July 31, 2021

मुंशी प्रेमचंद्र की प्रासंगिकता

हिंदी साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारने वाली शख्सियत, मुंशी प्रेमचंद जी के जन्मदिवस पर क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं। मुंशी प्रेमचंद्र जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमहि ग्राम में हुआ था।कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने तत्कालीन इतिहास की रूढ़ीवादी परंपराओं का विरोध करते हुए, मध्यम वर्गीय मजदूरों की, किसानों की, महिलाओं की समस्याओं की यथार्थवादी परंपराओं की नींव राखी। उनकी कहानियां केवल कहानियां नहीं है, हमारे जीवन के अंधेरों को मिटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाली प्रेरणा हैं। मुंशी प्रेमचंद जी ने 20 वी सदी के पूर्वार्ध  से लगभग 3 दशक तक मानवीय जीवन में घटित होने वाली तमाम घटनाओं के केवल मानवीय पक्ष को ही नहीं रखा बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन के तमाम पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई। ऐसा लगता है कि मुंशी प्रेमचंद के अंतर्मन की आवाजें उनमें प्रदर्शित हो रही हैं। उनकी आत्मा बोल रही है।

प्रेमचंद्र हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुए है। प्रेमचंद जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न एक सफल कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार है। तत्कालीन सामंती समाज में यद्यपि तकनीकी सुविधाओं का नितांत अभाव था तथापि उनकी कृतियां बोलती हैं। उनकी कृतियों में अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग, शोषण, उत्पीड़न, अन्याय व मानव जीवन के हर पक्ष को उजागर करती है। उनकी कहानियां की सचेत और सजीव हैं। वे परंपरागत, रूढ़िवादी विचारों को झकझोर कर रख देती हैं। कुरीतियों और कुप्रथाओं का प्रेमचंद जी ने अपनी कृतियों में खंडन ही नहीं किया बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है। "साहित्य समाज का दर्पण होता है।" इस उक्ति को सही साबित किया है।

तत्कालीन सामंती समाज में किसानों की दुर्दशा महाजनी कर्ज जाल में डूबे, दबे-कुचले कृषक जीवन को सजीवता से उकेरा है। बंधुआ मजदूरों की मजबूरी का सजीव चित्रण किया है। मुंशी प्रेमचंद जी का साहित्य राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। "दुनिया का अनमोल रत्न" उनकी अनमोल रचना है। वह मानते हैं कि खून का आखिरी कतरा भी वतन की हिफाजत में गिरे, इससे बढ़कर गर्व की बात क्या हो सकती है। देश प्रेम की भावना से युक्त उनकी पांच कहानियों का संग्रह जो सबसे पहले प्रकाशित हुआ,  "सोजे वतन", देश का मातम जिसमें आजादी के दीवानों की शहादत का ओजपूर्ण, भावपूर्ण, देशभक्तिपूर्ण अपूर्व वर्णन है। उनकी देशभक्ति से ओतप्रोत इस प्रस्तुति व लोकप्रियता से  घबराकर तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी तमाम कृतियों को जप्त कर लिया था। देश प्रेम के मुंशी जी के जज्बे ने अंग्रेजी हुक्मरानों की नींद ही नहीं उड़ाई, नीव भी हिला दी थी। सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने लगभग 300 कहानियां, 15 उपन्यास व 3 नाटक लिखे।उन्होंने समाज की कुरीतियों व कुप्रथाओं के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। उनकी कहानी कफन, इसका जीता जागता उदाहरण है- मालिक!...क्या हुआ रे विश्वा! काहे रो रहा है। गरीबों का खून चूस-चूस कर धन इकट्ठा करने वाले पूंजीपतियों पर करारा व्यंग है। माधव के जरिए सेठ साहूकार पर व्यंग करते हुए, अरे! जीवित रहते जिसे पहन को कपड़ा नसीब नहीं हुआ उसे मरे बाद नए कफन की क्या जरूरत है

प्रेमचंद जीवन भर राजनीतिक आंदोलनों, गतिविधियों से जुड़े रहे। राजनीतिक पट कथाए उनके साहित्य में खूब देखने को मिलती हैं। "शतरंज के खिलाड़ी" कहानी के जरिए, गुलामी के दौरान भारतीयों में कम होती राजनीतिक चेतना के बारे में प्रेमचंद जी कहते हैं कि विलासिता के रंग में डूबे हुए राजाओं और छोटे-बड़े, अमीर-गरीब की दुर्दशा ने हीं अंग्रेजों को शासन सत्ता पर काबिज होने का मौका दिया।

