(रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-V)
जैसा कि सभी जानते हैं कि 1917 की अक्टूबर क्रांति की विजय ने मजदूर वर्ग के राज्य की नींव रखी। इस क्रांति ने सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही महिलाओं के जीवन में भी एक बुनियादी एवं निर्णायक कायापलट की। जन सेवाओं, शिशु गृहों, किंडर गार्टनों, सामुदायिक भोजनालयों और लाॅण्ड्री आदि की शुरूआत सोवियत सत्ता के पहले साल में ही हो गयी थी। महिलाओं के घरेलू काम के बोझ को कम करने और उनको सामाजिक रूप से उपयुक्त काम देने की दिशा में ये कदम उठाये गये।
लेकिन अतीत द्वारा विरासत में मिले अंधकारमय और उत्पीड़क अवस्था पर विजय- यानी सदियों पुराने सांस्कृतिक पिछड़ेपन और उत्पीड़न के प्रभावों से उबारने का लक्ष्य अत्यन्त कठिनाइयों भरा था।
सोवियत सत्ता ने महिलाओं की सदियों पुरानी दासता को खत्म करने तथा महिला और पुरुष के बीच सम्पूर्ण तथा असली समानता कायम करने के काम को अपना लक्ष्य बनाया। ये सिद्धान्त उन सभी सोवियत कानूनों में रेखांकित होते थे जो महिलाओं की स्थिति और महिला श्रम की परिस्थिति को प्रभावित करते थे।
जारशाही रूस में महिलायें उन सभी राजनीतिक अधिकारों से आम तौर पर वंचित थीं जो उस काल की विशेषता थी तथा इसके साथ ही वे कमोवेश सभी नागरिक अधिकारों से वंचित थीं। उनकी स्थिति उनके पतियों और परिवार के सम्बन्ध में विशेष रूप से अपमानजनक थी। जारशाही कानून के तहत कोई महिला पूरी तरह से अपने पति की गुलाम थी। एक विवाहित महिला को बगैर बंदिश के कहीं आने-जाने का कोई अधिकार नहीं था। उसका पति हर वक्त जब अपना निवास बदलता था तो वह उसका अनुसरण करने को मजबूर थी। उसकी परिसम्पत्तियां उसके पति के पूर्ण कब्जे में होती थीं। वह अपने पति की आज्ञा लेकर ही काम पर जा सकती थी। अगर उसकी शादीशुदा जिंदगी खराब निकल जाये तो उसे अपने भाग्य के भरोसे रहना पड़ता था, क्योंकि उसके पास उसे सुधारने का कोई कानूनी तरीका नहीं था। अगर वह अपने पति को छोड़ देती थी, तो उसके पति को यह अधिकार था कि वह पुलिस की मदद से उसे खोज निकाले। तलाक की मंजूरी केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही मिलती थी और उसके बावजूद भी तलाक लेने की प्रक्रिया में उस औरत को अतिशय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था और अपमानजनक औपचारिकताओं से गुजरने तथा उसे न्यायाधीश तथा पुलिस द्वारा उसकी निजी जिंदगी के बारे में पूरी दखलंदाजी के बाद ही तलाक मिल पाता था। इसके अलावा, एक धनी महिला के अतिरिक्त तलाक लेना आम महिलाओं की पहुंच से बाहर था।
महिलाओं की इस गौण स्थिति का मतलब यह था कि बच्चों पर पिता का पहला अधिकार था। चर्च में की गयी शादी को ही कानूनी मान्यता प्राप्त थी। बगैर कानूनी शादी के बच्चे पैदा करने वाली महिला न तो बच्चे के पिता के खिलाफ कोई कदम उठा सकती थी और न ही उसे खोज सकती थी। इस तरह के ‘गैर कानूनी’ बच्चे के भरण-पोषण का पूरा भार उसी के ऊपर पड़ता था।
सत्ता में आने के शुरूवाती वर्षों में ही सोवियत सरकार ने शादी तथा परिवार के उन सभी कानूनों को ध्वस्त कर दिया जो औरतों की गुलामी पर आधारित थे। सोवियत सत्ता ने एक नयी कानूनी व्यवस्था का निर्माण किया जो विवाह और परिवार में महिलाओं को पूर्ण बराबरी देता था। सोवियत सत्ता ने इसके साथ परिवार को मजबूत तथा टिकाऊ व स्थायी वैवाहिक सम्बन्धों के सिरे को जोड़ दिया जो केवल पति-पत्नी के बराबरी के अधिकारों और आपसी सम्मान पर आधारित था।
