रोध भरा हुआ था। शहीद उधम सिंह भारत की आजादी के लड़ने वाले हजारों-हजार लोगों में से एक थे। शहीद उधम सिंह की शहादत को एक लंबा समय बीत गया है। तब भी शहीद उधम सिंह की शहादत को याद करने की आज भी सख्त जरूरत है। 
        शहीद उधम सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। उनके बचपन का नाम शेर सिंह था। उनके पिता मजदूर परिवार से थे। उनके पिता का नाम सरदार तेहाल सिंह जम्मू व मां का नाम नरेन कौर था। 8 वर्ष की छोटी उम्र में ही पहले पिता और बाद में मां की मृत्यु हो गयी। माता-पिता की मृत्यु के बाद उधम सिंह और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह ने अमृतसर के खालसा अनाथालय में अपना जीवन यापन किया। जहां इनका नाम शेर सिंह से बदलकर उधम सिंह रखा गया। वहां इनको सिख धर्म की दीक्षा दी गई। 1917 में इनके भाई की भी मृत्यु हो गई। इन मुश्किलों ने उधम सिंह को दुखी तो बहुत किया लेकिन इसके साथ ही उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत को और बढ़ाया। अनाथालय में ही इन्होंने दस्तकारी और कला का प्रशिक्षण लिया। 1918 में उधम सिंह ने हाई स्कूल पास किया और 1919 में अनाथालय छोड़ दिया। उधम सिंह देश व पंजाब की राजनीतिक उथल-पुथल से रूबरू थे ही, अब राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हो गए।
1919 में ही रोलेट एक्ट के विरोध में पंजाब के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई। जिसमें लगभग 20 हजार लोग शामिल थे। शांतिपूर्ण चल रही सभा में माइकल ओडवायार ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। उस समय माइकल ओ डवायर पंजाब का गवर्नर था। माइकल ओ डवायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेगिनेल्ड डायर ने सैनिकों के साथ मिलकर सभा में उपस्थित लोगों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। जलियांवाला बाग की ऊंची-ऊंची दीवारें होने के कारण लोग वहां से निकल नहीं पाए। इससे जलियांवाला बाग कांड में लगभग  एक हजार लोगों की मौत हो गई और दो हजार लोग घायल हो गए। शहीद उधम सिंह जलियांवाला बाद में एकत्रित लोगों को अनाथालय की ओर से पानी पिलाने आए थे। वे इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे। जलियांवाला बाग कांड का नरसंहार उधम सिंह ने अपनी आंखों से देखा,  जिसने नौजवान उधम सिंह को पूरी तरह हिला कर रख दिया और यह उधम सिंह की जिंदगी का मोड़ बिंदु बन गया था। 
इसके बाद उधम सिंह सक्रिय राजनीति में कूद पड़े। उन्होंने ठान लिया कि भारत के निर्दोष लोगों की हत्या करने वाले और करवाने वाले को उसके किए की सजा जरूर देंगे। उधम सिंह ने अपने द्वारा किए गए संकल्प को पूरा करने के लिए अलग-अलग देशों की यात्राएं की और वहां अलग-अलग पेशों पर आधारित रोजगार कर अपना जीवन भी चलाया। पुलिस से अपनी पहचान छुपाने के लिए उन्होंने अपने कई नाम भी बदले। उधम सिंह, भगत सिंह के विचारों से बहुत प्रभावित थे। उधम सिंह, भगत सिंह की राह पर चलने लगे। उधम सिंह अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ साम्राज्यवाद व सांप्रदायिकता का भी पुरजोर विरोध करते थे। इसीलिए उधम सिंह ने अपना नाम बदलकर राम-मोहम्मद-सिंह-आजाद रख लिया था। इसके जरिए उन्होंने देश में कौमी एकता का संदेश दिया। 
 1924 में उधम सिंह गदर पार्टी में शामिल हो गए और फिर भगत सिंह, चंद्रशेखर के संगठन "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" में शामिल हो गये। इसके जरिए विदेशों में रह रहे भारतीय लोगों को क्रांति के लिए तैयार करने का काम करने लगे। 1927 में भगत सिंह के कहने पर वह भारत वापस लौट आए। उधम सिंह जब वापस लौटे तब उनके साथ 25 सहयोगी, रिवाल्वर व गोला बारूद था। जिसके कारण उनको गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 4 साल उन्होंने जेल में ही बिताए।
1931 में जेल से छूटने के बाद वह कश्मीर चले गए। जब तक उधम सिंह जेल से छूटे तब तक भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी। किसी तरह पुलिस से बचते-बचाते उधम सिंह 1934 में लंदन पहुंच गए। उधम सिंह ने 21 साल तक जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने की इच्छा को अपने दिल में संजो कर रखा। उधम सिंह की ब्रिगेडियर जनरल रेगिनेल्ड को मारने की इच्छा पूरी नहीं हो पायी क्योकि वह पहले ही बीमारी के कारण मर चुका था। 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन में "कास्टन हाल" में बैठक थी। इस बैठक में माइकल ओ डवायर एक वक्ता के तौर पर आने वाला था। इस बैठक में पहुंचने के लिए उधम सिंह ने एक गाड़ी व रिवाल्वर का इंतजाम किया। कहा जाता है कि उधम सिंह अपनी रिवाल्वर को एक मोटी किताब में छुपा कर ले गए थे। जैसे ही माइकल ओ डवायर सभा में आया उधम सिंह ने रिवाल्वर निकालकर गोली चला दी। माइकल ओ डवायर को दो गोली लगी और उसकी घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। उधम सिंह घटना को अंजाम देकर भागे नहीं बल्कि गिरफ्तारी दे दी। उनको इस बात का गर्व था कि उन्होंने अपने देशवासियों के लिए वह करके दिखाया जो देश के सभी लोग चाहते थे।
लंदन में ही उधम सिंह पर  मुकदमा चलाया गया। अदालत में उधम सिंह ने अपना राजनीतिक बयान दिया। 4 जून 1940 को अदालत ने उधम सिंह को माइकल ओ डवायर की मृत्यु का दोषी घोषित कर दिया। 31 जुलाई 1940 को लंदन में जेल में फांसी की सजा दे दी गयी। आजादी के बाद उधम सिंह के मृत शरीर के अवशेषों को उनकी पुण्यतिथि 31 जुलाई 1974 के दिन भारत को सौंप दिया गया।
देश की आजादी के बाद देश से गौरे अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपनी जगह काले अंग्रेजों को देश की सत्ता सौंप दी। आजादी के बाद से देश में दो वर्ग बने हुए हैं। एक तरफ  पैसे वाले लोग जिनके पास अथाह संपत्ति है और दूसरी ओर गरीब मेहनतकश लोग हैं। आज भारतीय शासक आम मेहनतकश जनता के साथ वैसा ही सलूक कर रहे हैं जैसा अंग्रेजी हुकुमत भारतीयों के साथ किया करती थी। 
अंग्रेजो ने भारत पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिए "फूट डालो राज करो" की नीति अपनाई। इसके कारण देश की जनता के बीच सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का काम किया। आज भी भारतीय शासक इस नीति के तहत देश की जनता में सांप्रदायिक उन्माद फैला कर किसी भी तरह अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहते हैं। तब भी उधम सिंह, भगत सिंह व देश की मेहनतकश जनता ने कौमी एकता के दम दम पर अंग्रेजों को मुंह तोड़ जवाब दिया था और आज भी देश की मेहनतकश जनता सांप्रदायिक उन्माद का अपने संघर्ष और एकता के दम पर भारतीय शासकों को जवाब दे रही है और आगे भी देगी। 
अंग्रेजी हुकूमत ने भी मेहनत का जनता का अथाह शोषण-उत्पीड़न किया और देश की संपत्ति अपने देश ले गए। अंग्रेजों के उस शोषण -उत्पीड़न व उस कार्यवाही का भारतीय जनता कोई विरोध न करें, एकजुट ना हो इसके लिए अंग्रेज कई प्रकार के काले कानून लेकर आये। इसी में रोलेट एक्ट जैसे कानून शामिल है। आज भारतीय शासक देश की मेहनतकश जनता का शोषण-उत्पीड़न कर रहे हैं, मेहनतकश जनता के विरोधी कानून पास कर रहे हैं, आज भी गरीब मेहनतकश जनता भूखी है, नौजवानों के पास रोजगार नहीं है, आज भी इलाज के अभाव में लोग दम तोड़ रहे हैं, देश गरीब बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पा रही हैं।
आज भारतीय समाज पूर्णत: पूंजीवादी समाज बन चुका है। आज भारतीय समाज की भुख, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, महिला हिंसा, शोषण-उत्पिडन सभी समस्याओं की जड़ पूंजीवादी व्यवस्था और उसको पालने-पोसने वाला एकाधिकार पूंजीपति वर्ग है। पूंजीवादी समाज का विकल्प समाजवादी समाज ही है। पूंजीपतियों के इस सड़े गले राज का विकल्प मजदूर मेहनतकशो का राज ही है। पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना ही भारतीय समस्याओं के समाधान का रास्ता है। 
 ऐसे में हमें देश के क्रांतिकारियों की शहादत को याद कर उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की जरूरत है। भारत के वीर क्रांतिकारियों की हिम्मत, जज्बे, लगन, कुर्बानी, लक्ष्य के प्रति समर्पण आदि से सीख लेने की जरूरत है। 
आज भारतीय समाज की परिस्थितियों में उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों की जरूरत और अधिक बढ़ जाती है।