जमीदारी पर महाजनी शोषण के खिलाफ प्रेमचंद की कहानी उनकी "पूस की एक रात" किसानों के कर्ज जाल में फंसे होने की मरमानतक कहानी है। जिसका आति सजीवता पूर्ण चित्रण प्रेमचंद जी ने किया है। वे किसान की बदहाल होती जिंदगी जीते कहानी के नायक हल्कू बेहद ठंडी, कड़कड़ाती रात में फटे कपड़े पहने अपनी फसल की सुरक्षा के लिए खेत में पहरा रहा था। उसका कुत्ता गबरु भी देखभाल करता था। परंतु रात्रि के तीसरे पहर में हल्कू को हल्की सी नींद आ जाने के कारण पूरे खेत की फसल को नीलगाय चट कर जाती है। सुबह उसकी पत्नी यह सब देख कर भयभीत हो जाती है और हल्कू से कहती है- अब मालिक का कर्ज और मालगुजारी कैसे चुकाएंगे? अब दूसरों के खेत में मजदूरी करनी होगी। आहा: अति अभावग्रस्तता में आदमी किस तरह टूट जाता है। मजदूरी करके कर्ज की भरपाई करना कितना दुष्कर कार्य है। गरीब किसान मजदूर बनने को मजबूर हो जाता है।

 " नमक का दरोगा" कहानी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवेश पर आधारित अधिकारी वर्ग के शोषण को दर्शाती है। जो धन के लालच में गलत आदमी का साथ देने से नहीं चूकते। प्रेमचंद जी यहां यह बताना चाहते हैं कि किस प्रकार धन के आगे न्याय हार जाता है। तत्कालीन न्याय व्यवस्था पर बेहद करारा व्यंग है। जो आज की न्याय व्यवस्था और सरकारी महकमे में हमें सर्वत्र दिखाई देती है। आज भी प्रेमचंद की कहानी कितनी सार्थक कितनी सही है।

दलित समस्या को उठाती एक कहानी ठाकुर का कुआं समाज में व्याप्त अछूतों की समस्या को इसके माध्यम से उठाया गया है और साथ में नारी समस्या को भी अपनी कहानियों में पटकथा बनाया है। दरअसल मुंशी प्रेमचंद जी समकालीन सामाजिक परिवेश को आवाज देते हुए अपनी कहानियों में समेटते चले हैं। उन्होंने समाज का जीवन की गहराईयों से अध्ययन किया है और अपनी कहानियो में उकेरा है।

गोदान 1936 में लिखा एक कालजई उपन्यास है। इसकी सार्थकता आज भी बरकरार है। इंकलाब का आगाज होने लगा था। रेलवे लाइन बिछने लगी थी। गांव और शहर जोड़े जा रहे थे। भूरी और धनिया की करुण कथा है। इस उपन्यास में प्रेमचंद जी ने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव इस प्रकार पिरोकर रखा है। एक तरफ किसानों का शोषण करने वाला महाजन और पटवारी का गठबंधन है तो दूसरी और शहरों में कंपनी मालिक और दलालों का गठजोड़ है जो मजदूरों के श्रम का दोहन कर रहा है।


गबन 1931 में लिखा एक विशेष चिंताकुल समस्या पूर्ण जीवन का चित्रण करता है। इसका विषय- टूटते जीवन मूल्यों के अंधेरों में भटकते मध्यम वर्गीय परिवार की वास्तविकता का भावपूर्ण, मार्मिक चित्रण है। जहां महिला का पति के जीवन पर विशेष प्रभाव है। इस उपन्यास में नारी समस्या को विशेष आयाम देते हुए तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ते हुए जनादोलन के प्रति विशेष आकर्षण को प्रदर्शित करता हुआ मध्यम वर्ग के बीच आज भी देखने को मिलता है।

