January 14, 2024

बिल्किस बानो मामले पर सर्वोच्च न्यायलय का फैसलाः केंद्र में अपराध या कानूनी प्रक्रिया?

 8 जनवरी 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा बिल्किस बानो के बलात्कारियों को रिहा करने के फैसले को खारिज करते हुए उन्हें दो हफ्तों के अंदर सरेंडर करने का आदेश दिया है।

गौरतलब है कि गुजरात सरकार ने 10 अगस्त   2022 को गुजरात सरकार की 1992 की सजा में छूट नीती के तहत सभी 11 बलात्कारियों को रिहा कर दिया। गुजरात सरकार के इस फैसले के खिलाफ देश के सर्वोच्च न्यायालय में तमाम जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं। जिसपर सुनवाई करते हुए 8 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार के इस फैसले को रद्द करते हुए बलात्कारियों को दो हफ्ते के अंदर आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का पूरे देश में स्वागत हो रहा है। इसे इंसाफ की जीत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

लेकिन इसमें गौर करने वाली बात यह है कि क्या वाकई इस फैसले ने देश में महिला हिंसा के अपराधों में न्याय स्थापित किया है?

खुद बिल्किस बानो के साथ हुए अपराध की बात करें तो 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिल्किस बानो, जो तीन महीने की गर्भवती थीं, के साथ बलात्कार किया गया तथा उनके परिवार के लोगों की, जिनमें उनकी तीन वर्षीय बच्ची भी शामिल थी, हत्या कर दी गई। गुजरात पुलिस ने साल 2002 में कहा था कि इस केस को बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह अपराधियों को ढूंढ़ नहीं पाई है.

इसके बाद बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि इस केस की जाँच सीबीआई (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन) से कराई जानी चाहिए.

इसके बाद ये मामला गुजरात से महाराष्ट्र भेजा गया.

साल 2008 में सीबीआई की विशेष अदालत ने इन 11 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी। 2002 में हुए बलात्कार का एक ऐसा केस जो पूरी दुनिया में मशहूर हुआ उसके लिए सजा मिलने में 6 साल का समय मिला। इस एक प्रकरण से महिला अपराधों के प्रति हो रहे इंसाफ की बानगी साफ देखने को मिलती है।

जहां एक तरफ देश में महिला हिंसा के अपराधों का ग्राफ उपर बढ़ता जा रहा है वहीं दूसरी तरफ महिला हिंसा के मामलों में न्याय तो दूर की बात है उनकी सुनवाई भी मुश्किल होती जा रही है।

यदि बिल्किस बानो केस में आए सर्वोच्च न्यायायल के इस फैसले को हम इंसाफ की जीत कहेंगे तो ठीक उसी समय उन्नाव बलात्कार केस में बलात्कारी विधायक सेनगर की जमानत, बलात्कारी विधायक चिन्मयानंद जैसे तमाम मामले हमारे सामने मुंह बाए खड़े हो जाते हैं।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला महज प्रक्रिया को गलत ठहराने से संबंधित है। यदि यह रिहाई गुजरात सरकार के बजाए महाराष्ट्र सरकार द्वारा की जाती तो इस रिहाई में कोई समस्या नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्किस बानो के अपराधियों को बचाने की गुजरात सरकार की हिंदू फासीवादी मानसिकता पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं किया। इस बात पर फैसले में कोई जिक्र नहीं है कि ऐसे जघन्य अपराधों में रिहाई का फैसला देना गलत है। यदि एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित अपराध में इस तरह की रिहाई के फैसले को निरस्त करते हुए अपराध की जघन्यता पर किसी तरह की कोई बात नहीं की जाती है। तो महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों के अन्य मामलों में क्या उम्मीद की जा सकती है।

मौजूदा फासीवादी सरकार के शासनकाल में जिस तरह से न्यायपालिका जनविरोधी चरित्र इख्तियार करती  जा रही है ऐसे समय में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आरएसएस जैसे फासीवादी संगठनों द्वारा अपने लोगों को बचाने के लिए तथ्यों को छुपाए जाने और मामले को भ्रमित करना तो खुलकर सामने आता है। किंतु मात्र प्रक्रिया के आधार पर रिहाई को निरस्त करना न्यायपालिका की ऐसे मामलों के प्रति संवेदनशीलता को भी खोलकर सामने लाती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र इस बात पर पुनः जोर देता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा इस देश के आम मजदूर मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे शोषण उत्पीड़न का ही एक हिस्सा है और इसकी समाप्ति का रास्ता इस शोषण उत्पीड़न से भरी व्यवस्था के खात्मे के साथ ही संभव है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी

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