July 6, 2021

फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु भारतीय राज्य द्वारा अपने नागरिक की हत्या है

 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी को उम्र के अंतिम पड़ाव व बीमारी की स्थिति में भीमा कोरेगांव प्रकरण में अन्य धाराओं के साथ-साथ यूएपीए के तहत फ़र्ज़ी मुकदमा दर्ज कर बीते साल अक्टूबर में जेल में डाल दिया गया था।

इस दौरान उनकी तबियत लगातार खराब रही। उनकी ज़मानत याचिका पर सुनवाई में अदालत ढिलाई दिखाती रही। एक 84 साल के बीमार बुज़ुर्ग से यह व्यवस्था इस कदर घबरा गयी कि इतनी खराब शारीरिक परिस्थिति के बावजूद उन्हें ज़मानत नहीं मिली।

अंतत: 5 जुलाई 2021 को उनकी मौत हो गयी। वास्तव में यह किसी बीमारी से होने वाली मौत नहीं, बल्कि फासीवादी सरकार द्वारा की गई परोक्ष हत्या है। इस हत्या के जिम्मेदार वो भी हैं जो पूंजीवादी न्यायिक संस्था की तख्त पर बैठकर 'न्याय' की बात करते हैं। समग्रता में यह भारतीय राज्य द्वारा अपने नागरिक की हत्या है।

फादर स्टेन स्वामी मानवतावादी दृष्टिकोण रखते थे। वह आदिवासियों के कल्याण के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे। फादर स्टेन 1975 से 1986 तक बेंगलुरु के इंडियन सोश्ल इंस्टीट्यूट के निदेशक रहे। बाद में झारखंड आकार वह आदिवासी समुदायों के बीच उनके उत्थान के लिए काम करते रहे। वह आदिवासी क्षेत्रों में पूंजीवादी तत्वों द्वारा किये जा रहे गैरकानूनी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाते रहे। झारखंड सरकार द्वारा आदिवासियों को झूठे मुकदमों में फंसाकर गिरफ्तार करने की मुहिम के खिलाफ भी फादर स्टेन लगातार प्रयास करते रहे, जिसकी वजह से वह झारखंड सरकार के आँखों की किरकिरी बन गये।

भीमा कोरेगांव हिंसा के मामले का फायदा उठाते हुए मोदी सरकार ने उसे षड्यंत्र के रूप में प्रचारित किया और बहुत से जनपक्षधर कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारियां की इसमें फादर स्टेन भी शामिल थे। अन्य गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की तरह फादर स्टेन का भी यही जुर्म था कि वह इस देश की हाशिए पर खड़ी शोषित उत्पीड़ित आबादी की आवाज बन उन पर हो रहे अत्याचारों की कहानी सुना रहे थे।

प्रगतिशींल महिला एकता केंद्र मानवीय सरोकारों से जुड़े फादर स्टेन स्वामी की भारतीय राज्य द्वारा की गई परोक्ष हत्या की निंदा करता है ।


प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी



June 27, 2021

26 जून 1975: घोषित आपातकाल से अघोषित आपातकाल तक

स्वतंत्र भारत के इतिहास में 26 जून 1975 को एक काले दिन के रूप में याद किया जाता है। 25  जून 1975 की मध्य रात्रि को श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कैबिनेट की सिफारिश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर किए। 26 जून की सुबह श्रीमती इंदिरा गांधी ने रेडियो पर आपातकाल की घोषणा की इसके लिए संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल किया गया। आपातकाल के लिए सरकार ने मीसा कानून Maintenance of Internal Security Act (MISA) का इस्तेमाल यह कहते हुए किया गया कि देश में बेरोजगारी व भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन भारत की आंतरिक शांति के लिए खतरा है। इस प्रकार श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने सरकार के विरोध में उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए आपातकाल का इस्तेमाल किया। इसकी अहम वजह 12 जून 1975 को इलाहाबाद के हाईकोर्ट का श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ दिया गया फैसला था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रायबरेली के चुनाव अभियान में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया। उनके चुनाव को खारिज कर दिया गया। इंदिरा गांधी पर 6 साल तक चुनाव लड़ने तथा किसी तरह का पदभार ग्रहण करने पर पाबंदी लगा दी गई। संसद में वोट देने पर पाबंदी लगा दी। श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस आदेश को मानने के स्थान पर सुप्रीम कोर्ट में 24/6/1975 को अपील की और 25/6/1975 को रात को आपातकाल लगा दिया। इस आपातकाल में जनता के मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया।  सरकार विरोधी जुलूस, सभा तथा जुलूस-प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गई ।सभी विरोधियों - जयप्रकाश नारायण, जार्ज फर्नाडीज, अटल बिहारी बाजपेई आदि को जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। बड़े पैमाने पर नसबंदी कार्यक्रम लागू किया गया। आपातकाल के विरोध में अधिकारों को वापस हासिल करने के लिए पूरे देश में जन आंदोलन खड़े हो गये।लगभग 2 साल बाद 21 मार्च 1977 को यह आपातकाल खत्म हुआ। यह वह दौर था जब जनता को, प्रेस को व अन्य संस्थाओं को यह पता था कि उनके अधिकार छीन लिए गए व उन्हें वापस हासिल करना है।
लेकिन आज हम देखते हैं कि जनता के पास उसके सभी मौलिक अधिकार मौजूद हैं लेकिन मेहनतकश जनता अपने अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है। कभी गौमांस के नाम पर, तो कभी धर्म के नाम पर, तो कभी संस्कृति के नाम पर उनके अधिकारों को छीनने, काँट छाँट कर उन्हें सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है। विरोध के हर स्वर को दबा दिया जा रहा है। असहमति के अधिकार का अपराधीकरण किया जा रहा है। जिहाद के नाम पर महिलाओं को उनके कानून सम्मत अधिकारों- प्रेम करने,अपनी इच्छा से विवाह करने के अधिकार पर डाका डाला जा रहा है। सरकार के नुमाइंदों द्वारा खाने पीने, पहनने ओढ़ने पर एक के बाद एक फ़तवे जारी किये जा रहे हैं। 
CAA-NRC कानून के ज़रिये अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का प्रयास किया गया। जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर दिया गया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है। मीडिया पर कोई घोषित सेंसरशिप नहीं है लेकिन खबरों को मैनेज किया जा रहा है। कृषि कानून, श्रम कानून, नई शिक्षा नीति जैसे एक के बाद एक जनविरोधी नीतियों को लागू किया जा रहा है। 
वास्तव में आज हम एक अघोषित आपातकाल में जी रहे हैं।ऐसा अघोषित आपातकाल जिसमें कहने के लिए हमारे पास सभी कानूनी अधिकार हैं लेकिन व्यवहार में हमसे हमारे अधिकार छीन लिये गए हैं। ऐसे में एक बार
फिर देश की सड़कों पर इस नारे को बुलंद करने की ज़रूरत है कि 

