December 22, 2016

अक्टूबर क्रांति के बाद महिलाओं के जीवन में परिवर्तन

(रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-V)

जैसा कि सभी जानते हैं कि 1917 की अक्टूबर क्रांति की विजय ने मजदूर वर्ग के राज्य की नींव रखी। इस क्रांति ने सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही महिलाओं के जीवन में भी एक बुनियादी एवं निर्णायक कायापलट की। जन सेवाओं, शिशु गृहों, किंडर गार्टनों, सामुदायिक भोजनालयों और लाॅण्ड्री आदि की शुरूआत सोवियत सत्ता के पहले साल में ही हो गयी थी। महिलाओं के घरेलू काम के बोझ को कम करने और उनको सामाजिक रूप से उपयुक्त काम देने की दिशा में ये कदम उठाये गये। 

    लेकिन अतीत द्वारा विरासत में मिले अंधकारमय और उत्पीड़क अवस्था पर विजय- यानी सदियों पुराने सांस्कृतिक पिछड़ेपन और उत्पीड़न के प्रभावों से उबारने का लक्ष्य अत्यन्त कठिनाइयों भरा था। 

    सोवियत सत्ता ने महिलाओं की सदियों पुरानी दासता को खत्म करने तथा महिला और पुरुष के बीच सम्पूर्ण तथा असली समानता कायम करने के काम को अपना लक्ष्य बनाया। ये सिद्धान्त उन सभी सोवियत कानूनों में रेखांकित होते थे जो महिलाओं की स्थिति और महिला श्रम की परिस्थिति को प्रभावित करते थे। 

    जारशाही रूस में महिलायें उन सभी राजनीतिक अधिकारों से आम तौर पर वंचित थीं जो उस काल की विशेषता थी तथा इसके साथ ही वे कमोवेश सभी नागरिक अधिकारों से वंचित थीं। उनकी स्थिति उनके पतियों और परिवार के सम्बन्ध में विशेष रूप से अपमानजनक थी। जारशाही कानून के तहत कोई महिला पूरी तरह से अपने पति की गुलाम थी। एक विवाहित महिला को बगैर बंदिश के कहीं आने-जाने का कोई अधिकार नहीं था। उसका पति हर वक्त जब अपना निवास बदलता था तो वह उसका अनुसरण करने को मजबूर थी। उसकी परिसम्पत्तियां उसके पति के पूर्ण कब्जे में होती थीं। वह अपने पति की आज्ञा लेकर ही काम पर जा सकती थी। अगर उसकी शादीशुदा जिंदगी खराब निकल जाये तो उसे अपने भाग्य के भरोसे रहना पड़ता था, क्योंकि उसके पास उसे सुधारने का कोई कानूनी तरीका नहीं था। अगर वह अपने पति को छोड़ देती थी, तो उसके पति को यह अधिकार था कि वह पुलिस की मदद से उसे खोज निकाले। तलाक की मंजूरी केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही मिलती थी और उसके बावजूद भी तलाक लेने की प्रक्रिया में उस औरत को अतिशय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था और अपमानजनक औपचारिकताओं से गुजरने तथा उसे न्यायाधीश तथा पुलिस द्वारा उसकी निजी जिंदगी के बारे में पूरी दखलंदाजी के बाद ही तलाक मिल पाता था। इसके अलावा, एक धनी महिला के अतिरिक्त तलाक लेना आम महिलाओं की पहुंच से बाहर था। 

    महिलाओं की इस गौण स्थिति का मतलब यह था कि बच्चों पर पिता का पहला अधिकार था। चर्च में की गयी शादी को ही कानूनी मान्यता प्राप्त थी। बगैर कानूनी शादी के बच्चे पैदा करने वाली महिला न तो बच्चे के पिता के खिलाफ कोई कदम उठा सकती थी और न ही उसे खोज सकती थी। इस तरह के ‘गैर कानूनी’ बच्चे के भरण-पोषण का पूरा भार उसी के ऊपर पड़ता था। 

    सत्ता में आने के शुरूवाती वर्षों में ही सोवियत सरकार ने शादी तथा परिवार के उन सभी कानूनों को ध्वस्त कर दिया जो औरतों की गुलामी पर आधारित थे। सोवियत सत्ता ने एक नयी कानूनी व्यवस्था का निर्माण किया जो विवाह और परिवार में महिलाओं को पूर्ण बराबरी देता था। सोवियत सत्ता ने इसके साथ परिवार को मजबूत तथा टिकाऊ व स्थायी वैवाहिक सम्बन्धों के सिरे को जोड़ दिया जो केवल पति-पत्नी के बराबरी के अधिकारों और आपसी सम्मान पर आधारित था। 

    सोवियत सत्ता ने पति को परिवार का मुखिया मानने की अवधारणा को समाप्त कर दिया। शादी के बाद किसी महिला को अपने पति का उपनाम लगाना जरूरी नहीं रह गया था। पति और पत्नी, दोनों को व्यवसाय या आजीविका का चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। विवाह के बाद अर्जित की गयी सम्पत्ति को संयुक्त माना जाता था और उसके बंटवारे को लेकर होने वाले किसी भी विवाद को कानूनन सुलझाया जाता था। किसी भी पक्ष के लिए उसके विवाह के पहले की जायदाद उसकी अपनी अलग सम्पत्ति के रूप में बरकरार रहती थी। इस प्रकार, सोवियत सत्ता ने विवाह के स्वार्थपूर्ण मकसद को समाप्त कर दिया था। दहेज के लिए किये जाने वाले विवाह को सोवियत संघ ने असम्भव बना दिया था। सोवियत कानून ने विवाह को नागरिक पंजीकरण के रूप में स्थापित कर दिया था। विवाह को दो पक्षों के बीच का निजी मामला बना दिया गया था। चाहे कोई विवाह धार्मिक रीति रिवाज से हुए हों या नहीं। 

    जारशाही के जमाने में प्रचलित रीति-रिवाजों के विपरीत सोवियत संघ में विवाह और तलाक दोनों पक्षों का आपसी मामला बना दिया गया था। सोवियत विवाह कानूनों का एक विशिष्ट लक्षण यह था कि तलाक के मामले में पति-पत्नी की निजी जिंदगी में कोई बाहरी दखलंदाजी नहीं होती थी। इसके बावजूद, हालांकि वैवाहिक जीवन बराबरी और स्वेच्छा के सिद्धान्त पर आधारित था तब भी सोवियत सत्ता ने कभी भी विवाह को तुच्छ भावना के रूप में नहीं लिया। सोवियत सत्ता का विश्वास था कि अल्पकालीन सम्बन्ध विवाह के बुनियादी लक्ष्य- यानी एक स्वस्थ परिवार का निर्माण- के रास्ते में विकृति पैदा करता है। 

    मां के रूप में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून विशेष महत्व के थे। जब बात बच्चों के लालन-पालन और शिक्षा की आती थी, तो सोवियत कानून दोनों अभिभावकों (माता-पिता) को समान अधिकार देता था और उन पर बराबर जिम्मेदारी डालता था। यदि पिता परिवार को त्याग देता था तो ऐसे में राज्य उस पर बच्चों की यथोचित उम्र होने तक उनके भरण-पोषण में योगदान करने को बाध्य करता था। यही करार तब भी लागू होता था जब बच्चे पंजीकृत विवाह से नहीं पैदा होते थे। न्यायाधीश पिता की कमाई के अनुपात में भुगतान हेतु एक नियत राशि तय कर देता था। उस समय के कानून के तहत पिता को बच्चों के निर्वाह के लिए उसकी कमाई का 50 प्रतिशत तक देना पड़ सकता था। एक पिता के लिए बच्चों के पालन-पोषण का पूरा भार मां पर डालना या फिर उसे केवल राज्य के भरोसे छोड़ देना सोवियत राज्य के अंदर एक कानूनी जुर्म माना जाता था। 

    बच्चों अथवा गर्भवती पत्नियों को त्यागने वाले पुरुषों के खिलाफ लगे सार्वजनिक अभियोेग के तहत मां की सुरक्षा के लिए काफी मदद दी जाती थी। सार्वजनिक मत और इससे भी बढ़कर प्रेस आदि के जरिये सार्वजनिक नैतिकता के कानून का उल्लंघन करने के लिए दोषियों पर सार्वजनिक निंदा अभियान के जरिए एक मुहिम चलायी जाती थी। सोवियत विवाह कानून के तहत यदि विवाह के खात्मे के बाद पूर्व पति या पत्नी, दोनों में से कोई काम करने में असमर्थ हो जाता था तो दुर्बल पक्ष का यह हक बनता था कि वह सामर्थ्यवान पक्ष से मदद प्राप्त करे। 

    व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों में स्त्री-पुरुष की पूर्ण बराबरी के साथ ही सोवियत संघ में पुरुषों और महिलाओं के लिए सभी राजनीतिक आयामों में भी पूर्ण बराबरी का प्रावधान था। सोवियत संविधान के अनुसार, सत्ता के सर्वोच्च पदों पर चुनने या चुने जाने का अधिकार 18 वर्ष से ऊपर के सभी स्त्री-पुरुषों को प्राप्त था। 

    लेकिन राजनीतिक और नागरिक अधिकारों में पुरुषों और महिलाओं, दोनों की बराबरी अपने आप में अपर्याप्त थी। महिलाओं को भी अपने अधिकारों का पूरा प्रयोग करने के अवसर, रोजमर्रा की जिंदगी में व्यावहारिक अभिव्यक्ति के तथा वास्तविकता में पुरुषों के समान जमीन पर खड़े होने के अवसर सोवियत राज्य देता था। सोवियत सत्ता यह जानती थी कि महिलाओं की सदियों पुरानी सांस्कृतिक और सामाजिक गैर बराबरी तथा अपने पतियों पर बनी भौतिक निर्भरता से मुक्ति ही उन्हें पुरुषों के साथ बराबरी पर खड़ा कर सकती थी। इसके लिए सोवियत सत्ता ने व्यापक महिलाओं को उद्योगों और अन्य सार्वजनिक गतिविधियों में प्रमुखता से नियोजित करने की योजना को लागू किया था। 

    सोवियत संघ में महिलाओं के उद्योग जगत में व्यापक प्रवेश की परिस्थितियां तैयार की गयी थीं। महिलाओं की योग्यता को आगे बढ़ाने के लिए सोवियत सत्ता द्वारा प्रयास किये गये। ट्रेनिंग स्कूलों व सार्वजनिक जीवन में पुरुषों के साथ बराबरी की शर्तों के आधार पर महिलाओं की भूमिका को बढ़ाया गया था। महिलाओं को अनुत्पादक घरेलू कार्यों के बोझ से मुक्त किया गया था। इससे उद्योग तथा सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के सामूहिक प्रवेश को संभव बनाने में मदद मिली थी। 