प्रेमचंद्र जी का साहित्य समूचे हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा को नई दिशा प्रदान करने वाला है। सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत इस उपन्यास में नारी पराधीनता, दहेज प्रथा, वेश्यावृत्ति संबंधी समस्याओं को चित्राअंकित किया गया है। मध्यम वर्गीय परिवारों की आर्थिक और सामाजिक जीवन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है। आज हम देखते हैं कि वेश्यावृत्ति कॉल-गर्ल के रूप में आज भी बड़े पैमाने पर समाज में व्याप्त है। दहेज तो समाज में पूर्व के समान कितनी ही जिंदगियों को लील चुका है। नारी का एक बड़ा वर्ग आज भी पराधीनता का जीवन जीने को मजबूर हैं। तत्कालीन समाज की तमाम अच्छाइयों और बुराइयों का चित्रांकन है जो आज भी हर जगह दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचंद के उपन्यास में दिखाई देता है।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक भारत में फैली कुरीतियों, पाखंड, महाजनी व्यवस्था, गरीबी, बदहाली, क्रांतिकारी आंदोलन व राजनीतिक और आर्थिक जीवन के हर पहलू पर, हर समस्या पर अपनी लेखनी चलाई। भारतीय परंपराओं के सजग वाहक बन कर अपना दायित्व निभाया। उनका साहित्यिक जीवन की तमाम समस्याओं की गहराइयों का मानो उन्होंने स्वयं अनुभव किया। प्रेमचंद जी को याद करना उन चुनौतियों का अनुभव करना है जिनसे भारतीय समाज लंबे समय से जूझ रहा है और आज भी उन चुनौतियों का हल ढूंढ रहा है। दलितों की समस्या, नारी जीवन की तमाम समस्याएं, दहेज-प्रथा, विधवा-विवाह, बेमेल विवाह, मजदूर-किसान, रिश्वतखोरी, अन्याय, धार्मिक पाखंड, मानवीय मूल्यों का खत्म होना, ऐसे ही तमाम सारे प्रश्न हमारे जीवन में आज भी मुंह बाए खड़े हैं। यही सब कारण है कि प्रेमचंद जी की प्रासंगिकता आज भी पढ़ने वाले के विचारों को झकझोर कर रख देती है। उनकी सोच तत्कालीन समाज को लेकर जिस तरह से उन्होंने अपने साहित्य में उठाया है, मजबूती के साथ, दृढ़ता के साथ वे निश्चित तौर पर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जहां वर्ण, जाति, धर्म से ऊपर उठकर सबका सम्मान हो। वह समाज जहां सामाजिक बराबरी हो, स्त्री और पुरुष को समान शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता और अवसर प्राप्त हो सके। वे किसी भी प्रकार की छुआछूत के विरोधी थे जो आज भी समाज में व्याप्त है। जो आए दिन देखने को मिलती है- जैसे आजमगढ़ के गोधोरा में जिला पंचायत के चुनाव ने अन्याय को ना सहकर न्याय की मांग करने के बदले पुलिस में हैवानियत का नंगा नाच दलित महिलाओं के साथ खेला है। ऐसे ही हम देखते हैं आज किसान कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे लंबे समय से आंदोलनरत हैं। प्रेमचंद जी का कहना था किसान, दलित और महिलाएं देश के विकास के लिए धुरी  के समान है और बार-बार जगह-जगह इस बात को दोहराया है कि इन के विकास के बिना देश के विकास की कल्पना बेमानी है। प्रेमचंद जी ने समाज के हर शोषित-उत्पीड़ित जन की आवाज बुलंद की है। उनके पात्र आज भी समाज में जिंदा है। हमें अपने आसपास पास में दिख जाते हैं। एक तरफ वे शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के लिए आवाज उठाते हैं तो दूसरी ओर शोषित-उत्पीड़ित  वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। कहीं वह सोई मानवता को आवाज देकर गहरी नींद से जागृत करने का काम करते दृष्टिगोचर होते हैं। आमजन को नायक बनाकर सच्चे रूप में जनतंत्र को स्थापित करना चाहते हैं। मानवता के पथ प्रदर्शक हैं और जब तक यह पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी तब तक मुंशी प्रेम चंद्र जी के साहित्य की प्रासंगिकता बनी रहेगी। कालजई, कलम के जादूगर, उपन्यास सम्राट प्रासंगिक बने रहेंगे।