"सिंहासन खाली करो, जनता आती है! "

June 19, 2021

कॉमरेड शर्मिष्ठा को श्रद्धांजलि

अखिल भारतीय क्रांतिकारी महिला संगठन (AIRWO) की महा सचिव प्रिय कॉमरेड शर्मिष्ठा का दिनांक 13 जून 2021 को covid 19 व अन्य बीमारियों से जूझते हुए निधन हो गया। वे महिला मुक्ति के मोर्चे पर लम्बे समय से काम कर रही थीं। 
मजदूर आन्दोलन इस समय बेहद कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा है। पिछले एक साल ने वर्ग युध्द में लगे   हमारे कॉमरेड पाशा, कॉमरेड शिव राम,  कॉमरेड नगेन्द्र और कॉमरेड शर्मिष्ठा को हमसे छीन लिया। 
कॉमरेड शर्मिष्ठा महिला मुक्ति के मोर्चे पर सक्रिय थीं। उन्होंने भांगर आन्दोलन को नेतृत्व देने का काम किया। 
नारी मुक्ति के मोर्चे पर काम करने वाले जुझारू व समर्पित साथी का हमारे बीच से चले जाना। मजदूर आन्दोलन व महिला मुक्ति आन्दोलन के लिए बड़ी क्षति है। 
ऐसे साथी को सच्ची श्रद्धांजलि उनके संघर्षों को आगे बढ़ा कर ही दी जा सकती है। 
प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र उनके सपनों के समाज को बनाने के लिए संघर्षों को तेज करने उनको आगे बढाने का संकल्प लेता है। 
इंकलाब जिंदाबाद! 
कॉमरेड शर्मिष्ठा को लाल सलाम✊✊
प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र

June 16, 2021

कामरेड नगेन्द्र का शानदार इंकलाबी जीवन : एक भावभीनी श्रृद्धांजलि

 

