August 17, 2012

कम्युनिज्म और परिवार


(प्रस्तुत लेख एलेक्सेन्द्र्रा कोलोन्तई ने 1920 में इसी शीर्षक से लिखा था। यह लेख अक्टूबर क्रांति के बाद लिखा गया था। इस लेख में बताया गया है कि समाजवाद किस तरह से महिलाओं को घरेलू दासता से मुक्त कराता है।
मजदूर व कामकाजी महिलाओं की मुक्ति के संदर्भ में यह लेख समझदारी बनाने में मददगार होगा, ऐसी उम्मीद है।-सम्पादक)

उत्पादन में महिलाओं की भूमिका : परिवार पर इसका प्रभाव

क्या कम्युनिज्म के अंतर्गत परिवार मौजूद रहेगा? क्या परिवार का मौजूदा स्वरूप बना रहेगा? ये ऐसे सवाल हैं जो मजदूर वर्ग की बहुत सारी औरतों के साथ-साथ पुरुषों को भी परेशान कर रहे हैं। हमारी आंखों के सामने ही जीवन बदल रहा है। पुरानी आदतें और रीति-रिवाज खत्म हो रहे हैं और सर्वहारा परिवार का समूचा जीवन कुछ इस तरीके से विकसित हो रहा है, जो नया है और अपरिचित सा लगता है और कुछ लोगों की निगाहों में ''विचित्र'' है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मजदूर महिलायें इन सवालों के बारे में सोचना शुरू कर रही है। धयान देने योग्य दूसरा तथ्य यह है कि सोवियत रूस में तलाक को आसान बना दिया गया है।18 सितम्बर 1917 को जारी जन-कमिसार परिषद के आदेश का मतलब है कि तलाक अब कोई ऐसी बात नहीं है जिसे सिर्फ अमीर लोग ही ले सकते हैं। अब से मजदूर महिला को ऐसे पति से, जो उसको पीटता हो और अपने पियक्कड़पन व बर्बर व्यवहार की वजह से उसकी जिंदगी को तकलीफदेह बनाता हो, अलग रहने का अधिकार हासिल करने के लिए महीनों या यहां तक कि सालों तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा। परस्पर सहमति से तलाक लेना अब एक या दो सप्ताह से ज्यादा की बात नहीं रह गयी है। वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट महिलायें इस आसान तलाक का स्वागत करती हैं। लेकिन कुछ अन्य डरी हुई हैं, विशेषतौर पर वे जो अपने पति को रोटी कमाने वाले के तौर पर देखने की अभ्यस्त हैं। उन्होंने अभी तक यह नहीं समझा है कि नारी को समूह में और समाज में, न कि किसी व्यक्तिगत पुरुष में अपना समर्थन हासिल करने का आदी होना चाहिए।
सच्चाई का सामना न करने का कोई कारण नहीं है। पुराना परिवार जिसमें पुरुष सब कुछ था और महिला कुछ भी नहीं थी, ऐसा परिवार जहां औरत की अपनी कोई इच्छा नहीं होती थी, अपने लिए कोई समय नहीं होता था और अपने खुद के लिए कोई पैसा नहीं होता था, ऐसा समय हमारी आंखो के सामने ही बदल रहा है। लेकिन इससे चितित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह महज हमारी अज्ञानता है जो हमें ऐसा सोचने की ओर ले जाती है कि चीजें कभी नहीं बदलेंगी। यह बात कहना निहायत ही गलत होगा कि चीजें जैसी थीं, वैसी ही बनी रहेगी। हमें सिर्फ यह जानना होगा कि अतीत में लोग कैसे रहते थे और कि प्रत्येक चीज बदलती रही है तथा कोई भी ऐसे रीति-रिवाज, राजनीतिक संगठन या नैतिक सिध्दान्त स्थिर नहीं है। स्थिरता अल्लंघनीय नहीं है। इतिहास के दौरान परिवार का ढांचा कई बार बदल चुका है। एक समय था जब आज के परिवार से बिल्कुल भिन्न किस्म के परिवार थे। एक समय ऐसा था जब गोत्र परिवार आम माना जाता था। मां अपने बच्चों, पोतों और पर पोतों के साथ परिवार की मुखिया होती थी। वे साथ-साथ रहते थे और काम करते थे। एक दूसरे काल में पितृसत्तात्मक परिवार नियम था। इस समय पिता की इच्छा ही परिवार के अन्य सभी सदस्यों के लिए कानून थी। यहां तक कि आज भी रूसी गांव के किसानों के बीच इस तरह के परिवार पाये जा सकते हैं। यहां पारिवारिक जीवन की नैतिकता और रीति-रिवाज शहरी मजदूरों की तरह नहीं है। देहातों में वे ऐसे तौर-तरीके लागू करते हैं जिन्हें मजदूर भुला चुका है। परिवार का ढांचा और पारिवारिक जीवन के रीति-रिवाज अलग-अलग देशो में भी अलग-अलग हैं।