    सोवियत संघ में महिला मजदूरों के बीच मातृत्व की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मां और बच्चे, दोनों की सेहत ठीक रखने वाली काम की परिस्थितियां निर्मित की जाती थीं। कुछ कामों में जहां स्वास्थ्य के लिए खतरा हो वहां महिलाओं को काम पर नहीं लगाया जाता था। 

    सोवियत कानून महिला मजदूरों को गर्भावस्था तथा शिशुपालन के लिए छः माह की अनिवार्य छुट्टी देता था। यह कानून उन सभी महिलाओं पर लागू होता था जो उद्योग, कृषि, परिवहन, व्यवसायिक कार्यालयों, सहकारी संगठनों, घरेलू कामों आदि में वेतन प्राप्त करती थीं। 

    1935 में सामूहिक फार्मों में कार्यरत सभी महिलाओं को गर्भावस्था तथा शिशुपालन के लिए अनिवार्य छुट्टी दी जाती थी। सोवियत श्रम कानूनों की आचार संहिता के अनुसार, माताओं को सामान्य भोजन-अवकाश के अतिरिक्त अपने शिशु को दूध पिलाने के लिए सम्पूरक अवकाश की व्यवस्था थी। (कम से कम हर साढ़े तीन घंटे में एक बार जो कि कम से कम आधे घंटे का होता था) गर्भावस्था और शिशु धारणा के दौरान वेतनों का अनिवार्य भुगतान, मातृत्व सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। चूंकि गर्भावस्था और शिशुपालन के दौरान कामगार को अन्य अवस्था से 9गुना अधिक आराम की जरूरत होती है। अतः सोवियत संघ में सामाजिक बीमाकरण इस बात को सुनिश्चित करता था कि गर्भावस्था और शिशुपालन के दौरान उन सामान्य श्रेणियों की महिला श्रमिकों को जो समान पोस्ट पर एक साल या उससे ज्यादा समय तक काम करती आयी हैं, पूरा वेतन दिया जाये। 

    सोवियत राज्य में मां और बच्चे की देखभाल केवल कानून द्वारा ही लागू नहीं की गयी थी। राज्य ने संस्थाओं की एक पूरी ऐसी व्यवस्था की थी जो नवजात शिशुओं के कल्याण तथा छोटे बच्चों की सामाजिक शिक्षा के लिए काम करती थी। इनमें शिशुगृह, किंडरगार्टन (तीन से पांच वर्ष तक के बच्चों के स्कूल), खेल के मैदान आदि शामिल थे, जो एक बढ़ रहे बच्चे के स्कूल तक पहुंचने तक उनकी देखरेख करते थे। 

    इसके अतिरिक्त, जून 1936 में सोवियत सरकार ने मातृत्व की सुरक्षा के लिए एक नया कानून जारी किया था जिसमें महिलाओं के अधिकार और परिवार व विवाह के सवालों से जुड़े सोवियत कानूनों के मूलभूत सिद्धान्तों को और अधिक विस्तारित किया गया था। यह कानून माताओं को राजकीय मदद में यथोचित बढ़ोत्तरी करने का प्रावधान करता था। इस कानून के तहत परिवार त्यागने वाले पिता के लिए अपने बच्चों का खर्च न देने की हालत में दो साल की सजा का प्रावधान था। 

    लेकिन महिलाओं को मिले ये अधिकार एक साथ नहीं मिले थे। इन अधिकारों को हासिल करने और उन्हें व्यवहार में लागू करने के लिए कई चरणों से गुजरना पड़ा था। प्रथम विश्व युद्ध की भीषण तबाही से गुजरे देश में अक्टूबर क्रांति के बाद, युद्ध कम्युनिज्म, 1918-21 के दौरान महिला मजदूरों समेत सभी औद्योगिक मजदूरों की संख्या में भारी गिरावट आयी थी। यह वह समय था जब सब कुछ गृहयुद्ध की भेंट चढ़ रहा था। सर्वहारा के झुण्ड मोर्चे में तैनात लाल सेना में केन्द्रित थे। कच्चे माल तथा ईंधन के अभाव में कई औद्योगिक इकाइयां बंद पड़ी थीं और सबसे महत्वपूर्ण बात औद्योगिक जिले प्रतिक्रांतिकारियों के कब्जे में थे। 

    1921 की नयी आर्थिक नीति के बाद आर्थिक जीवन में आम पुनरुत्थान की शुरूवात हुई थी। इसके बाद साल दर साल महिला मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ती गयी थी। इतनी तबाही के बाद महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन क्रमशः बेहतरी की ओर बढ़ता गया था। 

    महिलाओं के अधिकारों तथा महिला मजदूरों की सुरक्षा के बारे में सोवियत संविधान में इसी तरह के अन्य अनेक प्रावधान किये गये थे। इनके तहत, महिलाओं के लिए पूरी नागरिक व राजनीतिक बराबरी, परिवार की चौमुखी मजबूती तथा उसमें महिलाओं की बढ़ती समान हैसियत, महिलाओं के स्वास्थ्य को हानि न पहुंचाने वाली सभी नौकरियों तथा पेशों में अबाधित प्रवेश, सभी प्रकार की शिक्षा तक मुफ्त पहुंच, महिलाओं के स्वास्थ्य, उनकी मातृत्व की अवस्थाओं, उनके बच्चों की सतर्क सुरक्षा। इस तरीके से महिलाओं के काम के क्षेत्र में सोवियत राज्य सत्ता ने एक मजबूत आधारशिला रखी थी। 

    इसी तरीके से पुरुष और नारी के बीच पूर्ण वास्तविक समानता और महिलाओं की वास्तविक मुक्ति की दिशा में सोवियत राज्य सत्ता ने अपने कदम बढ़ाये थे। 
साभारः अक्टूबर क्रांति के बाद महिलाओं के जीवन में परिवर्तन

महान अक्टूबर क्रान्ति के दिनों की वीरांगनाएं

रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-IV
 महान अक्टूबर क्रान्ति में हिस्सा लेने वाली महिलाएं कौन थीं? क्या वे अलग-थलग व्यक्ति थीं? नहीं, वे बहुतायत में थीं, वे दसियों हजार या लाखों में अनाम वीरांगनाएं थीं, जो लाल झंडे के पीछे और सोवियतों के नारों के साथ मजदूरों और किसानों से कदम मिलाते हुए आगे बढ़ीं और जारशाही, धर्म तंत्र के खंडहरों को नष्ट करते हुए नए भविष्य की ओर आगे बढीं।

    
यदि कोई पीछे की ओर मुड़ कर देखे तो इन अनाम वीरांगनाओं की व्यापक आबादी को देख सकता है। ये वे वीरांगनाएं थीं जो अक्टूबर में भुखमरी से ग्रस्त शहर में रहने वाली थीं, जो युद्ध द्वारा जर्जर दरिद्रीकृत गांवों में रहती थीं। उनके सर में एक रूमाल (यद्यपि कम लोगों के पास था तथापि लाल रूमाल), चिथड़ी हुई स्कर्ट, चकत्ते लगे जाड़े के जैकेट रहते थे। इन में नौजवान और बुजुर्ग मजदूर महिलाएं, सैनिकों की पत्नियां व किसान महिलाएं और शहर के गरीबों से गृहणियां होती थीं। कम संख्या में, उन दिनों बहुत ही कम संख्या में दफ्तरों में काम करने वाली मजदूर महिलाएं और विभिन्न पेशों की शिक्षित और सुसंस्कृत महिलाएं भी होती थीं। इसके साथ ही बुद्धिजीवी वर्ग से भी महिलाएं थीं जो लाल झंडे को हाथ में लेकर अक्टूबर में विजय की ओर आगे बढ़ीं। इनमें अध्यापक, कार्यालय के कर्मचारी, हाई स्कूल और विश्व विद्यालयों की छात्राएं एवं महिला डाक्टर थीं। वे खुशी-खुशी निस्वार्थ भाव से और स्वौद्देश्य आगे बढीं। उन्हें जहां भी भेजा  गया वे वहां गयीं, मोर्चों में उन्होंने सैनिक की टोपी लगाईं और लाल सेना की सैनिक हो गईं।

    यदि वे केरेंस्की के विरुद्ध गैतचीना में लाल मोर्चे की मदद करने के लिए गईं तो उन्होंने आनन-फानन में अपने हाथों में प्राथमिक चिकित्सा की लाल पट्टी बांध ली। उन्होंने सेना के संचार तंत्र में काम किया। वे खुशी-खुशी काम करती थीं और इस विश्वास से ओत-प्रोत थीं कि कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण हो रहा है और कि वे क्रान्ति के समूचे काम में पुर्जे मात्र हैं।

    गांवों में किसान महिलाओं ने (उनके पतियों को मोर्चे पर भेज दिया गया था) भू-स्वामियों के हाथ से जमीन छीनी और सैकड़ों वर्षों से अपनी जड़ें जमाये अभिजात तबकों को उनके घोसलों से निकाल कर खदेड़ दिया।

    जब कोई अक्टूबर की घटनाओं को याद करता है तो उसे अलग-अलग व्यक्तियों के चेहरे नहीं बल्कि व्यापक जन-समुदाय दिखाई देता है। असंख्य जन-समुदाय, मानवता की लहरों के समान जन-समुदाय दिखाई देते हैं, उन्हें कोई कहीं भी देख सकता है। वे सभाओं में, समूहों में, प्रदर्शनों में देखे जा सकते हैं। वे लोग तब यह निश्चित तौर पर नहीं जानते थे कि असल में वे क्या चाहते थे, कि वे किस चीज के लिए लड़ रहे थे, लेकिन वे एक चीज जानते थे कि अब युद्ध किसी भी हालत में जारी नहीं रहना चाहिए। और न ही वे भू-स्वामियों और सम्पत्तिवानों को चाहते थे। 1917 के साल से मानवता का विशाल महासागर हिलोरें ले रहा था। और इस महासागर का एक बड़ा हिस्सा महिलाओं का था।

    जब कभी इतिहासकार क्रान्ति की इन अनाम वीरांगनाओं के कार्यों के बारे में लिखेंगे जो मोर्चे पर मारी गईं, जिन्हें श्वेत गार्डों ने गोलियों से छलनी कर दिया और जिन्होंने क्रांति के कुछ सालों के दौरान बेहद अभाव झेला तो वे यह भी लिखना नहीं भूलेंगे कि उन्होंने सोवियत सत्ता और कम्युनिज्म के लाल पताके को ऊंचा उठाए रखा।