सोवियत सत्ता ने पति को परिवार का मुखिया मानने की अवधारणा को समाप्त कर दिया। शादी के बाद किसी महिला को अपने पति का उपनाम लगाना जरूरी नहीं रह गया था। पति और पत्नी, दोनों को व्यवसाय या आजीविका का चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। विवाह के बाद अर्जित की गयी सम्पत्ति को संयुक्त माना जाता था और उसके बंटवारे को लेकर होने वाले किसी भी विवाद को कानूनन सुलझाया जाता था। किसी भी पक्ष के लिए उसके विवाह के पहले की जायदाद उसकी अपनी अलग सम्पत्ति के रूप में बरकरार रहती थी। इस प्रकार, सोवियत सत्ता ने विवाह के स्वार्थपूर्ण मकसद को समाप्त कर दिया था। दहेज के लिए किये जाने वाले विवाह को सोवियत संघ ने असम्भव बना दिया था। सोवियत कानून ने विवाह को नागरिक पंजीकरण के रूप में स्थापित कर दिया था। विवाह को दो पक्षों के बीच का निजी मामला बना दिया गया था। चाहे कोई विवाह धार्मिक रीति रिवाज से हुए हों या नहीं।
जारशाही के जमाने में प्रचलित रीति-रिवाजों के विपरीत सोवियत संघ में विवाह और तलाक दोनों पक्षों का आपसी मामला बना दिया गया था। सोवियत विवाह कानूनों का एक विशिष्ट लक्षण यह था कि तलाक के मामले में पति-पत्नी की निजी जिंदगी में कोई बाहरी दखलंदाजी नहीं होती थी। इसके बावजूद, हालांकि वैवाहिक जीवन बराबरी और स्वेच्छा के सिद्धान्त पर आधारित था तब भी सोवियत सत्ता ने कभी भी विवाह को तुच्छ भावना के रूप में नहीं लिया। सोवियत सत्ता का विश्वास था कि अल्पकालीन सम्बन्ध विवाह के बुनियादी लक्ष्य- यानी एक स्वस्थ परिवार का निर्माण- के रास्ते में विकृति पैदा करता है।
मां के रूप में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून विशेष महत्व के थे। जब बात बच्चों के लालन-पालन और शिक्षा की आती थी, तो सोवियत कानून दोनों अभिभावकों (माता-पिता) को समान अधिकार देता था और उन पर बराबर जिम्मेदारी डालता था। यदि पिता परिवार को त्याग देता था तो ऐसे में राज्य उस पर बच्चों की यथोचित उम्र होने तक उनके भरण-पोषण में योगदान करने को बाध्य करता था। यही करार तब भी लागू होता था जब बच्चे पंजीकृत विवाह से नहीं पैदा होते थे। न्यायाधीश पिता की कमाई के अनुपात में भुगतान हेतु एक नियत राशि तय कर देता था। उस समय के कानून के तहत पिता को बच्चों के निर्वाह के लिए उसकी कमाई का 50 प्रतिशत तक देना पड़ सकता था। एक पिता के लिए बच्चों के पालन-पोषण का पूरा भार मां पर डालना या फिर उसे केवल राज्य के भरोसे छोड़ देना सोवियत राज्य के अंदर एक कानूनी जुर्म माना जाता था।
बच्चों अथवा गर्भवती पत्नियों को त्यागने वाले पुरुषों के खिलाफ लगे सार्वजनिक अभियोेग के तहत मां की सुरक्षा के लिए काफी मदद दी जाती थी। सार्वजनिक मत और इससे भी बढ़कर प्रेस आदि के जरिये सार्वजनिक नैतिकता के कानून का उल्लंघन करने के लिए दोषियों पर सार्वजनिक निंदा अभियान के जरिए एक मुहिम चलायी जाती थी। सोवियत विवाह कानून के तहत यदि विवाह के खात्मे के बाद पूर्व पति या पत्नी, दोनों में से कोई काम करने में असमर्थ हो जाता था तो दुर्बल पक्ष का यह हक बनता था कि वह सामर्थ्यवान पक्ष से मदद प्राप्त करे।