कुछ लोगों में, जैसे कि तुर्कों, अरबों और फारसी लोगों में पुरुषों को कई पत्नियां रखने की इजाजत है। कबीलों में औरत अभी भी कई पति रखती हैं। हम इस तथ्य के आदी हो गये हैं कि नौजवान लड़की शादी होने से पहले कुंवारी रहनी चाहिए। फिर भी, ऐसी जन जातियां हैं जो कई प्रेमी रखना गर्व की बात समझती हैं और अपनी भुजाओं व पैरों में उतनी ही संख्या में कंगन और पौंची पहनती हैं। बहुत सारे चलन ऐसे हैं जो हमें अचम्भे में डाल देते हैं, जबकि दूसरे लोगों के लिए वे बिल्कुल आम होते हैं और इसके बरक्स वे हमारे कानूनों और रीति-रिवाजों को पापपूर्ण समझते हैं। इसलिए इस बात से डरने का कोई कारण नहीं है कि परिवार परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा है और कि जो चीजें पुरानी पड़ चुकी हैं और गैर-जरूरी हैं, उनको रद्द किया जा रहा है तथा पुरुष और नारी के बीच नये सम्बन्ध विकसित हो रहे हैं। यहां हमारा काम यह तय करना है कि परिवार की व्यवस्था में कौन से पहलू पुराने पड़ गये हैं और मजदूर व किसान वर्गों के पुरुषों व महिलाओं के बीच ऐसे सम्बन्ध निर्धारित करने हैं जो मजदूरों के नये रूप के जीवन की स्थितियों के साथ सबसे अधिक तालमेल पूर्ण अधिकार और कर्तव्य हों। हमें यह तय करना है कि नये जीवन के साथ कौन से सम्बन्ध कायम करें तथा भू-स्वामियों व पूंजीपतियों की गुलामी और आधिपत्य के काल के अभिशाप बने पुराने कालातीत हो चुके सम्बन्धों को रद्द करें।
अतीत की इन परम्पराओं में से एक ऐसे परिवार की किस्में हैं जिसके शहरी और ग्रामीण मजदूर अभ्यस्त हैं। एक समय ऐसा था जब चर्च में होने वाली शादियों पर आधारित आपस में दृढ़ता से गुंथे हुए अलग-थलग परिवार थे। उस समय ऐसे परिवार इसके सभी सदस्यों के लिए आवश्यक थे। यदि उस समय कोई परिवार नहीं होता तो बच्चों को कौन खिलाता, कपड़ा देता और पालन-पोषण करता तथा उन्हें सलाहें देता। वे दिन बीत चुके, जब अनाथ होना सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना जाता था। उस समय के परिवार में पति कमाता था और अपनी पत्नी व बच्चों का पालन-पोषण करता था। पत्नी गृहस्थी के कार्य में व्यस्त रहती थी तथा यथासम्भव अच्छे तरीके से बच्चों को पालती-पोषती थी। लेकिन पिछले सौ सालों से यह परम्परागत पारिवारिक ढांचा उन सभी देशों में बिखर रहा है जहां पूंजीवाद प्रभुत्व में है और जहां उजरती मजदूर रखने वाली फैक्टरियों और उद्यमों की संख्या बढ़ती जा रही है। जैसे-जैसे जीवन के रीति-रिवाज और नैतिक सिध्दान्त बदल रहे हैं। महिलाओं के श्रम के व्यापक प्रसार ने पारिवारिक जीवन में सर्वाधिक तेजी से परिवर्तन में योगदान किया है। पहले के काल में सिर्फ पुरुष ही रोटी कमाने वाला माना जाता था। लेकिन पिछले 50 या 60 सालों से रूसी महिलाओं (दूसरे पूंजीवादी देशों में और भी ज्यादा समय से) काम की तलाश में परिवार व घर से बाहर जाने को मजबूर हुईं हैं।
पुरुष की मजदूरी परिवार की जरूरतों के लिए नाकाफी होने के चलते महिला को मजदूरी के लिए बाहर जाने और फैक्टरी का दरवाजा खटखटाने को मजबूर किया है। प्रत्येक बीते साल के साथ कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, चाहे वे मजदूर के तौर पर या चाहे फेस वूमैन, क्लर्क, कपड़ा धने वाली या नौकर के तौर पर हों। आंकड़े दिखाते हैं कि प्रथम विश्व युध्द के शुरू होने से पहले यूरोप और अमरीका के देशों में करीब 6 करोड़ महिलायें अपनी जीविका कमा रहीं थीं और युद्ध के दौरान इनकी संख्या भारी तादाद में बढ़ गयी। इसमें लगभग आध शादी-शुदा थीं। यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका पारिवारिक जीवन किस किस्म का रहा होगा। उस औरत का पारिवारिक जीवन किस किस्म का रहा होगा जो कम से कम 8 घण्टे काम के और यदि उसके सफर को जोड़ दिया जाय तो कम से कम 10 घण्टे प्रतिदिन वह घर से बाहर रहती हो। ऐसी स्थिति में वह पत्नी और मां की भूमिका कैसे निभा सकती है? स्वाभाविक तौर पर उसका घर उपेक्षित होगा, बिना मां की देखभाल के उसके बच्चे बढ़ रहे होंगे तथा वे अपना अधिकांश समय गलियों में बिताते होंगे। वे ऐसे वातावरण के सभी खतरों के शिकार बनने को बाधय होंगे। ऐसी औरत, जो पत्नी, मां और मजदूर है, को इन भूमिकाओं को पूरा करने में अपनी समग्र ऊर्जा लगा देना होता है। उसको उतने ही घण्टे काम करना होता है जितना कि उसके पति को किसी फैक्टरी, प्रिंटिंग हाउस या व्यापारिक संस्थान में करना पड़ता है और इससे भी ऊपर जाकर उसे अपने घरेलू कामों के लिए और अपने बच्चों की देखभाल के लिए समय लगाना पड़ता है।
पूंजीवाद ने महिला के कंधों पर कुचल देने वाला बोझ लाद दिया है। उसने महिला को उजरती मजदूर तो बना दिया है लेकिन उसकी गृहणी या मां के बतौर भूमिका को बिल्कुल भी कम नहीं किया है। महिला इस तिहरे बोझ के भार के नीचे दबी हुई है। वह इसकी शिकार है, उसका चेहरा हमेशा आंसुओं से भीगा रहता है। महिला के लिए जीवन कभी भी आसान नहीं रहा है, लेकिन फैक्टरी उत्पादन के इस गहमा-गहमी के पूंजीवादी जुए के नीचे काम करने वाली करोड़ों महिलाओं का जीवन इतना ज्यादा कठिन और बेचैन करने वाला कभी भी नहीं रहा है।