    महान अक्टूबर क्रांति के दौरान ये वे महान अनाम वीरांगनाएं थीं जिन्होंने मेहनतकश आवाम के नए जीवन के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए थे। नया सोवियत गणतंत्र इनको इस बात के लिए सलाम करता है कि ये समाजवाद के आधार का निर्माण करने की दिशा में खुशमिजाज और उत्साही नौजवान लोगों द्वारा किया गया प्राणोत्सर्ग है। 

    तब भी महिलाओं के इस समुद्र में से जिनके सर पर फटे रूमाल और चिथड़ी टोपियां थीं, अवश्यम्भावी तौर पर कुछ ऐसे चेहरे उभर कर आएंगे जिन पर किसी विशेष इतिहासकार का उस समय ध्यान जाएगा जो आज से कई साल बाद महान अक्टूबर क्रान्ति और उसके नेता लेनिन के बारे में लिखेगा।

    इनमें से पहली तस्वीर लेनिन की विश्वसनीय सहयोगी नदेज्दा कौस्तांतिनोव्ना क्रूप्सकाया की उभर कर सामने आती है। वह सादी धूसर पोशाक पहने हमेशा अपने को पृष्ठभूमि में रखने की कोशिश करती थीं। वह किसी भी सभा में ध्यान में आए बगैर किसी खम्भे के पीछे खड़ी हो जाती थीं, लेकिन वह प्रत्येक चीज को देखती और सुनती थीं, जो कुछ भी हो रहा होता था, सभी पर निगाह रखती थीं, जिससे कि वह ब्लादमीर इल्यीच को पूरा ब्यौरा पेश कर सकें। इसके साथ ही वह अपनी खुद की टिप्पणियां जोड़ देती थीं और उनमें समझदारी भरी, उपयुक्त व उपयोगी विचार का प्रकाश डाल देती थीं।

    उन दिनों जो अनेकानेक तूफानी मीटिंगें होती थीं जिनमें लोग इस बड़े प्रश्न पर बहस किया करते थेः सोवियत सत्ता विजयी होगी या नहीं? उनमें नदेज्दा कोंस्तांतिनोव्ना नहीं बोलती थीं। लेकिन वह ब्लादीमिर इल्यीच के दाहिने हाथ के बतौर बिना थके काम करती रहती थीं। वह पार्टी मीटिंगों में कभी कभार संक्षिप्त परन्तु महत्वपूर्ण टिप्पणी कर देती थीं। सबसे भयंकर कठिनाई और खतरे के क्षणों में जब ज्यादा मजबूत साथी अपना हौंसला खो देते थे और संदेह का शिकार हो जाते थे, उस समय नदेज्दा कोंस्तांतिनोव्ना हमेशा की तरह बनी रहती थीं। वह ध्येय की सच्चाई और उसकी निश्चित विजय पर पूर्ण दृढ़ निश्चय के साथ यकीन करती थीं। वह अडिग विश्वास से ओतप्रोत रहती थीं और भावना की यह दृढ़ता दुर्लभ विनम्रता के पीछे छिपी रहती थी। अक्टूबर क्रांति के महान नेता के इस सहयोगी के साथ जो भी संपर्क में आता था उस पर हमेशा खुशगवार प्रभाव छोड़ती थीं।

    दूसरी तस्वीर जो उभरती है- और वह भी ब्लादीमिर इल्यीच की एक अन्य विश्वसनीय सहयोगी की, भूमिगत काम के कठिन वर्षों के दौरान एक सहयोद्धा की, पार्टी की केंद्रीय कमेटी के सचिव येलेना द्विमित्रियेव्ना स्तासोवा की है। उनकी साफ, ऊंची भौंहें थी। उनमें दुर्लभ सटीकता थी और काम करने की अद्भुत क्षमता थी। किसी काम के लिए सही व्यक्ति को ढूंढ निकालने की उनमें दुर्लभ योग्यता थी। उनकी लंबी, मूर्तीनुमा तस्वीर को सर्वप्रथम ताव्रिचोस्की महल में सोवियतों में उसके बाद क्शेसिंस्काया के मकान पर और अंत में स्मोल्नी में देखा जा सकता था। वह अपने हाथों में एक नोटबुक लिए रहती थीं और वह मोर्चे से आए कामरेडों से, मजदूरों, लाल गार्डों, महिला मजदूरों, पार्टी और सोवियतों के सदस्यों से घिरी रहती थीं, जो तुरंत, स्पष्ट जवाब या आदेश चाहते थे।

    स्तासोवा अनेक महत्वपूर्ण मसलों की जिम्मेदारी उठाए रहती थीं, लेकिन उन तूफानी दिनों में यदि कोई कामरेड किसी जरूरत या परेशानी में होता था, तो वह हमेशा मदद के लिए प्रस्तुत रहती थीं। वह उसकी मदद के लिए जो कुछ भी कर सकती थीं, करती थीं। ऊपर से वह कठोर जवाब देते दिखाई पड़ती थीं। वह हमेशा काम में तल्लीन रहती थीं और हमेशा अपनी जगह पर तैनात रहती थीं। तब भी वह कभी भी अपने को अगली कतार में, नाम के प्रदर्शन में नहीं रखती थीं। वह लोगों के आकर्षण के केंद्र में रहना पसंद नहीं करती थीं। उनका सरोकार अपने लिए नहीं बल्कि ध्येय के लिए था।

    कम्युनिज्म के नेक और उदात्त ध्येय के लिए, जिसके लिए येलेना स्तासोवा ने देश-निकाला और जारशाही जेलों में यंत्रणा झेली थी, जिससे उनका स्वास्थ्य जर्जर हो चुका था। उस ध्येय के लिए वह फौलाद की तरह कठोर थीं। लेकिन अपने कामरेडों की परेशानियों के लिए उनमें संवेदनशीलता और हर संभव मदद करने का गुण कूट-कूट कर भरा था जो सिर्फ एक सहृदय और गर्म दिल रखने वाली महिला में ही पाया जा सकता है।

    क्लाव्दिया निकोलायेवा एक साधारण परिवार से आई कामकाजी महिला थीं। वह प्रतिक्रिया के वर्षों में 1908 में बोल्शेविकों की कतार में शामिल हुई थीं और निर्वासन तथा जेलों की यातना झेली थी। 1917 में वह लेनिनग्राद (पेत्रोगाद) वापस आईं और महिला मजदूरों की पहली पत्रिका कोम्युनिस्तका का हृदय हो गईं। वह उस समय भी जवान थीं। आग और अधैर्य से भरी हुई थीं। वह पताके को दृढ़ता से उठाए रखतीं और बहादुरी से घोषणा करतीं कि महिला मजदूरों, सैनिकों की पत्नियों और किसान महिलाओं को पार्टी में लाना होगा। उन्हें सोवियतों और कम्युनिज्म की रक्षा के लिए काम के लिए लाना होगा।

    वह जब मीटिंगों में बोलती, वह तब भी बेचैन और खुद अपने बारे में अनिश्चित रहती थीं, इसके बावजूद वह दूसरों को अनुसरण करने के लिए आकर्षित करती थीं। वह उनमें से एक थीं जो दो मोर्चों पर- सोवियतों और कम्युनिज्म के लिए और इसके साथ ही नारी मुक्ति के लिए- क्रांति में महिलाओं की व्यापक, जनभागीदारी का रास्ता तैयार करने में मौजूद सभी कठिनाइयों को अपने कंधों पर उठाती थीं। क्लाव्दिया निकोलायेवा और कोंकर्दिया समोइलोवा के नाम ऐसे थे जो मजदूर महिला आंदोलन के साथ विशेष तौर पर लेनिनग्राद (पेत्रोगाद) के मजदूर महिला आंदोलन के शुरुआती और कठिन कदमों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। कोंकोर्दिया समोइलोवा 1921 में क्रांतिकारी काम करते हुए हैजे से मर गई थीं। वे अतुलनीय निस्वार्थ भाव से काम करने वाली पार्टी कार्यकर्ता थीं। वह बेहतरीन कामकाजी वक्ता थीं जो कामकाजी महिलाओं के दिलों को जीतना जानती थीं। जिन लोगों ने कोंकोर्दिया समोइलोवा के साथ काम किया है, वह उन्हें लंबे समय तक याद रखेंगे। वह तौर-तरीकों में सहज थीं, सामान्य पोशाक पहनती थीं, निर्णयों को लागू करने में दृढ़ थीं, वह अपने और दूसरों दोनों के साथ कड़ाई बरतती थीं। 

    विशेष तौर पर ध्यान देने लायक इनेस्सा आरमांड की सुंदर और आकर्षक तस्वीर उभर कर सामने आती है, जिनके ऊपर अक्टूबर क्रांति की तैयारी संबंधी अति महत्वपूर्ण पार्टी के कामों की जिम्मेदारी थी और जिन्होंने बाद में महिलाओं के बीच काम करने के बारे में अनेक सृजनात्मक विचारों से योगदान दिया था। अपनी तमाम नारी सुलभता और तौर-तरीकों में कोमलता के साथ इनेस्सा आरमांड अपने विश्वासों में अडिग रहती थीं और जिस बात को वह सही समझती थीं उसको सही सिद्ध करने में असमर्थ थीं। वह इसके असंदिग्ध विरोधियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहती थीं। क्रांति के बाद, इनेस्सा आरमांड ने कामकाजी महिलाओं के व्यापक आंदोलन को संगठित करने में अपने को लगा दिया था और प्रतिनिधि सम्मलेन उनके दिमाग की उपज थी। 

    मास्को में अक्टूबर क्रांति के कठिन और निर्णायक दिनों के दौरान वार्वरा निकोलायेव्ना याकोव्लेवा ने बहुत सारा काम किया था। खाइयों के युद्ध क्षेत्र में उन्होंने पार्टी के सदर मुकाम के नेता सरीखी दृढ़ता का परिचय दिया था। उस समय के कई कामरेडों ने उनकी दृढ़ता और अडिग साहस को देखकर कहा था कि इससे कई ढुलमुल लोगों के अंदर उन्होंने विश्वास का संचार किया था और जो लोग मन से हार मान चुके थे उनके अंदर प्रेरणा प्रदान की थी। साथियों, ‘‘विजय की ओर आगे बढ़ो’’।

    जब भी कोई महान अक्टूबर क्रांति में भाग लेने वाली महिलाओं को याद करता है तो यादों के जादूघर से अधिकाधिक नाम और चेहरे उभर कर आते-जाते हैं। क्या हम वेरा स्लुव्स्काया को याद करने की भूल कर सकते हैं जिन्होंने क्रांति की तैयारी करने में निस्वार्थ भाव से काम किया था और जिन्हें पेत्रोगाद के नजदीक प्रथम लाल मोर्चे पर कज्जाकों द्वारा गोलियों से भून दिया गया था?