10 जून की रात 8 बजे कामरेड नगेन्द्र हमें छोड़कर चले गये। मोबाइल के जरिये यह खबर करीब और दूर के परिचितों के बीच एक-एक कर फैलती चली गयी। उन्हें जानने वाला हर इंसान इस खबर से स्तब्ध रह गया। स्तब्ध होना स्वाभाविक भी था। वे करीबी लोग भी दिमागी तौर पर इस खबर के लिए तैयार नहीं थे जिन्हें पता था कि वे दो वर्ष से अधिक समय से कैंसर की बीमारी से जूझ रहे हैं और बीते कुछ वक्त से कैंसर फैलने लगा था और कुछ दिन पहले ही डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। वे किसी चमत्कार की उम्मीद में भले न हों पर उन्हें भी उनके इतनी जल्दी जाने की उम्मीद न थी। शायद कामरेड नगेन्द्र से अन्तिम मुलाकातों में भी दर्द के बीच उनके चेहरे पर फैली निश्छल मुस्कराहट ऐसा कोई भान होने से रोक देती थी कि साथी इतनी जल्दी हमें छोड़कर चले जायेंगे। उनके निधन की खबर जैसे-जैसे फैलती गयी, उनके संगठन इंकलाबी मजदूर केन्द्र के साथियों के, अन्य संगठनों के साथियों के और उनसे परिचित, उनके संपर्क में आये ढेरों लोगों के श्रृद्धांजलि संदेश उनके निकट के साथियों के फोनों पर आते चले गये। ये संदेश बताते हैं कि कामरेड नगेन्द्र को चाहने वालों, उन्हें प्यार व सम्मान देने वालों की संख्या बहुत है। ये संदेश बताते हैं कि कामरेड नगेन्द्र ने अपना 28 वर्ष लम्बा शानदार इंकलाबी जीवन कुछ ऐसे जिया जिस पर गर्व किया जा सके, जिससे सीखा जा सके, उनकी ढेरों खूबियों को अपनाने का संकल्प लिया जा सके। 11 जून की सुबह कामरेड नगेन्द्र के पार्थिव शरीर को लाल झण्डे में लपेटकर शाहबाद डेरी लाया गया। यहां इंकलाबी मजदूर केन्द्र के केन्द्रीय कार्यालय पर उनके पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शनार्थ रखा गया। विभिन्न संगठनों, मित्रों, परिजनों ने लाल सलाम के साथ कामरेड को अंतिम विदाई दी। इसके पश्चात दिल्ली के निगम बोध श्मशान घाट के गैस शवदाह गृह में उनके पार्थिव शरीर को सुपुर्दे खाक कर दिया गया। कामरेड नगेन्द्र का जन्म 15 जुलाई 1975 को उत्तराखण्ड के भलट गांव, गनाई रानीखेत जिला अलमोड़ा में हुआ था। उनका शुरूआती बचपन अपने गांव में ही बीता। शुरूआती कुछेक वर्ष की शिक्षा गांव में होने के पश्चात ये काशीपुर (ऊधमसिंह नगर) आ गये। यहां उन्होंने केन्द्रीय विद्यालय काशीपुर में प्रवेश लिया। 1989 में यहीं से उन्होंने हाईस्कूल व 1991 में इण्टरमीडिएट किया। इसके पश्चात 1992 में इन्होंने काशीपुर के पॉलिटेक्निक कॉलेज में कैमिकल इंजीनियरिंग में 4 वर्षीय डिप्लोमा कोर्स में प्रवेश लिया और 1996 में पालीटेक्निक डिप्लोमा पास किया। इसी दौरान उन्होंने रामनगर के डिग्री कालेज में प्राइवेट छात्र के रूप में 1995 में बी ए भी पूरा किया। केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही वे सामान्य ज्ञान, नाटक, भाषण, एकांकी, अंताक्षरी आदि की प्रतियोगिताओं में भाग लेते व पुरस्कार पाते रहे। विविध क्षेत्रों में उनकी यह रुचि उनके आगे के क्रांतिकारी जीवन के दौरान भी बनी रही। पालिटेक्निक कॉलेज के शुरूआती वर्षों में ही 1993 में वे क्रांतिकारी राजनीति से जुड़ गये। 1993 में ‘विकल्प’ मंच से जुड़ने के कुछ समय बाद ही कामरेड नगेन्द्र परिवर्तनकामी छात्र संगठन की स्थापना के प्रयासों में सक्रिय हो गये। 1996 में परिवर्तनकामी छात्र संगठन के स्थापना सम्मेलन से लेकर 2003 के संगठन के चौथे सम्मेलन तक वे संगठन की विभिन्न जिम्मेदारियों को उठाते रहे। इस दौरान वे लम्बे वक्त तक संगठन की केन्द्रीय कार्यकारिणी, सर्वोच्च परिषद के सदस्य रहने के साथ केन्द्रीय उपाध्यक्ष भी रहे। इसी दौरान वे परचम पत्रिका के सम्पादक भी रहे। प.छा.स. के बैनर तले सक्रिय रहते हुए ही इन्होंने अपना पूरा वक्त इंकलाब के कामों में लगाने का निर्णय लिया। इन्होंने कई छात्र संघर्षों में हिस्सा लिया। इस समय वे नैनीताल में फड़-खोखे वालों के संघर्ष में भी सक्रिय रहे। कुमाऊं वि.