जैसे ही अधिक से अधिक महिलायें काम के लिए बाहर जाती हैं, वैसे ही परिवार टूटने लगते हैं। आप पारिवारिक जीवन की कैसे बात करते हैं जहां पुरुष और महिला अलग-अलग पालियो में काम करते हों और जहां पत्नी को इतना भी समय न मिलता हो कि वह अपने बच्चों के लिए स्वादिष्ट भोजन तैयार कर सके? आप ऐसे माता-पिता की कैसे बात कर सकते हैं जहां मां और पिता, दोनों पूरा दिन बाहर काम करते हों और बच्चों के साथ कुछ भी मिनट बिताने के लिए समय न निकाल पाते हों? पुराने काल में बात बिल्कुल भिन्न थी। मां घर में रहती थी। उसके बच्चे उसके बगल में और उसकी सतर्क निगाहों में रहते थे। आज कामकाजी महिलाओं को सुबह-सुबह फैक्टरी का भोंपू बजते ही तेजी से घर से निकलना होता है और जब शाम को फिर से भोंपू बजता है तो उसे अपने घरेलू कामों के लिए तेजी के साथ दौड़ना पड़ता है। अगली सुबह फिर से जब उसे काम पर तेजी के साथ भागना होता है तब वह नींद की कमी की वजह से थकी होती है। विवाहित कामकाजी महिला के लिए जीवन उतना ही कठोर है जितना कि उसका काम। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उसके पारिवारिक बंधन ढीले पड़ जायें और परिवार का बिखराव शुरू हो जाय। वे परिस्थितियां जो परिवार को एक साथ रखे हुए थीं, वे अब नहीं हैं। परिवार या तो इसके सदस्यों की या समूचे देश की आवश्यकता के बतौर खत्म हो रहा है। पुराना पारिवारिक ढांचा अब महज एक रुकावट है। पुराने परिवार की मजबूती के क्या कारण थे? पहला, क्योंकि पति और पिता परिवार के लिए रोटी कमाने वाला होता था। दूसरा, क्योंकि पारिवारिक अर्थव्यवस्था इसके सभी सदस्यों के लिए आवश्यकता थी, और तीसरा, क्योंकि बच्चे अपने माता-पिता द्वारा पाले-पोसे जाते थे।
अब इस पुराने किस्म के परिवार का क्या बचा हुआ है। पति, जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं, अब अकेले रोजी-रोटी कमाने वाला नहीं रह गया है। पत्नी मजदूरी करने के लिए बाहर काम पर जाती है वह अपनी जीविका खुद कमाती है। अपने बच्चों और सिर्फ कभी-कभार ही नहीं, बल्कि बहुधा अपने पति की भी आर्थिक रूप में सहायता करती है। अब परिवार सिर्फ समाज की बुनियादी आर्थिक इकाई के बतौर और बच्चों की मददगार व शिक्षक के बतौर ही काम करता है। आइए, अब हम इस मसले को ज्यादा विस्तार के साथ देखें और तय करें कि क्या परिवार को इन कार्यभारों से भी मुक्त किया जा सकता है।

घरेलू कार्य आवश्यक नहीं
एक समय ऐसा था जब शहर और गांव के गरीब वर्गों की महिलायें अपना समूचा जीवन घर की चाहरदीवारी के भीतर बितातीं थीं। महिला अपने घर की देहरी के बाहर कुछ नहीं जानती थीं और अधिकांश मामलों में कुछ जानने की इच्छा भी नहीं रखती थीं। आखिरकार उसके खुद के घर में बहुत ज्यादा काम करने को होता था और यह काम सिर्फ परिवार के लिए नहीं बल्कि समग्रता में देश के लिए भी अति आवश्यक और उपयोगी होता था। महिला वह सारा काम करती थी जो आधनिक कामकाजी और किसान औरत को करना होता है लेकिन खाना पकाने, कपड़ा धने, सफाई और मरम्मत करने के अलावा वह ऊन और कपड़ा बुनती थी। पहनने के कपड़े बनाती थी। मोजा बुनती थी और वह लैस बनाती थी और जहां तक उसके संसाधान इजाजत देते थे, वे विभिन्न किस्म के अचार, जैम और जाड़ों के लिए अन्य सामग्री तैयार करती थी और खुद घर के लिए मोमबत्तियां तैयार करती थीं। उसके तमाम कामों की पूरी की पूरी सूची तैयार करना बहुत मुश्किल है। ऐसे ही हमारी माताएं और दादियां करती थीं। यहां तक कि आज भी रेल लाइन और बड़ी नदियों से दूर सुदूर देहाती इलाकों में आप ऐसे लोगों को पा सकते हैं जहां इस किस्म की जीवन प्रणाली बची हुई है और जहां पर की मालकिन तमाम किस्म के उन कामों के भार से दबी हुई है जो काम बड़े शहरों और सघन औद्योगिक इलाकों की कामकाजी महिलाओं ने पहले ही छोड़ दिया है।