    क्या हम येव्गेनिया बोश को भूल सकते हैं जिनका गर्म मिजाज था और जो हमेशा लड़ाई के लिए उत्सुक रहती थीं? वह भी अपनी क्रांतिकारी तैनाती के दौरान मारी गई थीं।

    क्या हम वी.आई.लेनिन के जीवन और गतिविधियों से घनिष्ठता से जुड़ी उनकी दो बहनों और सह योद्धाओं- अन्ना इल्यिच्ना येलिजारोवा और मारिया इल्यिच्ना उल्योनोवा- के नामों का जिक्र करना भूल सकते हैं?

    और कामरेड वार्या जो मास्को की रेल कार्यशाला से थीं। हमेशा जीवंत, हमेशा जल्दी में? और फ्योदोरोवा, लेनिनग्राद( पेत्रोगाद) की टेक्सटाइल मजदूर, अपने खुशनुमा, मुस्कुराते चेहरे के साथ और जब खाइयों पर लड़ने की बात हो तो उनकी निर्भीकता को क्या हम भूल सकते हैं?

    उन सभी को सूचीबद्ध करना असम्भव है और कितनी सारी अनाम रह जाती हैं। अक्टूबर क्रांति की वीरांगनाएं एक समूची सेना थीं और यद्यपि उनके नाम यदि भूल भी जाएं, तथापि उनकी निस्वार्थ भावना जीवित रहेगी। यह उस क्रांति की विजय के लिए थी जिसके सारे फायदे और उपलब्धियां आज सोवियत संघ की मजदूर महिलाएं हासिल कर रही हैं।

    यह स्पष्ट और अखंडनीय तथ्य है कि महिलाओं की भागीदारी के बगैर, अक्टूबर क्रांति लाल झण्डे की विजय तक नहीं जा सकती थी। अक्टूबर क्रांति के दौरान लाल फरहरे के नीचे आगे बढ़ने वाली महिला मजदूरों को शानदार सलाम! अक्टूबर क्रांति को शानदार सलाम जिसने महिलाओं को मुक्त किया!

(अलेक्सांद्रा कोल्लोन्ताई के लेख ‘‘महान अक्टूबर क्रांति के दिनों की महिला वीरांगनाएं’’, 1927 का हिंदी भावानुवाद)

फरवरी क्रांति में महिलाओं की शानदार भूमिका

 (रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-III)
इस लेख श्रृंखला के पहले हिस्से में बताया जा चुका है कि 23 फरवरी 1917 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन महिलाओं के व्यापक प्रदर्शन से जारशाही को समाप्त करने का आंदोलन उग्र हो गया था। वैसे 1914 से ही बोल्शेविक पार्टी महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों को संगठित करने के काम में लगी हुई थी। फरवरी क्रांति की शुरूआत में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों की जन सभायें कर रही थीं, काम के स्थान पर हड़तालें और जन प्रदर्शन आयोजित कर रही थीं, लोगों को हथियारबन्द करने के लिए हथियार के साथ-साथ राजनीतिक बन्दियों की रिहाई करा रही थीं तथा फर्स्ट एड इकाईयां गठित कर रही थीं।

    कुछ इतिहासकारों का यह कहना सही नहीं है कि 23 फरवरी के दिन सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने की शुरूआत करने वाली वे महिलायें थीं जो रोटी और ईंधन के लिए लम्बी कतारों में खड़ी रहती थीं। वस्तुतः सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए पेत्रोग्राद के व्याबोर्ग जिले की टेक्सटाइल महिला मजदूर सबसे पहले निकली थीं। वे कई संयंत्रों में काम करने वाली मजदूर थीं। उन्होंने सामूहिक तौर पर अपने औजार डाल दिये और मिलों को छोड़कर वे तेजी के साथ बड़े झुंडों में एक फैक्टरी से दूसरी फैक्टरी की ओर निकल पड़ीं। उन्होंने अपने सहयोगियों की तलाश टेक्सटाइल क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखी। उन्होंने अन्य उद्योगों, जिसमें उल्लेखनीय धातु उद्योग के मजदूर थे, के मजदूरों से सिर्फ नैतिक समर्थन देने की ही नहीं बल्कि सक्रिय हिस्सेदारी की मांग की। प्रत्येक पड़ाव पर महिलायें जोर देकर कहती थीं कि काम को बंद करने का समय आ गया है और यह समय मालिकों और सरकार को यह दिखा देने का है कि अंततः मजदूर अपना हक हासिल करने के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। महिलाओं ने फैक्टरियों की खिड़कियों और दरवाजोें पर पत्थर, बर्फ के गोले और डण्डे फेंके और इमारतों में घुस गयीं। वे समझाने- बुझाने के तरीकों का इस्तेमाल करके व्यापक मजदूरों को साथ लेती गयीं। प्रदर्शन में शामिल होने में हिचकिचाहट दिखाने वाले कुशल मजदूरों में से थे। 

    जैसे-जैसे पुरुष मजदूर शामिल होते गये, आंदोलन जोर पकड़ता गया। पुतिलोव फैक्टरी के मालिक ने तालाबंदी कर रखी थी। उसके हजारों मजदूर पहले से ही गुस्से में थे और बेचैन थे। 23 फरवरी को पेत्रोग्राद के कुल मजदूरों में 20 प्रतिशत हड़ताल में थे। लेकिन टेक्सटाइल मजदूर 30 प्रतिशत हड़ताल में थे। 25 फरवरी तक पेत्रोग्राद के कुल मजदूरों का 52 प्रतिशत हड़ताल पर चला गया। लेकिन टेक्सटाइल मजदूरों के 71 प्रतिशत हड़ताल पर थे। इस तरह यह देखा जा सकता है कि अन्य मजदूरों की तुलना में टेक्सटाइल मजदूर ज्यादा रफ्तार से हड़ताल में शामिल हो रहे थे। रोटी की मांग फरवरी क्रांति के साथ इतनी गहराई से जुड़ी हुई थी कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पहले हड़ताली टेक्सटाइल मजदूरों के मुंहों से इसकी चर्चा की गयी थी। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के विरोध प्रदर्शन के दिन उन्होंने मांग की कि उनके आदमियों को मोर्चों से वापस बुलाया जाए। महिला प्रदर्शनकारियों को पुलिस और सैनिकों का उस समय सामना करना पड़ा जब वे उन्हें अपने जिले से बाहर जाने से रोकने लगे। पुलिस और सैनिकों के साथ झड़पों में कुछ मार दी गयीं। प्रदर्शनकारियों को यह लगने लगा कि उन्हें सिपाहियों को अपने पक्ष में करना होगा। 

    इसके बाद प्रदर्शनकारी महिलाओं ने पेत्रोग्राद शहर की परिवहन प्रणाली की ओर ध्यान दिया और वे ट्राम डिपो की ओर कूच कर गयीं। युद्ध ने ट्राम कम्पनियों को मजबूर कर दिया था कि वे अधिकाधिक संख्या में महिलाओं की भर्ती करें। महिलाओं ने ‘‘जारशाही का नाश हो’’ के नारे लगाते हुए ट्रामों को रोक दिया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पहले तक हथियारबंद सैनिक ट्राम डिपो के बाहर तैनात थे। लेकिन 23 फरवरी की शाम तक वे मजदूरों के साथ हो गये। प्रदर्शनकारियों ने ट्रामों को उलट दिया और उनका इस्तेमाल बैरीकेड की तरह किया जिससे कि पुलिस और फौज को रोका जा सके। व्याबोर्ग जिले से आगे बढ़ कर प्रदर्शन में चमड़ा, कागज और पाइप उद्योग के मजदूर शामिल हो गये। अब यह आम हड़ताल हो गयी। युद्ध की समाप्ति के नारे और महिलाओं द्वारा उनके आदमियों की मोर्चे से वापसी के नारे सब जगह लगाये जाने लगे। महिलाओं ने सैनिकों को अपने पक्ष में करने का अभियान चलाया। गांवों से किसानों के बेटों को जबरदस्ती सेना में भर्ती किया गया था। इनमें से अच्छी खासी संख्या में राजधानी पेत्रोग्राद के गैरीसन में थे। महिलाएं इन सैनिकों के बीच प्रचार कार्य में लगी हुई थीं।

    जारशाही किसी भी असंतोष व गड़बड़ी से निपटने के लिए कज्जाक सेना पर निर्भर करती थी। जारशाही के लिए यह स्पष्ट था कि मौजूदा आंदोलन के पीछे बोल्शेविकों का हाथ था। लेनिन की बड़ी बहन आन्ना एलिजारोवा को फरवरी क्रांति से एक सप्ताह पहले गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी प्रकार, एक दूसरी बोल्शेविक इलेना स्तासोवा को उनकी बीमारी के बावजूद 24 फरवरी को गिरफ्तार कर लिया गया था। 24 फरवरी को बहुत सारी महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। 

    इन गिरफ्तारियों का सड़कों के प्रदर्शनों पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। न ही अधिकारियों द्वारा महिलाओं से अपने घर लौटने की बातों या कज्जाकों के हिंसक हमलों का कोई असर पड़ रहा था। महिलायें घुड़सवार सैनिकों को देखकर भागने के बजाय उन्हें घेर लेती थीं। वे कज्जाक सिपाहियों से सीधे कहती थीं कि युद्ध में तुम्हारे-हमारे जैसे लोग गैर जरूरी तौर पर मारे जाते हैं और इससे मुनाफाखोर मुनाफा लूटते हैं। बोल्शेविक पार्टी की महिलायें सैनिकों के बीच लगातार प्रचार कर रही थीं कि वे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने के अधिकारियों द्वारा दिये जाने वाले आदेश को मानने से इंकार कर दें। 