व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों में स्त्री-पुरुष की पूर्ण बराबरी के साथ ही सोवियत संघ में पुरुषों और महिलाओं के लिए सभी राजनीतिक आयामों में भी पूर्ण बराबरी का प्रावधान था। सोवियत संविधान के अनुसार, सत्ता के सर्वोच्च पदों पर चुनने या चुने जाने का अधिकार 18 वर्ष से ऊपर के सभी स्त्री-पुरुषों को प्राप्त था।
लेकिन राजनीतिक और नागरिक अधिकारों में पुरुषों और महिलाओं, दोनों की बराबरी अपने आप में अपर्याप्त थी। महिलाओं को भी अपने अधिकारों का पूरा प्रयोग करने के अवसर, रोजमर्रा की जिंदगी में व्यावहारिक अभिव्यक्ति के तथा वास्तविकता में पुरुषों के समान जमीन पर खड़े होने के अवसर सोवियत राज्य देता था। सोवियत सत्ता यह जानती थी कि महिलाओं की सदियों पुरानी सांस्कृतिक और सामाजिक गैर बराबरी तथा अपने पतियों पर बनी भौतिक निर्भरता से मुक्ति ही उन्हें पुरुषों के साथ बराबरी पर खड़ा कर सकती थी। इसके लिए सोवियत सत्ता ने व्यापक महिलाओं को उद्योगों और अन्य सार्वजनिक गतिविधियों में प्रमुखता से नियोजित करने की योजना को लागू किया था।
सोवियत संघ में महिलाओं के उद्योग जगत में व्यापक प्रवेश की परिस्थितियां तैयार की गयी थीं। महिलाओं की योग्यता को आगे बढ़ाने के लिए सोवियत सत्ता द्वारा प्रयास किये गये। ट्रेनिंग स्कूलों व सार्वजनिक जीवन में पुरुषों के साथ बराबरी की शर्तों के आधार पर महिलाओं की भूमिका को बढ़ाया गया था। महिलाओं को अनुत्पादक घरेलू कार्यों के बोझ से मुक्त किया गया था। इससे उद्योग तथा सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के सामूहिक प्रवेश को संभव बनाने में मदद मिली थी।
सोवियत संघ में महिला मजदूरों के बीच मातृत्व की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मां और बच्चे, दोनों की सेहत ठीक रखने वाली काम की परिस्थितियां निर्मित की जाती थीं। कुछ कामों में जहां स्वास्थ्य के लिए खतरा हो वहां महिलाओं को काम पर नहीं लगाया जाता था।
सोवियत कानून महिला मजदूरों को गर्भावस्था तथा शिशुपालन के लिए छः माह की अनिवार्य छुट्टी देता था। यह कानून उन सभी महिलाओं पर लागू होता था जो उद्योग, कृषि, परिवहन, व्यवसायिक कार्यालयों, सहकारी संगठनों, घरेलू कामों आदि में वेतन प्राप्त करती थीं।
1935 में सामूहिक फार्मों में कार्यरत सभी महिलाओं को गर्भावस्था तथा शिशुपालन के लिए अनिवार्य छुट्टी दी जाती थी। सोवियत श्रम कानूनों की आचार संहिता के अनुसार, माताओं को सामान्य भोजन-अवकाश के अतिरिक्त अपने शिशु को दूध पिलाने के लिए सम्पूरक अवकाश की व्यवस्था थी। (कम से कम हर साढ़े तीन घंटे में एक बार जो कि कम से कम आधे घंटे का होता था) गर्भावस्था और शिशु धारणा के दौरान वेतनों का अनिवार्य भुगतान, मातृत्व सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। चूंकि गर्भावस्था और शिशुपालन के दौरान कामगार को अन्य अवस्था से 9गुना अधिक आराम की जरूरत होती है। अतः सोवियत संघ में सामाजिक बीमाकरण इस बात को सुनिश्चित करता था कि गर्भावस्था और शिशुपालन के दौरान उन सामान्य श्रेणियों की महिला श्रमिकों को जो समान पोस्ट पर एक साल या उससे ज्यादा समय तक काम करती आयी हैं, पूरा वेतन दिया जाये।