हमारी दादियों के समय में सभी घरेलू कार्य आवश्यक और लाभकारी थे। ये परिवार की खुशहाली की गारण्टी थे। जितना अधिक घर की मालकिन अपने को व्यस्त रखती थी, उतना ही बेहतर किसान या दस्तकार के परिवार का जीवन होता था। यहां तक कि गृहणी की गतिविधियों से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का भी फायदा होता था। क्योंकि महिला सिर्फ अपने लिए सूप और आलू पकाने तक ही सीमित नहीं रहती थी (यानी कि परिवार की तात्कालिक जरूरतों को संतुष्ट करने तक) बल्कि कपड़ा, धागा, मक्खन इत्यादि जैसी चीजें भी पैदा करती थी जिन्हें बाजार में माल के बतौर बेचा जा सकता था। प्रत्येक पुरुष चाहे वह किसान हो या मजदूर, ऐसी ही पत्नी पाने की कोशिश करता था जिसके हाथ सोने के हों। क्योंकि वह जानता था कि इस घरेलू श्रम के बिना परिवार नहीं चल सकता था। और इसमें समूचे राष्ट्र का भी हित था क्योंकि महिला और परिवार के अन्य सदस्य जितना ही अधिक काम कपड़ा, चमड़ा और ऊन बनाने के लिए करेंगे (जिनका अधिशेष पास के बाजार में बेचा जाता था) उतना ही अधिक समग्रता में देश की आर्थिक समृद्धि होती थी।
लेकिन इस सभी को पूंजीवाद ने बदल दिया है। पहले की सभी चीजें जो परिवार के दायरे में पैदा की जाती थी, अब वे कार्यशालाओं और फैक्टरियों में बड़े पैमाने पर तैयार की जाती हैं। मशीन ने पत्नी का स्थान ले लिया है, ये सभी उत्पाद पड़ोस की दुकान से खरीदे जा सकते हैं। जबकि पहले प्रत्येक लड़की को मोजों को बुनना सीखना होता था। आजकल कामकाजी महिला खुद कुछ बनाने के बारे में क्या सोच सकती हैं? एक तो उसके पास समय नहीं हैं। समय ही धन है और कोई भी अपना समय अनुत्पादक और बेकार के तरीके से बर्बाद नहीं करना चाहता। शायद ही कोई कामकाजी महिला हो जो खीरे के अचार या अन्य कोई परिरक्षित चीजें बनाना चाहती हो, जबकि ऐसी चीजें दुकान से खरीदी जा सकती हों। यहां तक कि यदि दुकान से खरीदने वाला समान घर में तयार किये गये सामान से खराब गुणवत्ता वाला भी हो तो कामकाजी महिला के पास न तो समय है और न ही ऊर्जा जो इन घरेलू कामों में अपने को खपा सके। सर्वप्रथम वह भाडे क़ी मजदूर है। इस तरह परिवारिक अर्थव्यवस्था क्रमश: सभी घरेलू कामों से वंचित होती जाती हैं। ये घरेलू काम हमारी दादियों के जमाने में परिवार के दायरे के बाहर सोचे भी नहीं जा सकते थे। जो पहले परिवार के भीतर पैदा किया जाता था वह अब फैक्ट्रियों में कामकाजी पुरुषों और महिलाओं के सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किया जाता है।
परिवार अब पैदा नहीं करता सिर्फ उपभोग करता है। सफाई (फर्श की सफाई, ल झाड़ना, पानी गर्म करना, लैम्प की सफाई करना, खाना बनाना) कपड़े धना और परिवार के कपड़ों का रखरखाव करना तथा धलाई ये सभी घरेलू कार्य थे। ये सभी कठिन और थका देने वाले कार्य हैं, जो कामकाजी महिलाओं को फैक्टरी मे अपना समय देने के बाद बाकी सभी समय और ऊर्जा सोख लेते हैं। लेकिन ये कार्य हमारी दादियों द्वारा किये गये कार्य से एक महत्वपूर्ण तरीके से भिन्न हैं। ये ऊपर बताये गये कार्य जो ''परिवार को अभी भी साथ-साथ रखते हैं'' अब राज्य और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए कीमत नहीं रखते क्योंकि वे न तो कोई नया मूल्य पैदा करते हैं और न ही देश की समृध्दि में कोई योगदान करते हैं। गृहणी सुबह से लेकर शाम तक अपने घर की सफाई करने में पूरा दिन व्यतीत कर सकती हैं। वह रोजाना कपड़ों को धकर उन पर इस्त्री कर सकती है और अपनी सीमित आय के भीतर अपने मनचाहे पकवान बना सकती है, तब भी दिन के अंत में वह कोई मूल्य नहीं पैदा करती। अपनी तमाम मेहनत के बावजूद वह ऐसी कोई चीज नहीं तैयार करती जिसे माल माना जा सके। यदि कामकाजी महिला को हजारों साल तक जीना हो तब भी उसे अपना प्रत्येक दिन शुरु से ही शुरु करना होगा। यह हमेशा धूल की नई परत को साफ करना होगा क्योंकि उसका पति हमेशा भूखा आयेगा और उसके बच्चे अपने जूतों में कीचड़ लपेटे हमेशा आयेंगे।
महिलाओं का काम समग्र रूप से समुदाय के लिए कम उपयोगी होता जा रहा है। यह अनुत्पादक होता जा रहा है, व्यक्तिगत घरेलू काम भर रह गया है। यह हमारे समाज को सामूहिक गृह कार्य की ओर ले जा रहा है। कामकाजी महिलाओं द्वारा अपने फ्लैट को साफ करने के बजाय कम्युनिस्ट समाज ऐसे पुरुषों और महिलाओं की व्यवस्था करेगा जिनका काम ही सुबह से कमरों की सफाई करना होगा। बहुत पहले से धनी लोगों की पत्नियों को चिड़चिड़े बनाने वाले घरेलू कामों से मुक्ति मिली हुई थी। कामकाजी महिलायें इनके बोझ से क्यों दबी रहें?...