    और इस प्रचार का असर पड़ा। कज्जाकों ने उनको सुना और गोली चलाने के आदेश को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने अपनी राइफलें झुका लीं और अपने घोड़ों पर सवार होकर आंदोलनकारियों से दूर चले गए। महिलाओं ने जारशाही हुकूमत की अंतिम सुरक्षा पंक्ति को तोड़ दिया था। 25 फरवरी की एक घटना उल्लेखनीय है। जब 25 फरवरी को प्रदर्शनकारियों का कज्जाकों से सामना हुआ तो एक नौजवान लड़की धीरे-धीरे कज्जाक सेना की ओर बढ़ी। वह अपने कपड़ों के भीतर गुलाब के फूलों का गुच्छा लिए हुए थी। उसने उन्हें हाथ में लेकर एक अधिकारी की ओर बढ़ाया। अधिकारी ने इसे स्वीकार कर लिया। इस तरह, महिला मजदूरों और गृहणियों ने पेत्रोग्राद शहर की फैक्टरियों और आवश्यक सेवाओं को ठप कर दिया था तथा सैनिकों के बीच आंदोलन के प्रति सहानुभूति अर्जित कर ली थी। 

    तीन दिनों के भीतर, आम हड़ताल हो गयी थी। सेना विद्रोह कर चुकी थी और क्रांति के पक्ष में जा चुकी थी और जारशाही ध्वस्त हो चुकी थी।

    23 फरवरी (8 मार्च) के आंदोलन का जिक्र करते हुए 5 मार्च (18 मार्च) के प्राव्दा ने लिखा था:-

    ‘‘23 फरवरी को महिला दिवस के दिन अधिकांश फैक्टिरियों और संयंत्रों में हड़ताल की घोषणा कर दी गयी। महिलायें बहुत जुझारू तेवर में थीं- न सिर्फ महिला मजदूर बल्कि रोटी और ईंधन के लिए लम्बी कतारें लगाने वाली महिलायें भी। उन्होंने राजनीतिक सभायें कीं। वे सड़कों में निकलीं, वे शहर डूमा की ओर रोटी की मांग लेकर गयीं, उन्होंने ट्रामों को रोका। उन्होंने जोश-खरोश के साथ आहवान किया, ‘‘कामरेडों बाहर आओ!’’ वे फैक्टरियों और संयंत्रों में गयीं और मजदूरों से अपने औजार रख देने को कहा। कुल मिलाकर, महिला दिवस व्यापक रूप से सफल था और इसने क्रांतिकारी स्पिरिट को उन्नत किया।’’

    फरवरी प्रदर्शनों को शुरू करने में महिलाओं की भूमिका और उसकी गति को बरकरार रखने में उनकी भूमिका जारशाही को उखाड़ फेंकने में बहुत महत्वपूर्ण थी। लेकिन इसी दौरान, पूंजीवादी नेताओं के साथ समाजवादी क्रांतिकारी और मेंशेविकों ने सांठगांठ करके एक अस्थायी सरकार का गठन कर लिया। समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी और मेंशेविकों का पेत्रोग्राद सोवियत में बहुमत था। ये सोवियतें मजदूरों और सैनिकों की सोवियतें थीं। ये फरवरी क्रांति के दौरान ही अस्तित्व में आ गयी थीं। मजदूरों और सैनिकों की सोवियतों के समर्थन के बिना अस्थायी सरकार कुछ नहीं कर सकती थी। ये दोनों अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाने में लगी हुयी थीं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के समय युद्ध समाप्त करने, अपने आदमियों को मोर्चे से वापस बुलाने और रोटी व ईंधन की जो मांग जोर से उठायी गयी थी, उन पर सरकार ने कुछ नहीं किया। अस्थायी सरकार ने युद्ध जारी रखने का फैसला किया। जारशाही के ध्वस्त होने के बावजूद, हालात वैसे ही बने रहे। 

    ऐसे ही समय में बोल्शेविक पार्टी ने समाजवादी क्रांति का नारा दिया। ‘‘सारी सत्ता सोवियतों को’’ के नारे के साथ अस्थायी सरकार के विरुद्ध मजदूरों, सैनिकों और किसानों के बीच काम शुरू किया गया।

    महिलाओं में सबसे उत्पीड़ित सैनिकों की पत्नियों ने अपनी हालत में सुधार न होने के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू कर दिया। 11 अप्रैल को 15000 सैनिकों की पत्नियों ने पेत्रोेग्राद सोवियत के सदर मुकाम के सामने प्रदर्शन किया। सोवियत का अध्यक्ष एफ.आई.डान नामक मेंशेविक था। वह युद्ध का समर्थक था। उसने महिलाओं की बात अनसुनी कर दी। 

    महिला मजदूरों का अस्थायी सरकार के विरुद्ध असंतोष बढ़ता जा रहा था। 21 अप्रैल को मुख्यतया टेक्सटाइल महिला मजदूरों ने सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन किया।

    गर्मियों तक अस्थायी क्रांतिकारी सरकार के विरुद्ध महिलाओं का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। अब महिलाओं का यह गुस्सा फैक्टरी मजदूरों तक ही सीमित नहीं था। इसका विस्तार सेवा क्षेत्र की महिला मजदूरों तक हो गया था। 1 मई 1917 में 40,000 लाउण्ड्री में काम करने वाली महिला मजदूर वेतन और काम के हालात में सुधार के लिए हड़ताल पर चली गयीं। उस समय तक पहली अस्थायी सरकार ध्वस्त हो चुकी थी। दूसरी अस्थायी सरकार अस्तित्व में आयी। इस सरकार में मेंशेविक और समाजवादी क्रांतिकारी साझी सरकार में शामिल हो गये। इस सरकार ने भी युद्ध में शामिल रहने की नीति जारी रखी।

    बोल्शेविक पार्टी ने लाउण्ड्री मजदूरों की हड़ताल का सक्रियतापूर्वक समर्थन किया और उसे नेतृत्व प्रदान किया। इसके अतिरिक्त उसने सेवा क्षेत्र के अन्य मजदूरों को संगठित करने का कार्य तेजी से अपने हाथ में लिया।

    अस्थायी सरकार के विरुद्ध समूचे मजदूर वर्ग सहित महिला मजदूरों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। मई में डाई मजदूरों की हड़ताल हुई। जून में होटलों में काम करने वाले वेटरों की हड़ताल हुई। 

    जारशाही को उखाड़ फेंकने में महिला मजदूरों और गृहणियों ने जिन मांगों व मुद्दों को उठाया था, वे दोनों अस्थायी सरकारों के काल में जारी ही नहीं रहीं बल्कि और ज्यादा घनीभूत होती गयीं।

    बोल्शेविक पार्टी महिला मजदूरों सहित समूचे मजदूर वर्ग को समाजवादी क्रांति करने के लिए संगठित करने में लग गयी। जुलाई, 1917 के बाद से स्थितियों में बदलाव आना शुरू हुआ। मजदूरों और सैनिकों की सोवियतों में बोल्शेविकों की साख बढ़ती गयी। महिला मजदूरों के बीच बोल्शेविकों का काम और ज्यादा सघन होता गया।

    इन सबने मिलकर अक्टूबर क्रांति को जन्म दिया और इस महान समाजवादी क्रांति ने इतिहास में पहली बार नारी को पुरुषों के समक्ष समान आधार पर साथ मिलकर लड़ने का मार्ग प्रशस्त किया।
आभारः रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-III

रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-II

 1905 की क्रांति ने मजदूर व अन्य महिलाओं को सदियों पुरानी निद्रा से झकझोर कर जाग्रत कर दिया था। वे राजनीतिक सरगर्मी में जोश-खरोश के साथ हिस्सेदारी कर रही थीं। इसके पहले तक वे सिर्फ अपनी मांगों- आर्थिक मांगों के लिए लड़ती थीं। लेकिन अब वे ‘आम हड़ताल’ में शिरकत कर रही थीं। 1905 के पहले ट्रेड यूनियनें भी कानूनी नहीं होती थीं। अब ट्रेड यूनियनों को कानूनी तौर पर गठित किया जा सकता था। पहली और दूसरी दूमा के चुनाव में उन्हें मताधिकार नहीं मिला था। वे महिलाओं के मताधिकार के लिए संघर्ष में कूद पड़ी थीं। यहीं पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन और सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन के बीच उद्देश्यों को लेकर तीखे मतभेद जाहिर हो गये थे। 


    पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन जारी आंदोलन को महज मताधिकार और औपचारिक समानता तक सीमित रखना चाहता था। वह ऊपरी तौर पर गैर वर्गीय दिखता था, लेकिन दरअसल वह नारी आंदोलन को पूंजीवादी शोषण से मुक्ति दिलाने तक नहीं ले जाना चाहता था। 1909 में कोल्लोन्ताई का प्रपत्र ‘‘नारी प्रश्न का सामाजिक आधार’’ महिलाओं के एक सम्मेलन में पढ़ा गया। इस प्रपत्र में स्पष्ट तौर पर पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन और सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन के बीच न हल होने वाले विरोध की बात की गयी थी। उन्होंने 1905 की क्रांति और 1904 में जापान के विरुद्ध युद्ध के लिए किसानों के बेटों की फौज में जबरन भर्ती के विरोध में खड़े होने वाले किसान महिलाओं के आंदोलन से सबक निकालते हुए पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन की सीमायें ही नहीं बताईं बल्कि उसे मजदूर-किसान महिलाओं का विरोधी भी सिद्ध किया।

    1905-07 की क्रांति को कुचल दिये जाने के बाद जहां एक तरफ मजदूर आंदोलन और इसके साथ ही नारी मुक्ति आंदोलन में तात्कालिक तौर पर गिरावट आ गयी थी, वहीं 1905 की क्रांति में मजदूर महिलाओं की भागीदारी ने उनकी राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ा दिया था। अब वे अधिकाधिक सचेत रूप में महिलाओं को संगठित करने के काम में लग गयी थीं। इस दौरान गांवोें से उजड़ कर आने वाली महिला मजदूरों की संख्या तेज रफ्तार से बढ़ रही थी। उनको पुरुषों के मुकाबले बहुत कम मजदूरी मिलती थी और उन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता था। जब 1912 में लेना की सोने की खान के मजदूरों का कत्लेआम किया गया तो एक बार फिर से मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार दिखाई पड़ने लगा। इस उभार में व्यापक रूप से मजदूर महिलाओं ने भागीदारी की। 

    प्रथम विश्व युद्ध की शुरूवात में ही जारशाही ने युद्ध में जाने का फैसला ले लिया। युद्ध में जारशाही के शामिल होने के फैसले के साथ ही अंधराष्ट्रवाद की आंधी जोर-शोर से तेज की गयी। जारशाही ने राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति के नाम पर थोड़े दिनों के लिए एक ऊपरी एकता भी पैदा कर ली। बोल्शेविक पार्टी ने शुरू से ही साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध किया और घोषणा की कि साम्राज्यवादी युद्ध से निकलने का एक मात्र रास्ता जारशाही का तख्ता उलटने से ही होकर जाता है। 