वि. में चले फीस वृद्धि के खिलाफ संघर्ष में इन्होंने बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया। 2003 के बाद से ही कामरेड नगेन्द्र मजदूर वर्ग को संगठित करने के प्रयासों में जुट गये। 2005 में ईस्टर (खटीमा) फैक्टरी के मजदूरों के लम्बे जुझारू संघर्ष में साथी ने नेतृत्वकारी भूमिका निभायी। 2006 में इंकलाबी मजदूर केन्द्र की स्थापना के वक्त से लेकर अपने जीवन के अंतिम वक्त तक ये मजदूर वर्ग को संगठित करने में जुटे रहे। इंकलाबी मजदूर केन्द्र में ये केन्द्रीय कमेटी व केन्द्रीय परिषद की जिम्मेदारियों के अलावा उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी भी निभाते रहे। इस दौरान ये खटीमा, फरीदाबाद और दिल्ली आदि जगहों पर विभिन्न मजदूर संघर्षों में सक्रिय रहे। 2016 से अपने जीवन के अंतिम समय तक ये नागरिक पाक्षिक समाचार पत्र के सम्पादक भी रहे। संघर्षों के दौरान वे जेल भी गये। दिल्ली में विभिन्न मसलों पर होने वाले साझा प्रदर्शनों, गोष्ठियों, सेमिनारों, बैठकों आदि में कामरेड नगेन्द्र लगातार इंकलाबी मजदूर केन्द्र के प्रतिनिधि व वक्ता रहे। अपने 28 वर्ष लम्बे इंकलाबी जीवन में इन्होंने ढेरों पर्चे-पुस्तिकायें-लेख लिखे। राजनैतिक मुद्दों पर अवस्थिति लेने में अपनी मजबूत विचारधारात्मक पकड़ व देश दुनिया के घटनाक्रमों से परिचित होने के चलते कामरेड नगेन्द्र ने हमेशा ही नेतृत्वकारी भूमिका निभायी। एक बेहतरीन वक्ता के बतौर उन्हें संगठन की गोष्ठियों-शिविरों-सेमिनारों में हमेशा जाना गया। भाषण देते वक्त उनका विषय का ज्ञान, शब्दों का चयन, भाषा का प्रवाह और चेहरे की भाव भंगिमा अक्सर ही श्रोताओं को उद्वेलित कर देती थी। आम तौर पर भी वे अपने विविधता भरे ज्ञान के चलते अक्सर ही अपने इर्द-गिर्द एक घेरा जुटा लेते थे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से लेकर खेल, कला, साहित्य, संस्कृति, नाटक आदि विविध विषयों पर बहस करते हुए पाया जा सकता था। सहज, मित्रवत मिलनसार व्यक्तित्व के चलते उनसे पहली बार मिलने वाले साथी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। पढ़ने के वे शौकीन थे। उनके जानने वाले उनके झोले में तीन-चार विविध विषयों की पुस्तकों से कम कभी नहीं पाते थे। राजनैतिक-सैद्धांतिक विषयों से लेकर कहानी-उपन्यासों तक विभिन्न पुस्तकों को वह निरंतर पढ़ते रहते थे। वर्तमान समय में देश-दुनिया के क्रांतिकारी संघर्ष से लेकर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में वे यथासंभव परिचित रहते थे। क्रांतिकारी आंदोलन में हो रहे परिवर्तनों पर बेबाकी से अपनी राय रखते थे। राजनीति, खेल, संगीत, संस्कृति सबके बारे में वर्तमान स्थिति से वे हमेशा परिचित रहते थे। इतने व्यापक क्षेत्रों में जानकारी के चलते ही उनके साथ वक्त बिताने वाले आम मजदूर से लेकर संगठन के कार्यकर्ता-नेता तक उनसे कुछ न कुछ सीखते रहते थे। मजदूर वर्ग के ध्येय क्रांति के मिशन पर उनका विश्वास अटूट था। संगठन में आने के पश्चात उन्होंने ढेरों लोगों को इंकलाब से पीछे हटते, पलायन करते देखा। पर इस सबका असर कभी भी उनके जीवन पर नजर नहीं आया। वे एकबारगी भी कमजोर पड़ते नहीं पाये गये। अपने संगठन और इंकलाब में उनका अटूट विश्वास जीवन के अंतिम क्षणों तक बना रहा। पर इसका अर्थ यह नहीं था कि वे अपने संगठन के प्रति अंध विश्वास रखते थे। बल्कि बात उलटी है। वे अपने संगठन की नीतियों की, संगठन के साथियों की हर उस वक्त आलोचना करते थे जब उन्हें गलत लगता था। पर उनकी आलोचना का लक्ष्य अपने संगठन पर विश्वास करते हुए अपनी समझ से उसे दुरुस्त करने का होता था। उनका सरल सौम्य स्वभाव, निश्छल हंसी हर किसी को आकर्षित करती थी। वे अपनी कमियों-गलतियों को कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते थे। बहुधा तो वे खुद की गलतियों के किस्से खुद ही सुनाते पाये जाते थे। एक क्रांतिकारी को जैसा जीवन जीना चाहिए उन्होंने न केवल वैसा ही जीवन जिया बल्कि बीमारी और मौत का भी एक क्रांतिकारी की तरह सामना किया। अक्सर ढेरों लोग यह जानने के बाद कि वे कैंसर की ऐसी असाध्य बीमारी से ग्रसित हैं जिसका इलाज संभव नहीं है, कमजोर पड़ जाते हैं, आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं। पर कामरेड नगेन्द्र ने बीमारी के आतंक को कभी अपने मस्तिष्क पर हावी नहीं होने दिया। वे बीमारी से बहादुरी से लड़ते रहे, इलाज कराते रहे और इंकलाब के कामों में जुटे रहे। वक्त-वक्त पर कैंसर के चलते शरीर के विभिन्न हिस्सों में दर्द बढ़ता रहा, कुछ समय वे दर्द सहते, पड़े रहते पर दर्द से जरा भी राहत मिलते ही अपने कामों में सक्रिय हो जाते। बीते वर्ष जब कोरोना महामारी के नाम पर लॉकडाउन लगा तो उन्होंने कई विषयों पर आनलाइन वक्तव्य कैंसर से जूझते व लड़ते हुए ही दिये। पिछले कुछ माह से उनकी पीड़ा काफी बढ़ गयी थी पर अपने से मिलने वालों के सामने अक्सर वे इस दर्द को छुपाते हुए हंसते हुए बात करते पाये जाते थे। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व तक अपने लिए वे किताबें जुटा रहे थे जिन्हें उन्होंने पढ़ने की सोच रखी थी। उनकी इस लगन को देखकर बरबस ही भगत सिंह याद आते हैं जो फांसी के फंदे पर चढ़ने से पहले लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। कहना गलत नहीं होगा कि कामरेड नगेन्द्र ने बीमारी का सामना भी मजदूर वर्ग के बहादुर सिपाही की तरह किया। उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक को मजदूर वर्ग के मिशन में लगाने की कोशिश की। एक इंसान के बतौर वे, बच्चों के बीच बच्चे सरीखा बनने वाले, अपने साथियों का यथा संभव ख्याल करने वाले थे। उनके सीधे सरल स्वभाव के चलते कई दफा दूसरे लोग उनका नाजायज फायदा तक उठा लेते थे। क्रांतिकारी बदलाव में लगे साथियों के लिए कामरेड नगेन्द्र के जीवन में बहुत कुछ ऐसा था जिससे सीखा जाना चाहिए। कम्युनिस्ट जीवन मूल्य ऐसा ही एक गुण है। मजदूर वर्ग की दुःख, तकलीफ से द्रवित हो उठना, भावुक हो जाना, उनकी मदद को तत्पर हो जाते उन्हें अक्सर देखा जाता था। किसी बच्चे, किसी घरेलू महिला से लेकर सामान्य मजदूर-छात्र, भिन्न मत के लोगों तक को साथी नगेन्द्र पूरे ध्यान से सुनते थे, उनको पूरी इज्जत देते थे और फिर धैर्यपूर्वक अपनी बातों को उनके सामने सरलता से प्रस्तुत करते थे। लोग उनसे सहमत हों या नहीं, प्रभावित हुए बगैर नहीं रहते थे। इसीलिए लोग उन्हे पसंद करने लगते थे। वे अनुशासनशील प्राणी थे। वे किसी भी काम में जुटे हों पर अपने से बात करने आये साथियों को कभी निराश नहीं करते थे। इस चक्कर में निश्चित समय में काम पूरा करने के लिए अतिरिक्त मेहनत करते थे। पर ज्यादातर वे दिये समय में काम पूरा कर डालते थे। कैसे सहजता-सरलता से कठिन विषयों को भी जनता के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है। इसकी वे मिशाल थे। इन सबसे बढ़कर वे एक योद्धा थे, मजदूर वर्ग के इंकलाबी मिशन के सिपाही थे जिन्होंने बीमारी को भी इंकलाबी सिपाही की तरह जवाब दिया। कामरेड नगेन्द्र आज हमारे बीच नहीं हैं। उनके जाने से पैदा हुए निर्वात को भरना काफी कठिन है। उनकी कमी इंकलाबी मजदूर केन्द्र ही नहीं नागरिक समाचार पत्र तक में लम्बे वक्त तक महसूस की जायेगी। उनकी कमी को हमें पूरा करना ही होगा। उनके जीवन से सीखते हुए, उनके गुणों को अपनाते हुए संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। यही हमारी उनको सच्ची श्रृद्धांजलि होगी। कामरेड नगेन्द्र तु
म्हें अलविदा कहने का मन नहीं करता, फिर भी अलविदा साथी। 