यहां तक कि पूंजीवाद के अंतर्गत भी ऐसी व्यवस्थायें दिखाई देने लगी है। वास्तव में आध शताब्दी से ज्यादा समय से यूरोप के सभी बड़े शहरों मे रेसत्रां और कैफे की संख्या बढ़ती जा रही हैं। ये बरसात के बाद उगे कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन पूंजीवाद के अंतर्गत सिर्फ धनी लोग ही रेस्त्रां में अपना भोजन ले सकते हैं जबकि कम्युनिज्म के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक रसोई घर और भोजनालय में खाने मे समर्थ होगा। कामकाजी महिला को कपड़े धने के लिए अब अपने को नहीं लगाना होगा या अपनी आंखों को मोजे बुनने और कपडों की सिलाई करने में नहीं फोड़ना होगा। इन सभी कामों को वह प्रत्येक सप्ताह केंद्रित लांड्री में भेजगी और इनको धला हुआ तथा इस्त्री किया हुआ वापस ले आयेगी। इससे उसके काम का बोझ कम हो जायेगा। इसी तरह कपड़ा सिलाई करने वाले विशेष केंद्र होंगे जो उसके सिलाई के काम के घंटे खाली करेंगे और उसको यह अवसर प्रदान करेंगे कि वह अपना समय पढ़ने, मीटिंग में भागीदारी करने तथा संगीत सुनने में लगा सके। इस तरह कम्युनिज्म की विजय के साथ घरेलू काम का बोझ समाप्त हो जायेगा और कामकाजी महिला को निश्चित ही इससे कोई तकलीफ नहीं होगी। कम्युनिज्म उसे घरेलू दासता से मुक्त करेगा और उसके जीवन को और ज्यादा समृध्द व खुशहाल बनायेगा।


बच्चों के पालन पोषण के लिए राज्य जिम्मेवार
लेकिन अब आप यह तर्क कर सकते हैं यदि घरेलू कार्य खत्म भी हो जायं तो भी बच्चों के देखभाल का काम बचा रहता है। यहां भी, 'मजदूरों का राज' परिवार के कामों को समाप्त करने के लिए आगे आयेगा और समाज क्रमश: उन सभी कार्यों को हाथ में ले लेगा जो क्रांति से पहले व्यक्तिगत तौर पर माता-पिताओं के ऊपर थे। क्रांति से पहले भी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का काम माता-पिता के कर्तव्य के बतौर नहीं रह गये थे। जैसे ही बच्चे स्कूल जाने की उम्र में पहुंच जाते थे, माता-पिता ज्यादा आजादी से सांस ले सकते थे क्योंकि वे अपने बच्चों के बौध्दिक विकास के लिए जिम्मेवार नहीं रह जाते थे। लेकिन तब भी बहुत सारी जिम्मेदारियां पूरी करने को बची रहती थीं। बच्चों को भोजन मुहैया कराने, उन्हें जूते और कपड़े खरीदने और इस बात के लिए देखने कि वे एक सक्षम, ईमानदार और कुशल मजदूर के रूप में विकसित हो सकें और समय आने पर अपनी जीविका कमा सकें और बुढ़ापे में माता-पिता को खिला सकें व समय दे सकें, ऐसे काम बचे रहते थे। कुछ ही मजदूरों के परिवार होते थे जो इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में समर्थ होते थे। उनकी कम मजदूरी बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं दे पाती थी और उनके पास कम अवकाश नयी पीढ़ी की शिक्षा पर आवश्यक ध्यान देने से उन्हें रोकता था। यह माना जाता था कि परिवार बच्चों को पालता-पोषता है लेकिन वास्तव में सर्वहाराओं के बच्चे सड़कों पर बढ़ते हैं। हमारे पूर्वज कुछ पारिवारिक जीवन जानते थे, लेकिन सर्वहारा के बच्चे वैसा कुछ भी नहीं जानते। इससे भी बढ़कर माता-पिता की कम आय और दारुण स्थिति जिसमें परिवार को आर्थिक तौर पर धकेल दिया जाता है, अक्सर बच्चों को महज दस साल की उम्र में स्वतंत्र मजदूर के तौर पर काम करने को मजबूर कर दिया जाता है। और बच्चे जब अपना खुद का पैसा कमाना शुरू करते हैं तो वे खुद क अपनी जिंदगी का मालिक मानना शुरू कर देते हैं, तब माता-पिताओं के शब्द और उनकी सलाहें कानून नहीं रह जाते। माता-पिता का प्राधिकार कमजोर होता है और आज्ञाकारिता का अंत हो जाता है। जैसे ही घरेलू कार्य खत्म होता है, वैसे ही बच्चों पर माता-पिता की जिम्मेदारी भी क्रमश: खत्म होती जाती है और अंतत: समाज पूरी जिम्मेदारी ले लेता है।