    प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव रूसी महिलाओं के ऊपर अलग-अलग तरह पड़ रहा था। यह उनके वर्ग, हैसियत, राजनीतिक विश्वास और भौगोलिक स्थिति के अनुसार पड़ रहा था। मजदूर और किसान महिलाओं के लिए यह अत्यन्त कठिनाई लाने वाला था। उनके पतियों और पुत्रों को जबरन भर्ती कर लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा रहा था। इससे इन महिलाओं का काम करने के लिए बाहर जाना और तेज हो गया था। ग्रामीण इलाकों में महिलायें ही रह गयी थीं। काम का सारा बोझ उन पर पड़ रहा था। 

    जारशाही फौज में पुरुषों की जबरन भर्ती से और युद्ध उद्योग में बढ़ रही मजदूरों की मांग ने महिलाओं और नौजवानों को उन उद्योगों की तरफ भी खींचा जो तब तक कुशल पुरुष मजदूरों के एकाधिकार में थे। वैसे अब भी अधिकतर महिला मजदूर अकुशल मजदूर ही थीं। चूूंकि ट्रेड यूनियनें कुशल मजदूरों की रही थीं। और ट्रेड यूनियनों में ज्यादातर कुशल मजदूर पुरुष थे। 

    1914 में युद्ध की घोषणा होने से पहले ही महिला मजदूरों का अग्रणी हिस्सा राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रहा था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि 1905 की क्रांति ने महिलाओं की राजनीतिक चेतना बढ़ा दी थी। बोल्शेविकों और मेंशेविकों दोनों ने महिलाओं के लिए पत्रिका निकालना शुरू कर दिया। बोल्शेविकों ने राबोत्नित्सा निकालना शुरू किया। इसके सात अंक निकले। इसके सात अंकों में तीन अंक जब्त कर लिए गये। जून, 1914 तक आते-आते राबोत्नित्सा पत्रिका को जारशाही ने बंद कर दिया क्योंकि यह युद्ध का विरोध करती थी। इसके बावजूद पेत्रोग्राद में महिलाओं को संगठित करने का प्रयास बोल्शेविक पार्टी कर रही थी। 

    1912 में लेना हत्याकाण्ड के बाद मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार आने के बाद महिला मजदूरों की ट्रेड यूनियनों में और हड़ताल आंदोलनों में बढ़ती आ रही थी। 1913 और 1914 में महिला मजदूर राजनीतिक हड़ताल आंदोलनों में अधिकाधिक शिरकत कर रही थीं। इसके अलावा वे रोटी के लिए होने वाले दंगों में भारी तादाद में हिस्सेदारी करने लगी थीं। खासकर, खाद्य संकट और ईंधन की आपूर्ति की कमी से महिला मजदूर और सैनिकों की पत्नियां सबसे ज्यादा प्रभावित हुई थीं। जमाखोरों और मुनाफाखोरों के विरुद्ध सर्वप्रथम ये महिलायें ही आगे आयीं। 

    युद्ध की घोषणा होने से ठीक पहले पेत्रोग्राद की एक रबर फैक्टरी में हड़ताल हो गयी। इस हड़ताल का कारण जहरीला खाना था जिसको खाने से कई महिला मजदूर बेहोश हो गयी थीं। यह 1914 की घटना थी। इसके बाद फिर इसी रबर फैक्टरी में नवम्बर, 1915 में 39 महिलायें बीमार पड़ गयीं। इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस घटना के दो दिन बाद एक 25 वर्षीय महिला मजदूर बेहोश हो गयी, उसके तीन घण्टे के भीतर 11 अन्य मजदूर बेहोश हो गयीं। इस तरह की घटनायें अन्य उद्योगों में भी हो रही थीं। 

    पुलिस और मालिकों के लिए इन दुर्घटनाओं का सिर्फ इतना ही अर्थ था कि इनसे उत्पादन में बाधा पड़ रही है। लेकिन 1914 की घटना के बाद जितनी तीखी प्रतिक्रिया महिला मजदूरों ने हड़ताल करके दी थी, उसका असर यह पड़ा कि ऐसी दुर्घटना के बाद महिला मजदूरों की तुरंत उपचार की व्यवस्था की जाने लगी। और उन्हें पाली तक काम करने के बजाय घर भेज दिया जाने लगा। यह असंतोष से बचने का एक उपाय था। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध खिंचता जा रहा था, महिला मजदूर अधिकाधिक संघर्षों में कूदने के लिए बैचेन होती जा रही थीं। बोल्शेविक पार्टी ने महिला मजदूरों की उद्वेलन और संगठन की इस सम्भावना को समझा और उनको सक्रिय करने की योजना को लागू किया। 

    1915 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च (तत्कालीन रूसी कलेण्डर के अनुसार 23 फरवरी) को ‘‘रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के महिला मजदूरों के संगठन’’ के नाम से जारी एक पर्चे में बताया गया कि युद्ध के दुष्प्रभाव से मजदूर वर्ग के संगठनों को खत्म किया जा रहा है, क्रांतिकारी अखबारों को कुचला जा रहा है, बेटों, पतियों और मजदूरों को पूंजी के फायदे के लिए विदेशी जमीनों में भेजकर मौत के मुंह में धकेला जा रहा है। युद्ध का बोझ महिलाओं के कंधों में डाल दिया गया है। इन सीलन भरे कमरों, ईंधन और भोजन की आप कितनी कीमत अदा करती हैं? यदि कीमतें दोगुनी होने की कोई शिकायत करता है तो सरकार उसको गिरफ्तार तक कर लेती है। इसलिए महिला मजदूरों, चुपचाप सहना बंद करो और अपने पुरुष साथियों की हिफाजत के लिए आगे कार्रवाई करो! जारशाही मुर्दाबाद!

    महिला मजदूर कार्रवाई में उतरने लगीं। 9 अप्रैल, 1915 को पेत्रोग्राद की एक कन्फेक्शनरी फैक्टरी की 80 महिला मजदूरों ने अपनी मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग की। इसके एक महीने से थोड़ा ज्यादा समय बाद मई, 1915 में एक टेक्सटाइल फैक्टरी की 450 महिला मजदूरों ने टूल डाउन कर दिया और मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग की। उन्होंने कारखाने से बाहर जाने से भी इंकार कर दिया। इन आंदोलनों में सिर्फ महिला मजदूर ही शामिल थीं। हालांकि बाद में 1916 में ट्राम वर्कर्स के संघर्ष में महिला और पुरुष दोनों मजदूर शामिल थे। 

    16 दिसम्बर, 1916 को पेत्रोग्राद के गोला बारूद के स्टोर में 996 महिलायें कैण्टीन के पास इकट्ठा होकर मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग करने लगीं। इसमें भी सिर्फ महिला मजदूर ही शामिल थीं। 

    महिला मजदूरों का जुझारूपन लगातार बढ़ता जा रहा था। इनेसा आरमाण्ड ने लिखा कि युद्ध के दौरान जब भी महिला मजदूरों को किसी भी हड़ताल व प्रदर्शन में शामिल किया जायेगा तभी उसे सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। 1915 में एक पर्चे में बोल्शेविक पार्टी ने अपने अभियानों में महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता तथा उसमें आने वाली कठिनाइयों पर यह कह कर जोर दिया:

    ‘‘युद्ध में भेजे गये लोगों के परिवारों पर और विशेष तौर पर मजदूरों की पत्नियों पर नजदीकी से ध्यान देना आवश्यक है। मजदूरों की पत्नियों को भोजन आपूर्ति अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। मजदूरी में बढ़ोत्तरी और काम के दिन को कम करने का संघर्ष तभी सम्भव है जब महिला मजदूरों की पूरी भागीदारी हो। इस समय का कार्यभार उनकी वर्ग चेतना के स्तर को उठाना है। 

    बोल्शेविक पार्टी ने प्रथम विश्व युद्ध को मजदूर वर्ग (जिसमें विशेष तौर पर महिला मजदूर भी शामिल थीं) की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में महत्वपूर्ण माना था। हालांकि 1914 के पहले अनेक महिलाओं ने परिवार को चलाने के लिए काम किया था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में भौतिक चीजों के अभाव के साथ-साथ मोर्चे पर पुरुषों की उच्च मृत्यु दर ने महिलाओं को मजबूर कर दिया था कि वे घर के मुखिया की परम्परागत पुरुषों वाली भूमिका को अपनायें। इससे भी बढ़कर अधिकाधिक महिलायें शहरी मजदूरों में शामिल होती जा रही थीं और उन्हें फैक्टरी के काम की कठोर स्थितियों का सामना करना पड़ रहा था, इसके कारण वे भी अधिकाधिक राजनीतिक सरगर्मियों में हिस्सा लेने की ओर गयीं। इन महिलाओं को वर्ग शोषण के साथ-साथ यौनिक उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता था। युद्ध और अभाव ने उनकी राजनीतिक सक्रियता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

    एक तरफ काम की कठिन स्थितियां और लम्बे काम के दिन थे और दूसरी तरफ महिला मजदूरों को भोजन के लिए लम्बी कतारों में घण्टों खड़े रहना पड़ता था। 1915 तक पेत्रोग्राद और उत्तर के शहरों में खाद्यान्न की काफी कमी हो गयी थी। 1916 के अंत तक महिला मजदूरों को दो पालियों में काम करना पड़ता था। तकरीबन वह सप्ताह में 40 घण्टे काम करती थीं। इसके बाद उन्हें लम्बी कतारों में भोजन के लिए खड़ा होना होता था। जहां एक तरफ भोजन की मात्रा और उसका गुण लगातार घटता जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ कीमतें बढ़ती जा रही थीं और वे मजदूरी से बहुत ज्यादा हो जाती थीं। किसी ने अनुमान लगाया था कि मजदूरी बामुश्किल दोगुना बढ़ी होगी जबकि इस दौरान कीमतें कम से कम चार गुनी बढ़ गयी थीं। इसके अतिरिक्त चूंकि अधिकांश महिलायें अकुशल मजदूरों की श्रेणी में रखी जाती थीं, इसलिए उनकी मजदूरी और भी कम होती थी। 

