February 1, 2021

बॉम्बे हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति के फैसले (स्किन-टू-स्किन) के विरोध में

 बॉम्बे हाई कोर्ट ने 25 जनवरी 2021 को बच्चियों के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के संबंध में एक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति 12 वर्ष की बच्ची के कपड़े उतरे बिना उसकी ब्रेस्ट को दबाता है तो वह यौन हमला नहीं माना जाएगा। ऐसी हरकतें पोक्सो एक्ट (Prevention of Children from Sexual Offence Act) के तहत यौन उत्पीड़न के बतौर नहीं गिनी जाएगी।

यह फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने सुनाया। न्यायमूर्ति गनेडीवाला के अनुसार जब कोई गंदी मंशा से त्वचा से त्वचा (स्किन-टु-स्किन) का संपर्क नहीं करेगा तब तक वह हरकत (हमला) यौन उत्पीड़न का हमला नहीं माना जा सकता है। कपड़े के ऊपर से लड़कियों के प्राइवेट पार्ट को छूना भर यौन हमले की परिभाषा नहीं है।

दरअसल, नागपुर निवासी सतीश दिसंबर 2016 में 12 साल की बच्ची को खाने के सामान का लालच देकर अपने घर ले गया, जहां उसने बच्ची के ब्रेस्ट को दबाया व उसके कपड़े उतारने की कोशिश की। इस बात की गवाही बच्ची ने सेशन्स कोर्ट में दी थी। इसके बाद सेशन्स कोर्ट ने इस मामले मे सतीश को पोक्सो एक्ट के तहत 3 वर्ष कारावास की सज़ा सुनाई थी।

न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को बदल दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह की हरकत को पोक्सो एक्ट के तहत यौन हमले के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। हालांकि न्यायमूर्ति ने आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 (शीलभंग) के तहत मुकदमा चलाये जाने की बात कही है जिसमें अपराधी को न्यूनतम एक वर्ष कारावास की सज़ा है।

सेशन्स कोर्ट ने आरोपी को पोस्को एक्ट और आईपीसी की धारा 354 के तहत 3 वर्ष कैद की सज़ा सुनाई थी और आरोपी की दोनों सज़ाएँ साथ साथ चलनी थी। लेकिन हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति ने आरोपी को पोक्सो एक्ट से मुक्त कर तीन वर्ष की सज़ा माफ कर दी और आईपीसी की धारा 354 के तहत एक वर्ष की सज़ा सुनाई गई। फिलहाल सूप्रीम कोर्ट ने इस फैसला पर रोक लगा दी है।

इस फैसले से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि बच्चियों के साथ यौन हमला होता है और अपराधी बच्चियों के कपड़े उतारे बिना ही उनका यौन उत्पीड़न करता है जैसे फ्रॉक या बनियान उतरे बिना उसके ब्रेस्ट को छूना, दबाना, दांतों से काटना या पैंटी उतारे बिना उनके हिप्स को दबाना या वैजाइना मे उंगली (फिंगर) डालना आदि हरकतें पोक्सो एक्ट के तहत नहीं आएगी।

आज देश में छोटी-छोटी बच्चियों के साथ अपराध, यौन हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं जिसके खिलाफ लगातार मांग उठ रही है कि यौन हिंसा के मामलों में कठोर कानून बनाए जाने चाहिए कि अपराधी को फांसी दी जानी चाहिए। लेकिन हम देख रहे हैं कि कानून बने हुए हैं। यहाँ तक कि महिलाओं को घूरने, छूने और पति द्वारा पत्नी के साथ ज़बरदस्ती करने तक पर कानून बने हैं। सज़ा तय है। लेकिन क्या उसके बाद भी अपराध नहीं हो रहे हैं?