July 30, 2021

शहीद उधम सिंह को याद करने की जरूरत

देश की आजादी के लिए उधम सिंह जैसे हजारों-हजार क्रांतिकारियों ने शहादत दी थी। उनका ख्वाब था कि भारत में भूख, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण-उत्पिडन न हो। मजदूर-मेहनतकशों का राज हो। उधम सिंह का साफ मानना था कि भारत में कौमी एकता को खंडित करने वाले सांप्रदायिक, उपद्रवी, कट्टरपंथी तत्वों की साजिश का भंडाफोड़ किया जाना चाहिए। भारत के मजदूर, किसानों, उत्पिड़ित तबको, समुदाय का हित कौमी एकता को बनाए रखने में ही है। लेकिन उधम सिंह की शहादत को इतना लंबा समय बीत जाने और अंग्रेजो से आजादी भी मिलने के बाद भी देश की जनता परेशान है। 
शहीद उधम सिंह एक महान क्रांतिकारी और देश प्रेमी थे। जिनके दिल में सिर्फ और सिर्फ देश प्रेम की भावना और अंग्रेजों के प्रति क्रोध भरा हुआ था। शहीद उधम सिंह भारत की आजादी के लड़ने वाले हजारों-हजार लोगों में से एक थे। शहीद उधम सिंह की शहादत को एक लंबा समय बीत गया है। तब भी शहीद उधम सिंह की शहादत को याद करने की आज भी सख्त जरूरत है। 
        शहीद उधम सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। उनके बचपन का नाम शेर सिंह था। उनके पिता मजदूर परिवार से थे। उनके पिता का नाम सरदार तेहाल सिंह जम्मू व मां का नाम नरेन कौर था। 8 वर्ष की छोटी उम्र में ही पहले पिता और बाद में मां की मृत्यु हो गयी। माता-पिता की मृत्यु के बाद उधम सिंह और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह ने अमृतसर के खालसा अनाथालय में अपना जीवन यापन किया। जहां इनका नाम शेर सिंह से बदलकर उधम सिंह रखा गया। वहां इनको सिख धर्म की दीक्षा दी गई। 1917 में इनके भाई की भी मृत्यु हो गई। इन मुश्किलों ने उधम सिंह को दुखी तो बहुत किया लेकिन इसके साथ ही उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत को और बढ़ाया। अनाथालय में ही इन्होंने दस्तकारी और कला का प्रशिक्षण लिया। 1918 में उधम सिंह ने हाई स्कूल पास किया और 1919 में अनाथालय छोड़ दिया। उधम सिंह देश व पंजाब की राजनीतिक उथल-पुथल से रूबरू थे ही, अब राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हो गए।
1919 में ही रोलेट एक्ट के विरोध में पंजाब के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई। जिसमें लगभग 20 हजार लोग शामिल थे। शांतिपूर्ण चल रही सभा में माइकल ओडवायार ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। उस समय माइकल ओ डवायर पंजाब का गवर्नर था। माइकल ओ डवायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेगिनेल्ड डायर ने सैनिकों के साथ मिलकर सभा में उपस्थित लोगों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। जलियांवाला बाग की ऊंची-ऊंची दीवारें होने के कारण लोग वहां से निकल नहीं पाए। इससे जलियांवाला बाग कांड में लगभग  एक हजार लोगों की मौत हो गई और दो हजार लोग घायल हो गए। शहीद उधम सिंह जलियांवाला बाद में एकत्रित लोगों को अनाथालय की ओर से पानी पिलाने आए थे। वे इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे। जलियांवाला बाग कांड का नरसंहार उधम सिंह ने अपनी आंखों से देखा,  जिसने नौजवान उधम सिंह को पूरी तरह हिला कर रख दिया और यह उधम सिंह की जिंदगी का मोड़ बिंदु बन गया था। 
इसके बाद उधम सिंह सक्रिय राजनीति में कूद पड़े। उन्होंने ठान लिया कि भारत के निर्दोष लोगों की हत्या करने वाले और करवाने वाले को उसके किए की सजा जरूर देंगे। उधम सिंह ने अपने द्वारा किए गए संकल्प को पूरा करने के लिए अलग-अलग देशों की यात्राएं की और वहां अलग-अलग पेशों पर आधारित रोजगार कर अपना जीवन भी चलाया। पुलिस से अपनी पहचान छुपाने के लिए उन्होंने अपने कई नाम भी बदले। उधम सिंह, भगत सिंह के विचारों से बहुत प्रभावित थे। उधम सिंह, भगत सिंह की राह पर चलने लगे। उधम सिंह अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ साम्राज्यवाद व सांप्रदायिकता का भी पुरजोर विरोध करते थे। इसीलिए उधम सिंह ने अपना नाम बदलकर राम-मोहम्मद-सिंह-आजाद रख लिया था। इसके जरिए उन्होंने देश में कौमी एकता का संदेश दिया। 
 1924 में उधम सिंह गदर पार्टी में शामिल हो गए और फिर भगत सिंह, चंद्रशेखर के संगठन "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" में शामिल हो गये। इसके जरिए विदेशों में रह रहे भारतीय लोगों को क्रांति के लिए तैयार करने का काम करने लगे। 1927 में भगत सिंह के कहने पर वह भारत वापस लौट आए। उधम सिंह जब वापस लौटे तब उनके साथ 25 सहयोगी, रिवाल्वर व गोला बारूद था। जिसके कारण उनको गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 4 साल उन्होंने जेल में ही बिताए।