    सैनिकों की पत्नियों की अत्यन्त कठिन स्थितियां थीं, उनको मिलने वाला भत्ता न सिर्फ अत्यन्त कम था बल्कि उसका भुगतान भी अक्षम व भ्रष्ट नौकरशाही की दया पर निर्भर करता था। जमाखोरी और मुनाफाखोरी के अलावा परिवहन और वितरण प्रणाली भी ध्वस्त हो चुकी थी। इससे महिलाओं को रोटी और ईंधन के लिए शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाना पड़ता था। राशन की कतारों में सुबह तड़के खड़े होने के लिए रात वहीं गुजारनी पड़ती थी। महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों की लम्बी कतारों की परेशानी और महिला मजदूरों की कठिन काम की स्थितियों ने उनकी राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाने में योगदान दिया।

    कम से कम 1915 से बोल्शेविक पार्टी ने मजदूर वर्ग के बढ़ते आंदोलनों को, पुरुष और महिला मजदूरों दोनों को सम्बोधित करने पर जोर दिया। वे अपने पर्चों में मांग करने लगे कि 8 घण्टे काम का दिन हो, जारशाही को उखाड़ फेंका जाये और अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की स्थापना हो तथा सारी जमीनें किसानों की हों। ऐसा ही एक पर्चा 14 फरवरी, 1917 को जारी किया गया। इस पर्चे में मजदूरों को सलाह दी गयी कि वे अपने विरोध को मई दिवस जैसे महत्वपूर्ण दिनों में केन्द्रित करें। 

    बोल्शेविक पार्टी के आलोचक मशहूर मेंशेविक निकोलाई सुखानोव जो 1917 में पेत्रोग्राद में काम करते थे, ने फरवरी क्रांति की पूर्ववेला में बैचेनी की आम मनोदशा को बताया था। उन्होंने आने वाले राजनीतिक तूफान को, जो आम लोगों के बीच चर्चा का विषय था, खारिज कर दिया था। वे अपने को समझदार क्रांतिकारी समझते थे। वे इसे महज कार्यालयों में काम करने वाली ‘‘लड़कियों’’ की ‘‘गप्पबाजी’’ समझते थे। वे सोचते थे कि आखिर इन लड़कियों को क्रांति के बारे में क्या जानकारी है। सुखानोव ने दो टाइपिस्टों को आपस में गप करते हुए सुना कि भोजन की भयावह कमी है और लोग जमाखोरों को खोज रहे हैं और कि गोदामों में हमले हो रहे हैं। क्लर्क लोग भोजन के लिए अंतहीन महिला कतारों की चर्चा कर रही थीं। वे उनके अंदर फैली बैचेनी की चर्चा कर रही थीं। वे महिलाओं के बीच चल रही बहसों और तर्क-वितर्कों की बात कर रही थीं और उन क्लर्क लड़कियों ने निष्कर्ष निकाला कि यह क्रांति की शुरूआत थी। 

    और यह सचमुच में क्रांति की शुरूआत थी। 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन (उस समय के रूसी कलेण्डर के अनुसार 23 फरवरी के दिन) महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों ने जारशाही को खत्म करने की शुरूवात करके एक नये समाज के निर्माण की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया था। 

    बोल्शेविक पार्टी ने महिला मजदूरों को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभायी थी, महिला मजदूरों ने फरवरी क्रांति की शुरूवात कर क्रांति में अपनी गौरवशाली भूमिका को सिद्ध कर दिया था।                      (क्रमशः)   

रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-I

रूस की फरवरी क्रांति का सूत्रपात अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन से व्यापक महिला मजदूरों के प्रदर्शन के साथ हुआ था। इन महिला मजदूरों के साथ बड़े पैमाने पर वे महिलायें भी हिस्सेदारी कर रही थीं, जिनके पतियों को जारशाही ने प्रथम विश्व युद्ध में झोंक रखा था। लेकिन यह अचानक नहीं हुआ था। रूस में क्रांतिकारी महिलाओं को संगठित करने का प्रयास लम्बे समय से चल रहा था। 

  दरअसल, उन्नीसवीं सदी के अंत में रूस में क्रांतिकारी महिलायें नरोदवाद से प्रभावित होकर क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन में शामिल हुयी थीं। इन शुरूवाती क्रांतिकारी महिलाओं में वेरा फिगनर और सोफिया पेरोव्सकाया थीं। सोफिया पेरोव्सकाया को 1881 में जार अलेग्जेण्डर द्वितीय की हत्या करने के आरोप में चार अन्य क्रांतिकारियों के साथ फांसी दे दी गयी थी। वेरा फिगनर को भी जल्द ही गिरफ्तार कर लिया गया था और वे लम्बे समय के लिए जारशाही की जेल में डाल दी गयी थीं। 

    इन महिलाओं ने व्यक्तिगत आत्मबलिदान की भावना को प्रदर्शित करते हुए उच्च नैतिक मानदण्ड का परिचय दिया था। ऐसी ही एक महिला वेरा जासुलिच थी, जिन्होंने, 1878 में पेत्रोग्राद के गवर्नर त्रेयोव नाम के जनरल की हत्या करने का प्रयास किया था। इस प्रयास में वेरा जासुलिच सजा से बच गयी थीं और रूस की जनता की निगाह में एक नायिका के बतौर स्थापित हो गयी थीं। वे फिर से गिरफ्तारी से बचने के लिए निर्वासित होकर विदेश चली गयी थीं। विदेश जाने पर उन्होंने क्रांतिकारी आतंकवाद को छोड़कर मार्क्सवाद को अपना लिया था। वेरा जासुलिच ने आतंकवाद को एक अलग-थलग व्यक्तिगत कार्रवाई के बतौर समझ लिया था जिसे वह अनवरत काम करके जन आंदोलन खड़ा करने के काम का कोई विकल्प नहीं मानती थीं। 

    इसी दौरान महान रूसी साहित्यकार लियो टालस्टाय किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्कूल खोल रहे थे और उनकी दुर्दशा पर लिख रहे थे। इससे प्रभावित होकर 1887 में 18 वर्षीय लड़की नादेज्दा क्रुप्सकाया गरीब लोगों के बच्चों को पढ़ाने लगी थीं। वे अध्ययन करने की प्रक्रिया के दौरान मार्क्सवादी साहित्य के सम्पर्क में आयीं और अपना जीवन उन्होंने मजदूरों को शिक्षित और संगठित करने में लगा दिया था। 

    1880 के दशक में रूस में उद्योगों का विकास तेज गति से हुआ और इससे महिला मजदूरों की संख्या में वृद्धि होती गयी। इसी दशक के अंत में रूस के विभिन्न शहरों में सामाजिक-जनवादी ग्रुप बनने लगे थे। ऐसे ग्रुपों में पहले सिर्फ पुरुष शामिल होते थे, लेकिन 1890 के अंत में कुछ महिला मजदूर भी शामिल होने लगीं। क्रुप्सकाया इतवार के दिन मजदूर बस्तियों में जाकर स्कूल चलाने लगी थीं। उन्होंने 1891 से लेकर 1896 तक मजदूरों के बीच स्कूल चलाये। ऐसे ही कुछ अन्य क्रांतिकारी महिलायें भी स्कूल चला रही थीं। 

    मजदूरों को शिक्षित करने के ऐसे ही प्रयासों का प्रभाव यह पड़ा कि 1896 में जब टेक्सटाइल मजदूरों की हड़तालों का सिलसिला चल पड़ा तो क्रांतिकारियों ने अपने छिटपुट प्रयासों को व्यापक उद्वेलन में तब्दील करने का तरीका अपनाया।  1890 के दशक के मध्य में मजदूरों के ग्रुपों के बीच अध्ययन करने के लिए एक पुस्तिका निकाली गयी जिसमें यह बताया गया कि पूंजीवाद के अंतर्गत महिलाओं की स्थिति कितनी खराब है। इस पुस्तिका में महिलाओं की कठिन काम की परिस्थितियों के साथ-साथ बहुत कम मजदूरी तथा काम के स्थान पर यौन उत्पीड़न की चर्चा की गयी थी। इस पुस्तिका में भारी काम का बोझ, अस्वास्थ्यकर व असुरक्षित काम के हालात, मातृत्व सुविधाओं का अभाव और यौन रोग की व्यापक मौजूदगी के कारण ऊंची शिशु मृत्यु दर के बारे में बताया गया था। इस पुस्तिका में वर्गीय शोषण के साथ महिलाओं के उत्पीड़न की चर्चा की गयी थी और यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि पूंजीवाद मशीनों का प्रयोग मजदूरों के हालात को सुधारने के लिए नहीं बल्कि मजदूरी घटाने के लिए काम पाने की होड़ को बढ़ाने और मजदूरों को महिला और पुरुष के बीच, कुशल और अकुशल के बीच फूट डालने के लिए करता है। इस पुस्तिका में बताया गया था कि इससे निपटने का एकमात्र रास्ता एक संयुक्त वर्ग के रूप में एकताबद्ध होकर मालिकों के विरुद्ध महिलाओं के द्वारा ट्रेड यूनियनों में शामिल होने और सक्रिय होकर संघर्ष करने में है। 

    इसी प्रकार, महिला मजदूरों की परिस्थितियों पर केन्द्रित कुछ और पुस्तिकायें प्रकाशित की गयीं। 1901 में क्रुप्सकाया द्वारा लिखित महिला मजदूर पुस्तिका विदेश में प्रकाशित हुई। 1890 के दशक में नारी प्रश्न पर क्लारा जेटकिन के लेखों का महिला मजदूरों के बीच अध्ययन किया जाता था। एक अन्य रचना चेर्निशेविस्की के उपन्यास ‘‘क्या करें’’ को भी मजदूर ग्रुपों के बीच काफी पढ़ा जाता था। एक महिला, अलेक्जांडा आर्तिउस्वीना जो ऐसे ही मजदूर ग्रुपों में शामिल होती थीं और जिसने 1917 की क्रांति में हिस्सा लिया था, ने इस बारे में लिखा थाः

    ‘‘जब हम इतवार और सांध्य स्कूलों में जाते थे तो हमने पुस्तकालय से किताबों को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था और हमने चेर्निशेविस्की जो कि एक महान रूसी जनवादी था, के बारे में जाना। हमने उनकी पुस्तक ‘‘क्या करें’’ को गुप्त रूप से पढ़ा और हमने पाया कि वेरा पाव्लोव्ना की तस्वीर भविष्य की महिला की तस्वीर बहुत ज्यादा आकर्षक थी।’’