साभारः नागरिक डॉट कॉम, अधिकारों को समर्पित

June 11, 2021

कॉमरेड नगेंद्र को लाल सलाम

इंकलाबी मज़दूर केंद्र के उपाध्यक्ष तथा जुझारू कार्यकर्ता कामरेड नगेंद्र ने 47 वर्ष की अल्पायु में ही हमारा साथ छोड़ दिया। 10 जून को रात करीब 8 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। साथी पिछले 2 साल से अधिक समय से कैंसर से जूझ रहे थे। अपने अंतिम समय तक वह अपने ध्येय के लिये समर्पित रहे। 

अपने छात्र जीवन से ही कामरेड नगेंद्र क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गये और उसके बाद से ही उनका पूरा जीवन क्रांति के उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहा।

साथी नगेन्द्र लम्बे समय तक परिवर्तनकामी छात्र संगठन से जुड़े रहे। साथी पछास के उपाध्यक्ष भी रहे। साथी ने लंबे समय तक 'परचम' पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी उठाई। मौजूदा समय में साथी 'नागरिक' समाचार पत्र के संपादन की जिम्मेदारी उठा रहे थे।

 प्रगतिशील महिला एकता केंद्र उन्हें क्रांतिकारी लाल सलाम पेश करता है और क्रांतिकारी आंदोलन को तेज करने का संकल्प लेता है। 
     
 इंकलाब जिंदाबाद !
प्रगतिशील महिला एकता केंद्र

May 26, 2021

6 माह से पूरी दृढ़ता के साथ संघर्ष कर रहे किसानों और किसान आंदोलन को हमारा सलाम

 दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का संघर्ष 6 माह पूरा कर चुका है। इतने लंबे संघर्ष के बावजूद सरकार किसानों का दर्द सुनने को तैयार नहीं । सरकार द्वारा अपनाए गये तमाम हथकंडों के बावजूद संघर्षरत किसान अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। किसान आंदोलन आज एक ऐतिहासिक आंदोलन बन गया है। इस आंदोलन ने पूरे देश के किसानों की दुर्दशा को एक झटके में सामने ला दिया। इसने वक्त-वक्त पर अलग-अलग कोने में फूटे किसानों के संघर्षों को एकीकृत व देशव्यापी बना दिया। इसने पूरे देश के किसानों को झकझोर दिया। इसने अन्य मेहनतकश तबको छात्रों-नौजवानों-महिलाओं में संघर्ष के प्रति सहानुभूति पैदा कर दी।