1931 में जेल से छूटने के बाद वह कश्मीर चले गए। जब तक उधम सिंह जेल से छूटे तब तक भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी। किसी तरह पुलिस से बचते-बचाते उधम सिंह 1934 में लंदन पहुंच गए। उधम सिंह ने 21 साल तक जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने की इच्छा को अपने दिल में संजो कर रखा। उधम सिंह की ब्रिगेडियर जनरल रेगिनेल्ड को मारने की इच्छा पूरी नहीं हो पायी क्योकि वह पहले ही बीमारी के कारण मर चुका था। 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन में "कास्टन हाल" में बैठक थी। इस बैठक में माइकल ओ डवायर एक वक्ता के तौर पर आने वाला था। इस बैठक में पहुंचने के लिए उधम सिंह ने एक गाड़ी व रिवाल्वर का इंतजाम किया। कहा जाता है कि उधम सिंह अपनी रिवाल्वर को एक मोटी किताब में छुपा कर ले गए थे। जैसे ही माइकल ओ डवायर सभा में आया उधम सिंह ने रिवाल्वर निकालकर गोली चला दी। माइकल ओ डवायर को दो गोली लगी और उसकी घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। उधम सिंह घटना को अंजाम देकर भागे नहीं बल्कि गिरफ्तारी दे दी। उनको इस बात का गर्व था कि उन्होंने अपने देशवासियों के लिए वह करके दिखाया जो देश के सभी लोग चाहते थे।
लंदन में ही उधम सिंह पर  मुकदमा चलाया गया। अदालत में उधम सिंह ने अपना राजनीतिक बयान दिया। 4 जून 1940 को अदालत ने उधम सिंह को माइकल ओ डवायर की मृत्यु का दोषी घोषित कर दिया। 31 जुलाई 1940 को लंदन में जेल में फांसी की सजा दे दी गयी। आजादी के बाद उधम सिंह के मृत शरीर के अवशेषों को उनकी पुण्यतिथि 31 जुलाई 1974 के दिन भारत को सौंप दिया गया।
देश की आजादी के बाद देश से गौरे अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपनी जगह काले अंग्रेजों को देश की सत्ता सौंप दी। आजादी के बाद से देश में दो वर्ग बने हुए हैं। एक तरफ  पैसे वाले लोग जिनके पास अथाह संपत्ति है और दूसरी ओर गरीब मेहनतकश लोग हैं। आज भारतीय शासक आम मेहनतकश जनता के साथ वैसा ही सलूक कर रहे हैं जैसा अंग्रेजी हुकुमत भारतीयों के साथ किया करती थी। 
अंग्रेजो ने भारत पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिए "फूट डालो राज करो" की नीति अपनाई। इसके कारण देश की जनता के बीच सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का काम किया। आज भी भारतीय शासक इस नीति के तहत देश की जनता में सांप्रदायिक उन्माद फैला कर किसी भी तरह अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहते हैं। तब भी उधम सिंह, भगत सिंह व देश की मेहनतकश जनता ने कौमी एकता के दम दम पर अंग्रेजों को मुंह तोड़ जवाब दिया था और आज भी देश की मेहनतकश जनता सांप्रदायिक उन्माद का अपने संघर्ष और एकता के दम पर भारतीय शासकों को जवाब दे रही है और आगे भी देगी। 
अंग्रेजी हुकूमत ने भी मेहनत का जनता का अथाह शोषण-उत्पीड़न किया और देश की संपत्ति अपने देश ले गए। अंग्रेजों के उस शोषण -उत्पीड़न व उस कार्यवाही का भारतीय जनता कोई विरोध न करें, एकजुट ना हो इसके लिए अंग्रेज कई प्रकार के काले कानून लेकर आये। इसी में रोलेट एक्ट जैसे कानून शामिल है। आज भारतीय शासक देश की मेहनतकश जनता का शोषण-उत्पीड़न कर रहे हैं, मेहनतकश जनता के विरोधी कानून पास कर रहे हैं, आज भी गरीब मेहनतकश जनता भूखी है, नौजवानों के पास रोजगार नहीं है, आज भी इलाज के अभाव में लोग दम तोड़ रहे हैं, देश गरीब बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पा रही हैं।
आज भारतीय समाज पूर्णत: पूंजीवादी समाज बन चुका है। आज भारतीय समाज की भुख, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, महिला हिंसा, शोषण-उत्पिडन सभी समस्याओं की जड़ पूंजीवादी व्यवस्था और उसको पालने-पोसने वाला एकाधिकार पूंजीपति वर्ग है। पूंजीवादी समाज का विकल्प समाजवादी समाज ही है। पूंजीपतियों के इस सड़े गले राज का विकल्प मजदूर मेहनतकशो का राज ही है। पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना ही भारतीय समस्याओं के समाधान का रास्ता है। 
 ऐसे में हमें देश के क्रांतिकारियों की शहादत को याद कर उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की जरूरत है। भारत के वीर क्रांतिकारियों की हिम्मत, जज्बे, लगन, कुर्बानी, लक्ष्य के प्रति समर्पण आदि से सीख लेने की जरूरत है। 
आज भारतीय समाज की परिस्थितियों में उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों की जरूरत और अधिक बढ़ जाती है।