    इसके अतिरिक्त जर्मन सामाजिक जनवादी अगस्त बेबेल की पुस्तक ‘‘नारी और समाजवाद’’ को पढ़ा जाता था। इस पुस्तक ने अलेक्जांद्रा कोल्लोन्ताई पर काफी प्रभाव डाला था। अलेक्जांद्रा कोल्लोन्ताई ने अपने सक्रिय क्रांतिकारी जीवन की शुरूवात 1890 के दशक के अंत में की थी। क्रांति के दौरान उन्होंने महिला मजदूरों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कोल्लोन्ताई के अनुसार, बेबेल की रचना प्रकाशित होने के पहले महिलायें आमतौर पर पूंजीवादी अवस्थिति अपनाया करती थीं। बेबेल का योगदान नारी प्रश्न को वर्गीय आधार पर स्पष्ट पेश करना था। बेबेल ने अपनी रचना में यह दिखाया था कि महिलाओं की स्थिति ऐतिहासिक तौर पर निर्धारित थी न कि प्राकृतिक तौर पर। बेबेल की राय में नारी आंदोलन को आम समाजवादी आंदोलन का हिस्सा होना चाहिए और समाजवादी क्रांति के जरिए ही नारी मुक्त हो सकती है। 

    उन्नीसवीं सदी के अंत में पूंजीवादी उद्योगों की बढ़ोत्तरी के साथ महिला मजदूरों की संख्या बढ़ रही थी। महिला मजदूरों की मजदूरी पुरुषों की तुलना में बहुत कम होती थी। कोल्लोन्ताई के अनुसार, महिला तिहरे बोझ के नीचे थी। मजदूर, पत्नी और मां के बोझ का वह सामना करती थी। कोल्लोन्ताई ने बताया कि नारी और पुरुष के बीच असमानता मजदूर आंदोलन को कमजोर करती है और मजदूरों का शोषण बढ़ाने में पूंजी की मदद करती है। 

    जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है कि 1890 के दशक के मध्य से व्यापक मजदूर आंदोलन की शुरूवात हो चुकी थी। टेक्सटाइल उद्योग में मजदूरों का जुझारूपन बढ़ता जा रहा था। टेक्सटाइल और तम्बाकू तथा कन्फेक्शनरी उद्योग के महिला मजदूर उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरूवात में आंदोलन में शामिल हो रही थीं। कारेलिना नाम की महिला मजदूर ने 1893 में छः महीने की सजा काटने के बाद 1896-97 की हड़तालों में शामिल करने के लिए महिलाओं को खींचने में विशेष ध्यान दिया था। 

    जहां एक तरफ, सामाजिक जनवादी महिला मजदूरों को संगठित करने, उनको मजदूर आंदोलन में एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे वहीं आतंकवादी नरोदनिक संगठन से जुड़े लोग समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी के इर्द गिर्द संगठित हो रहे थे। इन दोनों धाराओं में महिलायें सक्रिय थीं। ऐसी ही एक आतंकवादी क्रांतिकारी महिला एकातेरिना ब्रेश्को-ब्रेश्कोवस्काया थीं। उन्हें ‘‘क्रांति की दादी’’ कहा जाता था। वे बीसवीं सदी की शुरूवात में समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गयी थीं। वे लगातार दुस्साहसवादी कार्रवाइयों की हिमायत करती थीं। 

    इन दो धाराओं के अतिरिक्त पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन में सक्रिय कुछ महिलायें थीं। इस आंदोलन की शुरूवात परस्पर दानदाता समाज के नाम से गठित एक संगठन के जरिए उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई थी। 

    जहां एक तरफ सामाजिक जनवादी पार्टी में सक्रिय क्रुप्सकाया, आन्ना कारिया, शुस्काया और कोल्लोनताई जैसी क्रांतिकारी महिलायें थीं जो मजदूर महिलाओं को संगठित करने का प्रयास कर रही थीं। वहीं जुबातोव जो जारशाही खुफिया पुलिस का मुखिया था, मजदूर आंदोलन के भीतर अपनी घुसपैठ बनाने के लिए खुद भी यूनियनें बनाने की कोशिश कर रहा था। यहां यह भी ज्ञात हो कि जारशाही के जमाने में 1905 तक ट्रेड यूनियनें बनाना भी गैर कानूनी था। ऐसी मजदूर महिलायें जिनमें सांगठनिक कुशलता और नेतृत्वकारी क्षमता होती थी, उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता था, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता था, उन्हें पुलिस निगरानी में रखा जाता था या उन्हें निर्वासित कर दिया जाता था। ऐसा पुरुष मजदूरों के साथ और भी ज्यादा किया जाता था। लेकिन ऐसी महिलायें और पुरुष अपने क्रांतिकारी कार्य में लगातार लगे रहते थे। वे एक काम से दूसरे काम में और एक शहर से दूसरे शहर में लगातार जगहें बदलते रहते थे। ऐसी महिलायें जहां भी जातीं वे महिला मजदूरों को संगठित करने के प्रयास में लग जातीं।             

    यह वह समय था जब मजदूर आंदोलन लगातार आगे बढ़ रहा था। यह वह समय भी था, जब रूस में क्रांतिकारी पार्टी, सामाजिक जनवादी पार्टी का गठन हो गया था और उसकी दूसरी कांग्रेस में उसका दो धड़ों में विभाजन भी हो गया था। इस विभाजन के बावजूद, मजदूर आंदोलन तेज गति से बढ़ रहा था। 

    तभी 1905 में खूनी रविवार के दिन क्रांति फूट पड़ी थी। हजारों मजदूर पादरी गैपन के नेतृत्व में अपनी खराब स्थिति सुधारने की मांग करने के लिए जार के सामने नतमस्तक होकर गये थे। लेकिन जार की पुलिस ने उनकी प्रार्थना का जवाब गोलियों की बौछार से दिया था। इसके बाद 1905 की क्रांति फूट पड़ी थी। लड़ाकू जहाज पोतेमकिन के नाविक भी मजदूरों के समर्थन में उतर पड़े थे। इस क्रांति में महिला मजदूरों ने बढ़ चढ़ कर भूमिका निभाई थी। कारेलिना नामक मजदूर महिला ने, जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है, 1904-05 में हजार महिलाओं को संगठित किया था। पेत्रोग्राद में कारोलिना ने एक दूसरी महिला आन्ना बोव्दीरेवा के साथ मिलकर महिलाओं को 1905 की क्रांति में सक्रिय तौर पर भूमिका निभाने में नेतृत्व दिया था। 1905 में इन दोनों महिलाओं को 5 अन्य सामाजिक जनवादी महिला मजदूरों के साथ पेत्रोग्राद सोवियत में चुना गया था। 

    हालांकि 1905 की क्रांति कुचल दी गयी थी। तब भी इसने व्यापक मजदूर आबादी को संगठित करने में तथा विशेष तौर पर महिलाओं को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभायी थी। 1905 की असफल क्रांति ने क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं को व्यापक तौर पर संगठित करने की आवश्यकता को और ज्यादा तल्खी के साथ रेखांकित कर दिया था। 1905-06 के दौरान महिला मजदूरों के तरह-तरह के संगठन बनने लगे थे। न सिर्फ उद्योगों में बल्कि घरेलू काम करने वाली महिला मजदूरों, रेस्तराओं, होटलों, शराबखानों और वेश्यालयों में काम करने वाली महिलाओं को संगठित किया गया। 1906 में पेत्रोग्राद, मास्को और एकातिरानेस्लाव जैसे विभिन्न शहरों में नौकरों की यूनियनें बन गयीं। इन यूनियनों ने विभिन्न तरह के सुरक्षा कानूनों, काम के निश्चित घण्टों, स्वास्थ्य, बेरोजगारी बीमा और मातृत्व की सुविधा इत्यादि की मांग रखीं। 1905 की क्रांति के दौरान हालांकि इन महिला मजदूरों को पिछड़ा समझा जाता था, तब भी इन महिलाओें ने संगठन में न सिर्फ रुचि दिखाई बल्कि खुद की संगठित होने की क्षमता भी प्रदर्शित की। 

    1907 में जब जारशाही ने क्रांति को नृशंसतापूर्वक कुचल दिया और इसने राजनीतिक व ट्रेड यूनियन गतिविधियों को जो रियायतें दबाव में आकर दी थीं, उन्हें छीनना शुरू कर दिया तो ऐसी गतिविधियों को खुले तौर पर बरकरार नहीं रखा जा सका। लेकिन इन सबकों को भुलाया भी नहीं जा सका। ये सबक आगे चलकर 1917 की दोनों क्रांतियों में काम आये। 

    यहां यह भी ध्यान में रखने की बात है कि 1905 की क्रांति में उच्च तबके की पूंजीवादी नारीवादी भी सक्रिय थीं। पूंजीवादी नारीवादियों ने मताधिकार की मांग की। वे विभिन्न पेशों के संगठनों की गतिविधियों में शिरकत करती थीं और राजनीतिक लक्ष्यों को लेकर उन्होंने संगठन बनाये थे। ये पूंजीवादी-नारीवादी महिलाओं ने महिलाओं की समानता के लिए अखिल रूसी यूनियन और महिलाओं की प्रगतिशील पार्टी की स्थापना की। इन्होंने ये दोनों संगठन 1905 में गठित किये। इन दोनों संगठनों के अलावा परस्पर दानदाता समिति 1895 से ही अस्तित्व में थी। 

    इस तरह हम देख सकते हैं कि 1905-07 की क्रांति के दौरान समाज में चौतरफा जागृति ही नहीं बल्कि सामाजिक सक्रियता आ गयी थी। नारी आंदोलन में भी पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन की विभिन्न धारायें सक्रिय हो गयी थीं। पुरानी क्रांतिकारी आतंकवादी धारा की महिलायें भी समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी में सक्रिय थीं। इसी प्रकार मजदूर महिलाओं को संगठित करके क्रांति में उनकी भूमिका बनाने वाली तथा उनके मुक्ति संघर्ष को समाजवाद के लिए संघर्ष का अभिन्न अंग बनाने वाली धारा तेजी से बढ़ रही थी। ये सभी धारायें अपने-अपने वर्ग हितों के अनुसार अपनी मांगें और लड़ने के रास्ते तय कर रही थीं। 

    जब प्रतिक्रिया का दौर शुरू हुआ तो इन तीनों तरह की नारी आंदोलन की धाराओं के बीच संघर्ष तेज हुआ और तीनों के वर्ग हितों ने उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ करने में अपनी भूमिका निभायी।                   
  (जेन मैकडरमिड और असा हिलयार की पुस्तक ‘मिडवाइफ्स आफ दि रिवोल्युशन’ के आधार पर)
साभारः रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-I 
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