कोविड-19 कोरोना महामारी की इस आपदा को मोदी सरकार ने पूंजीपति वर्ग के लिए आपदा में अवसर तलाशा है। मोदी सरकार ने मजदूर-मेहनतकश आवाम पर चौतरफा हमला बोला है। इस देशभक्त सरकार ने अधिकतर सरकारी संस्थानों को निजी हाथ में देने का काम किया तो वही शिक्षा में सुधार के नाम पर नई शिक्षा नीति लागू की गई। 44 श्रम कानूनों को चार श्रम संहिता में बदल डाला। हमारे मजदूर भाइयों ने अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष कर 1926 में ट्रेड यूनियन एक्ट हासिल किया था जिसे सरकार ने निष्प्रभावी करने का काम किया है।इस कोरोना महामारी के चलते सैकड़ों निर्दोष लोग अस्पतालों में बेड व ऑक्सीजन के अभाव में मारे जा रहे हैं। उन्हें सम्मानजनक अंतिम संस्कार तक मुहैय्या नहीं हो रहा है। ऐसे वक्त में दिल्ली के बॉर्डर पर जमे किसानों का संघर्ष सरकारी षड़यंत्रों व महामारी का मुकाबला करते हुए और फौलादी बन रहा है।

 इस आंदोलन ने देशभक्त सरकार के चेहरे के पिछे छुपे खुखार पिचासु चेहरे को जनता के समाने खोल दिया है। इस आंदोलन ने सरकार के अंधराष्ट्रवाद-सांप्रदायिक उन्माद सरीखे जहरीले हत्यारों को भोथरा बनाने का, उनका असर कम करने का काम किया। इसने मोदी सरकार की वर्गीय पक्षधरता को बच्चे- बच्चे के सामने बेनकाब कर दिया। साथ ही सांप्रदायिक वैमनस्य के बजाय हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ाने का काम किया। संघर्ष के मैदान में कूदे हुए किसानों ने बहुत कुछ बार-बार सहा हो लेकिन सबसे बड़ा दुख अपने साथियों को खोने का था। अब तक लगभग 300 से ज्यादा किसान आंदोलन में शहीद हुए हैं। तमाम दमन को झेलते हुए किसान दिल्ली पहुंचे और वहां टिके रहने के लिए उन्हें बार-बार दमन का सामना करना पड़ा।

 आखिर क्या कारण है कि मोदी सरकार अपने काले कृषि कानूनों को वापस लेने को तैयार नहीं हैं। क्यों वह पीछे हटना नहीं चाहती।

  इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वित्तीय पूंजी नहीं चाहती है कि कानून वापस लिए जाएं। देशी-विदेशी एकाधिकारी घराने अंबानी-अडानी नहीं चाहते कि यह कानून वापस लिए जाएं। 

यह काले कृषि कानून ही काली नई आर्थिक नीतियों का एक भाग है। जो पिछले तीन दशकों में एक-एक कर लागू की जाती रही है। यह काले कृषि कानून उन समझौते-निर्देशों के हिस्से हैं जो समय-समय पर साम्राज्यवादी संस्थाओं विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक द्वारा थोपे गए हैं।

यह काले कृषि कानून भारत की संसद में पास करवाए जा सके इसके लिए इसके इन  साम्राजवादी संस्थाओं, देशी-विदेशी वित्तिय  महाप्रभुओं और बड़े-बड़े  एकाधिकारी घरानों ने हिंदू फांसीवाद को पहले सत्तासीन किया और फिर उसे वह करने दिया जो उसके मंसुबों को पूरा करने के लिए भारत में करना चाहते थे। हिंदू फासीवाद और वित्तीय पूंजी का गठजोड़ 2014 में आम चुनाव से पहले कायम हुआ था। इस गठजोड़ ने एक-दूसरे के हितों की पूर्ति के लिए भारत को लगभग वही पहुंचाना शुरू कर दिया जहां से पिछली सदी के तीसरे दशक में इटली, जर्मनी थे। हिटलर मुसोलिनी के पीछे चंद वित्तीय घराने थे। और ठीक उसी तरह मोदी के उत्थान के पीछे भी चन्द वित्तिय घराने हैं।

 किसान आंदोलन का सामना भारत के इतिहास में अभूतपूर्व ताकत से हो रहा हैं। यहां ऐसी ताकत सामने हैं जो पूंजी की ताकत, राज्य की ताकत और हिंदू फांसीवादी संगठन से लेकर उनकी सेवा करने वाला मीडिया है।इस ताकत को किसान आंदोलन ने चुनौती दी है। भारत के इतिहास में किसानों ने एक से बढ़कर एक संघर्ष रहे हैं। इन संघर्षों में किसानों का सामना घोर प्रतिक्रियावादी ताकतों से हुआ है।

किसान आंदोलन की जीत हिंदू फासीवाद  और वित्तीय पूंजी के गठजोड़ की हार होगी परंतु यह उनको और खूंखार और हमलावर भी बनाएगी। यह हार खाने के बाद और निर्लज्जता और धूर्तता और क्रूरता का परिचय देंगे। ऐसे में जरुरत बनती है कि भारत के मजदूर-किसान-अन्य शोषित- उत्पीड़ित एकजुट होकर फासीवाद, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के पूर्ण खात्मा के लिए आगे  आए व मजदूर-मेहनकशों का समाज समाजवाद की स्थापना की जाएं।

केंद्रीय कमेटी

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र









































































Template developed by Confluent Forms LLC; more resources at BlogXpertise