July 6, 2021

फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु भारतीय राज्य द्वारा अपने नागरिक की हत्या है

 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी को उम्र के अंतिम पड़ाव व बीमारी की स्थिति में भीमा कोरेगांव प्रकरण में अन्य धाराओं के साथ-साथ यूएपीए के तहत फ़र्ज़ी मुकदमा दर्ज कर बीते साल अक्टूबर में जेल में डाल दिया गया था।

इस दौरान उनकी तबियत लगातार खराब रही। उनकी ज़मानत याचिका पर सुनवाई में अदालत ढिलाई दिखाती रही। एक 84 साल के बीमार बुज़ुर्ग से यह व्यवस्था इस कदर घबरा गयी कि इतनी खराब शारीरिक परिस्थिति के बावजूद उन्हें ज़मानत नहीं मिली।

अंतत: 5 जुलाई 2021 को उनकी मौत हो गयी। वास्तव में यह किसी बीमारी से होने वाली मौत नहीं, बल्कि फासीवादी सरकार द्वारा की गई परोक्ष हत्या है। इस हत्या के जिम्मेदार वो भी हैं जो पूंजीवादी न्यायिक संस्था की तख्त पर बैठकर 'न्याय' की बात करते हैं। समग्रता में यह भारतीय राज्य द्वारा अपने नागरिक की हत्या है।

फादर स्टेन स्वामी मानवतावादी दृष्टिकोण रखते थे। वह आदिवासियों के कल्याण के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे। फादर स्टेन 1975 से 1986 तक बेंगलुरु के इंडियन सोश्ल इंस्टीट्यूट के निदेशक रहे। बाद में झारखंड आकार वह आदिवासी समुदायों के बीच उनके उत्थान के लिए काम करते रहे। वह आदिवासी क्षेत्रों में पूंजीवादी तत्वों द्वारा किये जा रहे गैरकानूनी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाते रहे। झारखंड सरकार द्वारा आदिवासियों को झूठे मुकदमों में फंसाकर गिरफ्तार करने की मुहिम के खिलाफ भी फादर स्टेन लगातार प्रयास करते रहे, जिसकी वजह से वह झारखंड सरकार के आँखों की किरकिरी बन गये।

भीमा कोरेगांव हिंसा के मामले का फायदा उठाते हुए मोदी सरकार ने उसे षड्यंत्र के रूप में प्रचारित किया और बहुत से जनपक्षधर कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारियां की इसमें फादर स्टेन भी शामिल थे। अन्य गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की तरह फादर स्टेन का भी यही जुर्म था कि वह इस देश की हाशिए पर खड़ी शोषित उत्पीड़ित आबादी की आवाज बन उन पर हो रहे अत्याचारों की कहानी सुना रहे थे।

प्रगतिशींल महिला एकता केंद्र मानवीय सरोकारों से जुड़े फादर स्टेन स्वामी की भारतीय राज्य द्वारा की गई परोक्ष हत्या की निंदा करता है ।


प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी



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