जब किसी महिला या बच्ची के साथ कोई घटना होती है, ऐसे में वह जब थाने मे रिपोर्ट लिखवाने जाती है तब पहले तो उनकी रिपोर्ट ही नहीं लिखी जाती है। अगर रिपोर्ट लिखी गई तो उनके केस की सही तरीके से पैरवी नहीं होती है और किसी तरह कोर्ट मे अपराधी को सज़ा मिल जाये तो ऊपरी कोर्ट मे जाकर अपराधी की सज़ा कम हो जाती है। कभी कभी तो सज़ा माफ भी हो जाती है। यह निर्भर करता है कि अपराधी कितने पैसेवाला व्यक्ति है क्योंकि जिसके पास जितना पैसा होगा वह उतना काबिल रख सकता है और तीन तिकड़म करके बच सकता है। यह तब और ज़्यादा हो जाता है जब सभी संस्थाओं, उच्च पदों पर पुरुष प्रधान मानसिकता के लोग मौजूद हों, चाहे वह थाने हों या न्यायपालिकाएं हों।

इस फैसले से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष प्रधान मानसिकता केवल पुरुषों के अंदर ही नहीं बल्कि महिलाओं के अंदर भी मौजूद है जो महिलाओं को पैर की जूती से ज़्यादा कुछ नहीं समझते हैं। उनको इंसान नहीं समझते हैं। ये महिलाओं पर पुरुषों का प्रभुत्व समझते हैं और महिलाओं को केवल उपभोग की वस्तु समझते हैं। और यह मानसिकता कमज़ोर, मज़दूर मेहनतकश महिलाओं के खिलाफ़ ज़्यादा इस्तेमाल की जाती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र बॉम्बे उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति के द्वारा सुनाये गए इस फैसले की निंदा करता है क्योंकि एक तो न्यायमूर्ति ने खुद पोक्सो जैसे कानून की मनमर्ज़ी व्याख्या की है जो गलत है। दूसरे कोई भी सामान्य व्यक्ति इस बात को समझ सकता है कि 12 साल की बच्ची के निजी अंगों को छूना गलत है, अपराध है। लेकिन न्यायमूर्ति ने अपराधी का पक्ष लेकर उसको बचाने की कोशिश की तथा अपने पद का गलत इस्तेमाल किया। प्रगतिशील महिला एकता केंद्र पुरुष प्रधान मानसिकता का पुरज़ोर विरोध करता है जो महिलाओं को इंसान ही नहीं समझती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र का मानना है कि महिलाओं के प्रति “यौन वस्तु” के विचार और संस्कृति को पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था रात-दिन खाद पानी देती है। इससे होता है कि समाज में महिलाओं को यौन वस्तु समझा जाता है। अश्लील विज्ञापनों, फिल्मों, गानों, पॉर्न साइटों के माध्यम से महिलाओं को यौन वस्तु समझना की घृणित मानसिकता पैदा हो रही है। फिर चाहे वह छोटी बच्ची हो या फिर चाहे वह कोई वृद्ध महिला हो, सभी यौन हमलों की शिकार हो रही हैं।

इन मामलों में केवल व्यक्ति को सज़ा देना या फांसी देने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा। जो व्यक्ति अपराध करता, उसको सज़ा तो मिलनी ही चाहिए। लेकिन जब तक ये पूंजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक महिलाओं के साथ हिंसा व अपराध खत्म नहीं होंगे। तो ज़रूरी यह है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त किया जाये और नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा पारित

किसान आंदोलन पर हो रहे हमलों के विरोध में

 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में जो हुआ वह ऐतिहासिक था। लगभग 2-4 लाख किसान 2 लाख ट्रैक्टरों के साथ दिल्ली परेड में शामिल हुए। एक तरफ जनपथ पर भारत सरकार द्वारा तीनों सेनाओं द्वारा शक्ति प्रदर्शन कर रही थी वहीं दूसरी तरफ इस देश के किसान अपने ऊपर थोपे जा रहे तीन कानूनों के खिलाफ अपने आंदोलन को एक नए स्तर पर ले जाने के लिए तैयार थे। तीनों कृषि विरोधी कानूनों के खिलाफ जून से ही किसान असंतोष दिखा रहे हैं। नवंबर अंत में किसानों ने अपने प्रदर्शन को दिल्ली लाने का प्रयास किया लेकिन सरकार द्वारा किए गए दमन की वजह से उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर ही रुक जाना पड़ा। समय के साथ-साथ किसानों का आंदोलन व्यापक होता गया। देश के कोने-कोने से न केवल किसान
बल्कि आम जनता इस आंदोलन के समर्थन के लिए उमड़ पड़ी। और यही कुछ दिख रहा था 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर जहां न केवल किसान बल्कि आम जनता का एक बड़ा हिस्सा न केवल परेड में शामिल था बल्कि वह सड़कों पर किसानों के उपर फूल बरसा रही थी और उनका अभिनंदन कर रहा था।