पूंजीवाद के अंतर्गत सर्वहारा परिवार के ऊपर बच्चे अक्सर भारी और असहनीय बोझ होते हैं। कम्युनिस्ट समाज माता-पिताओं की सहायता में आगे आयेगा। सोवियत रूस में सार्वजनिक शिक्षा और सामाजिक कल्याण की कमिसारियत ने पहले से ही परिवार की मदद के लिए कदम उठाना शुरू कर दिया है। हमने बहुत छोटे बच्चों के लिए घर, क्रेचेज, किण्डर गार्ड, बच्चों की कालोनियां और घर, अस्पताल व बीमार बच्चों के लिए हेल्थ रिसोर्ट, रेस्त्रां, स्कूल में मुफ्त भोजन, पाठयपुस्तकों का मुफ्त वितरण, स्कूल के बच्चों के लिए गर्म कपडे र जूते मुहैया करना शुरू कर दिया है। ये सभी दिखाते हैं कि बच्चों की जिम्मेदारी परिवार से समूह के हाथ में जा रही है।
परिवार में माता-पिताओं द्वारा बच्चों की देखभाल को तीन भागों में बांटा जा सकता है:

(अ) बहुत छोटे बच्चे की देखभाल,
(ब) बच्चे का पालन-पोषण,
(ग) बच्चे की शिक्षा।

पूंजीवादी समाज में भी प्राइमरी स्कूलों में बच्चों की शिक्षा और बाद में माध्यमिक व उच्च शिक्षण संस्थाओं में उनकी शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी हो गयी है। पूंजीवादी समाज में भी मजदूरों की कुछ हद तक आवश्यकताएं, खेल के मैदान, किण्डरगार्डन, खेल समूह इत्यादि प्रावधानों के तहत पूरी होती हैं। मजदूर अपने अधिाकारों के प्रति जितना ही अधिक सचेत होते हैं और वे जितना बेहतर ढंग से संगठित होते हैं। उतना ही अधिक समाज के बच्चों की देखभाल से परिवार को मुक्त करना होगा। लेकिन पूंजीवादी समाज मजदूर वर्ग के हितों को पूरा करने में बहुत दूर तक जाने से डरता है। क्योंकि वह यह सोचता है कि इससे परिवार टूट जायेंगे। पूंजीपति अच्छी तरह से पुराने किस्म के परिवारों से परिचित है, जहां औरत गुलाम होती है और जहां अपनी पत्नी और बच्चों की खुशहाली के लिए पति जिम्मेदार होता है। यह कामकाजी पुरुष और कामकाजी महिला की क्रांतिकारी भावना को कमजोर करने और मजदूर वर्ग की आजादी की इच्छा को कुचलने के संघर्ष में उसका (पूंजीपति वर्ग का) सबसे बड़ा हथियार है। अपने परिवार की जिम्मेदारी के बोझ के नीचे दबा हुआ मजदूर पूंजी के साथ समझौता करने के लिए मजबूर होता है। जब उनके बच्चे भूखे होते हैं तब मां और पिता किसी भी शर्त को मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। पूंजीवादी समाज ने शिक्षा को सही अर्थों में सामाजिक और राज्य का मामला नहीं बनाया क्योंकि सम्पत्ति के मालिक, पूंजीपति वर्ग इसके खिलाफ रहा है।
कम्युनिस्ट समाज का मानना है कि उभरती हुई पीढ़ी की सामाजिक शिक्षा नये जीवन का एक सबसे बुनियादी पहलू है। पुराना परिवार संकीर्ण और तुच्छ था जिसमें माता-पिता एक-दूसरे से झगड़ा करते रहते थे। वे सिर्फ अपने खुद के बच्चों में ही दिलचस्पी रखते थे। ऐसे लोग नये मानव को शिक्षित करने में कत्ताई असमर्थ थे। खेल के मैदान, बाग, घर और अन्य सुविधायें जहां बच्चा योग्य शिक्षक के निर्देशन के अंतर्गत दिन का अधिकांश समय बितायेगा, ऐसे वातावरण को जन्म देगा जो बच्चे को सचेत कम्युनिस्ट के तौर पर विकसित करेगा और जो एकजुटता, साथी जैसा व्यवहार, परस्पर सहायता और समूह के प्रति वफादारी को समझेगा।
तब फिर माता-पिताओं के ऊपर क्या जिम्मेदारी बची रहेगी। जब उनके ऊपर बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा की कोई जिम्मेदारी नहीं रह जाती? बहुत छोटा बच्चा जब वह चलना सीख रहा होता है और मां की स्कर्ट से चिपका रहता है, आप कह सकते हैं कि उसे अपनी मां के देखभाल की जरूरत है। यहां भी कम्युनिस्ट राज्य मजदूर महिला की मदद में है। यहां अब ऐसी कोई महिला नहीं होगी जो अकेली हो। मजदूरों का राज्य प्रत्येक मां को-चाहे वह शादीशुदा हो या गैर-शादीशुदा हो, जब वह अपने बच्चे को दूधा पिला रही हो-मातृत् के साथ समाज में काम से जोड़ने का अवसर देने के लिए प्रत्येक शहर और गांव में, मातृत् घरों, दिन की नर्सरी और अन्य ऐसी ही सुविधाओं की स्थापना के जरिए मदद देगा।
