February 19, 2024

ऩफरत की राजनीति बंद करो

उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर बनभूलपूरा क्षेत्र में मदरसा- मस्जिद तोड़- फोड़़ किए जाने पर पथराव व आगजनी हुई तो दूसरे पक्ष की ओर से फाईरिंग हुई| जिसमें 5 लोगों की मौत हुई व

300 से ज्यादा लोग घायल हुए है| इनमें पी०एस०सी० के नौजवान, होमगार्ड, पत्रकार व बस्ती के लोगों थे| इस घटना के शिकार होने वाले में  प्रशासन से लेकर आम नागरिक हुए हैं। जो मजदूर- मेहनतकश परिवारों से हैं। 

शहर में लगे कर्फ्यू ने आम जनजीवन व रोजगार को बूरी तरह प्रभावित किया। बनभूलपूरा क्षेत्र के छोड़ शहर के अन्य हिस्से से कर्फ्यू हटा दिया गया है|  


वनभूलपरा में मलिक का बगीचा नाम से एक जगह है| जिसमें एक मदरसा और मस्जिद 2002 बनाया गया था| 
 
अब्दुल मलिक और सफिया मलिक इस संपत्ति की देखरेख कर रहे थे और 4 फरवरी को हल्द्वानी नगर निगम की ओर  उत इस संपत्ति के सील कर दिया गया था।  नगर निगम ने इस साल  30 जनवरी  को इस जमीन को कब्जाने के लिए धवस्तीकरण का नोटिस दिया। नोटिस के खिलाफ 6 फरवरी को उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। अदालत ने 8 फरवरी को मामले की सुनवाई की और अगली सुनवाई 14 फरवरी को तय की थी। इसका इंतजार किए बिना ही तोड़- फोड़ की कार्यवाही की गयी। तब से लेकर अभी तक वहाँ कर्फ्यू लगा हुआ है|

यहाँ ज्यादातर आबादी मेहनत मजदूरी करती है। कर्फ्यू के कारण उनका रोजगार पूर्णता ठप हो गया है। ज्यादातर आबादी के पास राशन, सब्जी, ईंधन आदि खरीदने के पैसे भी नहीं बचे हैं।बुढ़े-बिमार व गर्भवती महिलाओं अपना सही से इलाज नहीं करवा पा रहे हैं| स्कूल बंद होने से छात्र- छात्राओं के अध्ययन में समस्या आ रही है। 

धामी सरकार ने नजूल की भूमि यानी सरकारी भूमि की आड़ में यहां हमला किया। सबसे बड़ा सवाल यही कि हल्द्वानी की लगभग अधिकांश नजूल भूमि पर बसे लाखों आवास और कई मंदिर  मस्जिद  बने है। लेकिन मस्जिद को ही क्यों निशाना बनाया। ऐसा सुनियोजित योजना और मंशा के बिना मुमकिन नहीं। तात्कालिक तौर पर, चुनाव में मुसलमानों को हिंदू समुदाय के लिए खतरे के रूप में यानी ' मुसलमानों के अपराधी होने के’ फर्जी दावे को मजबूत करके हिंदू वोटों का अपने पक्ष में सुदृढ़ीकरण और ध्रुवीकरण करना तो दूरगामी तौर पर उस जमीन को हड़पने की योजना, जिस पर रेलवे के फर्जी दावे का विवाद सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। सही मायनों में हल्द्वानी का वनभूलपुरा संघी सरकार का नफरती राजनीति कर प्रयोग स्थल बना हुआ है। 

सरकार द्वारा  नजूल भूमि वन भूमी खाली करवाने, के नाम पर अल्पसंख्यक के धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया जा रहा है।सरकार द्वारा अतिक्रमण हटाने, जी०-20 व विकास के नाम पर तोड़- फोड़ जारी है| जिसके लिए अदालती- कानूनी कार्रवाई व जनता को भरोसे लिए बिना सब कार्रवाई की जा रही है। 

प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र इस पूरी घटना की घोर निंदा करता है|

January 14, 2024

बिल्किस बानो मामले पर सर्वोच्च न्यायलय का फैसलाः केंद्र में अपराध या कानूनी प्रक्रिया?