उसके बाद घटना जिस तरह भी घटी, किसान किस तरह भी दिल्ली पहुंचे, झंडा किसी ने भी फहराया लेकिन इस देश के चौथे खंभे ने सरकार को वह परोस दिया जो वह लंबे समय से चाहती थी। लाल किले में घुसने और झंडा फहराने को गोदी मीडिया ने इस कदर प्रचारित प्रसारित किया कि पूरे आंदोलन पर एक सवाल ख़ड़ा हो गया। वह किसान जिसकी मेहनत से इस देश की जनता का पेट भरता है वह अचानक आतंकवादी और देशद्रोही हो गया। वह लाल किला जिसका प्रबंधन 2018 में मोदी सरकार ने डालमिया भारत समूह को सौंप दिया था उसे नुकसान पहुंचाने का आरोप लगने लगा। राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा और उसके संगठनों ने किसानों की उन तमाम न्यायिक मांगों को देशद्रोह साबित कर दिया जिसका असर न सिर्फ किसानों पर पड़ने वाला है बल्कि इस देश की आम मेहनतकश जनता की रोटी की जरूरत पर भी पड़ने वाला है।

लेकिन सच है कि इस तमाम परिघटना में अगर कुछ गलत है तो वह है वह तीन कानून जो मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट जगत के हित में पास किए हैं। यदि कुछ गलत हुआ है तो वह किसान जो किसान विरोधी नीतियों की वजह से आत्महत्या कर अपने परिवार को बेसहारा छोड़कर जाने पर मजबूर हुए हैं। यदि कुछ गलत हुआ है तो सर्वोच्च न्यायालय का वह बयान जिसके अनुसार महिलाएं आंदोलन में जगह नहीं रखती हैं। यह बयान न सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय की पितृसत्तामक नजरिए को दिखाता है बल्कि अब तक महिला किसानों को किसान का दर्जा न मिलने की आधारभूत वजह को समझाता है।

26 जनवरी के बाद से ही किसान आंदोलन लगातार हमले का शिकार हो रहा है। एक तरफ इस देश का बिका हुआ मुख्यधारा का मीडिया है जो इसे तोड़ने की कोशिश कर रहा है दूसरी तरफ स्थानीय लोगों के नाम पर भाजपा के गुंडे हैं जो लगातार किसान आंदोलन के सभी धरना स्थलों पर किसानों तथा उनके समर्थकों पर हमले कर रहे हैं। किसानों के साथ-साथ अब केंद्र सरकार ने उन पत्रकारों पर भी हमले शुरु कर दिए हैं जो किसानों की संघर्ष की असली तस्वीर जनता के सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। मंदीप पुनिया की नाजायज गिरफ्तारी इस का स्पष्ट उदाहरण है। प्रगतिशील महिला एकता केंद्र सरकार द्वारा किसानों की जायज मांग को लेकर चल रहे आंदोलन पर इस नाजायज हमले तथा आंदोलन स्थल पर किसानों के साथ-साथ उनके पक्षधर पत्रकारों पर हमले की निंदा करता है तथा किसान आंदोलन का पुरजोर समर्थन करता है।

किंतु जैसा कि इतिहास में हर बार हुआ है जब-जब जुल्मतों का दौर आया है विरोध के गीत और तीखे हुए हैं। उसी तरह किसान भी अपनी लड़ाई में डटे हुए हैं और उनके साथ डटी हुई हैं इस देश की तमाम प्रगतिशील तथा इंसाफपसंद ताकतें। प्रगतिशील महिला एकता केंद्र किसानों की इस लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ खड़ा है और इसे इसके सफल मुकाम तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है।

इंकलाब जिंदाबाद

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित

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