मजदूर महिलाओं को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। कम्युनिस्टों का अपने माता-पिताओं से बच्चे को छीनने का कोई इरादा नहीं है या बच्चे को अपनी मां के दूधा से अलग करने का कोई इरादा नहीं है और न ही यह हिंसात्मक कदमों के जरिए परिवार को नष्ट करने की कोई योजना बना रहा है। ऐसी कोई बात नहीं है। कम्युनिस्ट समाज का उद्देश्य बिल्कुल अलग है। कम्युनिस्ट समाज यह देख रहा है कि पुराने किस्म के परिवार टूट रहे हैं और परिवार का समर्थन करने वाले तमाम पुराने आधार खिसक रहे हैं। घरेलू अर्थव्यवस्था मर रही है और मजदूर वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल करने में या उनको निरंतर भोजन व शिक्षा देने में असमर्थ हो रहे हैं। इस परिस्थिति से माता-पिता और बच्चे दोनों निरंतर परेशान हैं। कम्युनिस्ट समाज कामकाजी महिलाओं और कामकाजी पुरुषों से यह कहता है,'' तुम नौजवान हो, तुम एक-दूसरे से प्यार करते हो, प्रत्येक को खुश रहने का अधिकार है, इसलिए अपने जीवन को जियो, खुशियों से मत भागो, शादी से मत डरो। हालांकि पूंजीवाद के अंतर्गत शादी सही मायनों में दुख की जंजीर थी। बच्चा पैदा करने से मत डरो, समाज को और ज्यादा मजदूरों की जरूरत है और प्रत्येक बच्चे के जन्म पर जश्न मनाओ। तुम्हें अपने बच्चे के भविष्य के बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है। तुम्हारा बच्चा न तो भूख और न ही ठण्ड को जानेगा।''
कम्युनिस्ट समाज प्रत्येक बच्चे का धयान रखता है और उसकी मां को, भौतिक और नैतिक दोनों समर्थन की गारण्टी करता है। समाज बच्चे को भोजन देगा उसका विकास करेगा और शिक्षा देगा। इसी के साथ ही, वे माता-पिता जो अपने बच्चे की शिक्षा में हिस्सेदारी करना चाहते हैं, उन्हें किसी भी तरीके से ऐसा करने से रोका नहीं जायेगा। कम्युनिस्ट समाज बच्चे की शिक्षा में शामिल सभी कर्तव्यों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है लेकिन वह माता-पिता की खुशी को किसी भी तरीके से नहीं छीनता। कम्युनिस्ट समाज की ऐसी ही योजनायें हैं। किसी भी तरीके से परिवार को बलपूर्वक तोड़ने और मां से बच्चे को अलग करने के बतौर उनकी व्याख्या नहीं की जा सकती।
इस तथ्य से पलायन का कोई रास्ता नहीं है। पुराने किस्म के परिवार के दिन बीत चुके हैं। वे परिवार इसलिए नहीं समाप्त हो रहे हैं कि उन्हें राज्य द्वारा ताकत के जरिए नष्ट किया जा रहा है बल्कि इसलिए समाप्त हो रहे हैं क्योंकि उनकी आवश्यकता ही नहीं है। राज्य को (पुराने किस्म के) परिवार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि घरेलू अर्थव्यवस्था अब लाभकारी नहीं है। पुराना परिवार मजदूरों को और ज्यादा उपयोगी व उत्पादक श्रम से अलग करता है। परिवार के सदस्यों को भी पुराने परिवार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि बच्चों के पालन-पोषण का जो काम पहले उनका हुआ करता था, अब अधिकाधिक समूह के हाथों में जा रहा है। पुरुषों और महिलाओं के बीच पुराने सम्बन्धों का स्थान नये सम्बन्ध ले रहे हैं, ऐसे नये सम्बन्ध जो परस्पर प्यार और साथी की भावना से भरे कम्युनिस्ट समाज के दो बराबर सदस्यों के बीच के होते हैं, जिसमें दोनों स्वतंत्र हैं, दोनों स्वाधन हैं और दोनों मजदूर हैं। महिलाओं के लिए अब कोई घरेलू गुलामी नहीं है। परिवार के भीतर अब कोई असमानता नहीं है। महिलाओं को अब जीविका के लिए और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए डरने की कोई बात नहीं है।