 8 जनवरी 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा बिल्किस बानो के बलात्कारियों को रिहा करने के फैसले को खारिज करते हुए उन्हें दो हफ्तों के अंदर सरेंडर करने का आदेश दिया है।

गौरतलब है कि गुजरात सरकार ने 10 अगस्त   2022 को गुजरात सरकार की 1992 की सजा में छूट नीती के तहत सभी 11 बलात्कारियों को रिहा कर दिया। गुजरात सरकार के इस फैसले के खिलाफ देश के सर्वोच्च न्यायालय में तमाम जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं। जिसपर सुनवाई करते हुए 8 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार के इस फैसले को रद्द करते हुए बलात्कारियों को दो हफ्ते के अंदर आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का पूरे देश में स्वागत हो रहा है। इसे इंसाफ की जीत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

लेकिन इसमें गौर करने वाली बात यह है कि क्या वाकई इस फैसले ने देश में महिला हिंसा के अपराधों में न्याय स्थापित किया है?

खुद बिल्किस बानो के साथ हुए अपराध की बात करें तो 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिल्किस बानो, जो तीन महीने की गर्भवती थीं, के साथ बलात्कार किया गया तथा उनके परिवार के लोगों की, जिनमें उनकी तीन वर्षीय बच्ची भी शामिल थी, हत्या कर दी गई। गुजरात पुलिस ने साल 2002 में कहा था कि इस केस को बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह अपराधियों को ढूंढ़ नहीं पाई है.

इसके बाद बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि इस केस की जाँच सीबीआई (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन) से कराई जानी चाहिए.

इसके बाद ये मामला गुजरात से महाराष्ट्र भेजा गया.

साल 2008 में सीबीआई की विशेष अदालत ने इन 11 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी। 2002 में हुए बलात्कार का एक ऐसा केस जो पूरी दुनिया में मशहूर हुआ उसके लिए सजा मिलने में 6 साल का समय मिला। इस एक प्रकरण से महिला अपराधों के प्रति हो रहे इंसाफ की बानगी साफ देखने को मिलती है।

जहां एक तरफ देश में महिला हिंसा के अपराधों का ग्राफ उपर बढ़ता जा रहा है वहीं दूसरी तरफ महिला हिंसा के मामलों में न्याय तो दूर की बात है उनकी सुनवाई भी मुश्किल होती जा रही है।

यदि बिल्किस बानो केस में आए सर्वोच्च न्यायायल के इस फैसले को हम इंसाफ की जीत कहेंगे तो ठीक उसी समय उन्नाव बलात्कार केस में बलात्कारी विधायक सेनगर की जमानत, बलात्कारी विधायक चिन्मयानंद जैसे तमाम मामले हमारे सामने मुंह बाए खड़े हो जाते हैं।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला महज प्रक्रिया को गलत ठहराने से संबंधित है। यदि यह रिहाई गुजरात सरकार के बजाए महाराष्ट्र सरकार द्वारा की जाती तो इस रिहाई में कोई समस्या नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्किस बानो के अपराधियों को बचाने की गुजरात सरकार की हिंदू फासीवादी मानसिकता पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं किया। इस बात पर फैसले में कोई जिक्र नहीं है कि ऐसे जघन्य अपराधों में रिहाई का फैसला देना गलत है। यदि एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित अपराध में इस तरह की रिहाई के फैसले को निरस्त करते हुए अपराध की जघन्यता पर किसी तरह की कोई बात नहीं की जाती है। तो महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों के अन्य मामलों में क्या उम्मीद की जा सकती है।

मौजूदा फासीवादी सरकार के शासनकाल में जिस तरह से न्यायपालिका जनविरोधी चरित्र इख्तियार करती  जा रही है ऐसे समय में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आरएसएस जैसे फासीवादी संगठनों द्वारा अपने लोगों को बचाने के लिए तथ्यों को छुपाए जाने और मामले को भ्रमित करना तो खुलकर सामने आता है। किंतु मात्र प्रक्रिया के आधार पर रिहाई को निरस्त करना न्यायपालिका की ऐसे मामलों के प्रति संवेदनशीलता को भी खोलकर सामने लाती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र इस बात पर पुनः जोर देता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा इस देश के आम मजदूर मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे शोषण उत्पीड़न का ही एक हिस्सा है और इसकी समाप्ति का रास्ता इस शोषण उत्पीड़न से भरी व्यवस्था के खात्मे के साथ ही संभव है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी

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