कम्युनिस्ट समाज में महिला अपने पति पर नहीं बल्कि अपने काम पर निर्भर रहती है। अब वह अपने पति पर नहीं बल्कि अपने काम की क्षमता पर अपना समर्थन हासिल करती है। अब उसे अपने बच्चों के बारे में बैचेनी की जरूरत नहीं है। मजदूरों का राज उनकी जिम्मेदारी लेगा। विवाह में भौतिक गुणा-भाग के उन सभी तत्वों को समाप्त कर दिया जायेगा, जो पारिवारिक जीवन को पंगु बनाते हैं। विवाह एक-दूसरे को प्यार और विश्वास करने वाले दो व्यक्तियों का मिलन होगा, कामकाजी पुरुषों और कामकाजी महिला के बीच ऐसा मिलन होगा जो एक-दूसरे को समझते हों और अपने चारों ओर की दुनिया को समझते हों। ऐसा विवाह सर्वाधिक खुशी देगा तथा अधिकतम संतोष प्रदान करेगा। अतीत की वैवाहिक गुलामी की बजाय कम्युनिस्ट समाज महिलाओं और पुरुषों को स्वतंत्र मिलन का मौका देता है जो साथी की भावना से भरपूर है और जो इसे प्रेरणा देता है।
एक बार जब श्रम की स्थितियां बदल जाती हैं और कामकाजी महिलाओं की भौतिक सुरक्षा बढ़ जाती है तथा पुराने जमाने में चर्च में होने वाली अटूट शादी और महिलाओ का स्वतंत्र और ईमानदार मिलन ले लेता है। जब विवाह ऐसे होने लगेंगे तब वेश्यावृत्ति भी समाप्त हो जायेगी। इस बुराई-जो मानवता पर एक धाब्बा है और जो भूखी कामकाजी महिला की जलालत है- की अपनी जड़ें माल उत्पादन और निजी सम्पत्ति की संस्था में है। जब एक बार ये आर्थिक रूप खत्म हो जाते हैं तब महिलाओं का व्यापार अपने आप समाप्त हो जायेगा। मजदूर वर्ग की महिलाओं का पुराने परिवार के समाप्त होने पर दुखी होने की जरूरत नहीं है। इसके विपरीत उन्हें नये समाज की सुबह का स्वागत करना चाहिए, जो महिलाओं को घरेलू दासता से मुक्त करेगा। मातृत्व के बोझ को हल्का करेगा और अंत में वेश्यावृत्ति के भयावह अभिशाप का खात्मा करेगा।
वह महिला जो मजदूर वर्ग की मुक्ति के संघर्ष को अपना बना लेती है, उसे यह समझना चाहिए कि अब पुराने सम्पत्ति वाले दृष्टिकोण के लिए कोई जगह नहीं है। पुराना दृष्टिकोण कहता है, ''ये मेरे बच्चे हैं, मैं अपनी मातृत्व की तमाम भावना व प्यार इनको देती हूं और वे तुम्हारे बच्चे हैं, उनसे मेरा कोई सरोकार नहीं है और यदि वे ठण्ड व भूख के शिकार हैं तो मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है। दूसरों के बच्चों के लिए मेरे पास कोई समय नहीं है।'' मजदूर मां को मेरे और तुम्हारे बीच के अंतर को खत्म करना चाहिए। उसे यह हमेशा याद रखना चाहिए कि वे सब हमारे बच्चे हैं, रूस के कम्युनिस्ट मजदूरों के बच्चे हैं।
मजदूरों के राज को लिंगों के बीच नये सम्बन्धों की आवश्यकता है जैसे बच्चों के बारे में मां का एकनिष्ठ प्यार विस्तारित होकर महान सर्वहारा परिवार के बतौर विकसित होना चाहिए। ठीक उसी तरह औरतों की गुलामी पर आधारित अटूट शादी का स्थान प्यार व परस्पर सम्मान से युक्त दो बराबर के सदस्यों का स्वतंत्र मिलन होना चाहिए। व्यक्तिगत और अहंकारी परिवार के स्थान पर मजदूरों का एक महान सार्वभौमिक परिवार विकसित होगा जिसमें पुरुष और महिलाओं के बीच इसी तरह के सम्बन्ध कम्युनिस्ट समाज में होंगे। ये नये सम्बन्ध मानवता को प्यार की सभी खुशियों की गारण्टी करेंगे जो कि व्यापारिक समाज में पूर्णतया अज्ञात है। यह प्यार जीवन साथियों के बीच सही अर्थों में बराबरी पर आधारित होगा तथा स्वतंत्र होगा।
कम्युनिस्ट समाज तेज, स्वस्थ बच्चे और मजबूत, सुखी नौजवान चाहता है। ऐसे नौजवान चाहता है जो अपनी भावनाओं व प्यार में स्वतंत्र हों। समानता, स्वतंत्रता और नये विवाह वाले साथियों के प्यार के नाम पर हम मजदूर और किसान पुरुषों व महिलाओं का आह्वान करते हैं कि वे मानव समाज के पुनर्निर्माण के काम में साहसपूर्वक और विश्वास के साथ अपने को लगायें जिससे कि व्यक्ति को ज्यादा पूर्ण, ज्यादा न्यायसंगत और ज्यादा समर्थ खुशहाली की गारण्टी की जा सके, जिसके वे हकदार हैं। रूस के ऊपर सामाजिक क्रांति का लाल झण्डा जो लहरा रहा है और दुनिया के दूसरे देशों में जिसे लहराने की तैयारी की जा रही है। वह घोषणा करता है कि मानवता जो सदियों से चाहती रही है, वे उस स्वर्ग को जमीन पर उतार ले आयेंगे।




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