सोवियत राज्य में मां और बच्चे की देखभाल केवल कानून द्वारा ही लागू नहीं की गयी थी। राज्य ने संस्थाओं की एक पूरी ऐसी व्यवस्था की थी जो नवजात शिशुओं के कल्याण तथा छोटे बच्चों की सामाजिक शिक्षा के लिए काम करती थी। इनमें शिशुगृह, किंडरगार्टन (तीन से पांच वर्ष तक के बच्चों के स्कूल), खेल के मैदान आदि शामिल थे, जो एक बढ़ रहे बच्चे के स्कूल तक पहुंचने तक उनकी देखरेख करते थे।
इसके अतिरिक्त, जून 1936 में सोवियत सरकार ने मातृत्व की सुरक्षा के लिए एक नया कानून जारी किया था जिसमें महिलाओं के अधिकार और परिवार व विवाह के सवालों से जुड़े सोवियत कानूनों के मूलभूत सिद्धान्तों को और अधिक विस्तारित किया गया था। यह कानून माताओं को राजकीय मदद में यथोचित बढ़ोत्तरी करने का प्रावधान करता था। इस कानून के तहत परिवार त्यागने वाले पिता के लिए अपने बच्चों का खर्च न देने की हालत में दो साल की सजा का प्रावधान था।
लेकिन महिलाओं को मिले ये अधिकार एक साथ नहीं मिले थे। इन अधिकारों को हासिल करने और उन्हें व्यवहार में लागू करने के लिए कई चरणों से गुजरना पड़ा था। प्रथम विश्व युद्ध की भीषण तबाही से गुजरे देश में अक्टूबर क्रांति के बाद, युद्ध कम्युनिज्म, 1918-21 के दौरान महिला मजदूरों समेत सभी औद्योगिक मजदूरों की संख्या में भारी गिरावट आयी थी। यह वह समय था जब सब कुछ गृहयुद्ध की भेंट चढ़ रहा था। सर्वहारा के झुण्ड मोर्चे में तैनात लाल सेना में केन्द्रित थे। कच्चे माल तथा ईंधन के अभाव में कई औद्योगिक इकाइयां बंद पड़ी थीं और सबसे महत्वपूर्ण बात औद्योगिक जिले प्रतिक्रांतिकारियों के कब्जे में थे।
1921 की नयी आर्थिक नीति के बाद आर्थिक जीवन में आम पुनरुत्थान की शुरूवात हुई थी। इसके बाद साल दर साल महिला मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ती गयी थी। इतनी तबाही के बाद महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन क्रमशः बेहतरी की ओर बढ़ता गया था।
महिलाओं के अधिकारों तथा महिला मजदूरों की सुरक्षा के बारे में सोवियत संविधान में इसी तरह के अन्य अनेक प्रावधान किये गये थे। इनके तहत, महिलाओं के लिए पूरी नागरिक व राजनीतिक बराबरी, परिवार की चौमुखी मजबूती तथा उसमें महिलाओं की बढ़ती समान हैसियत, महिलाओं के स्वास्थ्य को हानि न पहुंचाने वाली सभी नौकरियों तथा पेशों में अबाधित प्रवेश, सभी प्रकार की शिक्षा तक मुफ्त पहुंच, महिलाओं के स्वास्थ्य, उनकी मातृत्व की अवस्थाओं, उनके बच्चों की सतर्क सुरक्षा। इस तरीके से महिलाओं के काम के क्षेत्र में सोवियत राज्य सत्ता ने एक मजबूत आधारशिला रखी थी।
इसी तरीके से पुरुष और नारी के बीच पूर्ण वास्तविक समानता और महिलाओं की वास्तविक मुक्ति की दिशा में सोवियत राज्य सत्ता ने अपने कदम बढ़ाये थे।
साभारः अक्टूबर क्रांति के बाद महिलाओं के जीवन में परिवर्तन
जैसा कि सभी जानते हैं कि 1917 की अक्टूबर क्रांति की विजय ने मजदूर वर्ग के राज्य की नींव रखी। इस क्रांति ने सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही महिलाओं के जीवन में भी एक बुनियादी एवं निर्णायक कायापलट की। जन सेवाओं, शिशु गृहों, किंडर गार्टनों, सामुदायिक भोजनालयों और लाॅण्ड्री आदि की शुरूआत सोवियत सत्ता के पहले साल में ही हो गयी थी। महिलाओं के घरेलू काम के बोझ को कम करने और उनको सामाजिक रूप से उपयुक्त काम देने की दिशा में ये कदम उठाये गये।
लेकिन अतीत द्वारा विरासत में मिले अंधकारमय और उत्पीड़क अवस्था पर विजय- यानी सदियों पुराने सांस्कृतिक पिछड़ेपन और उत्पीड़न के प्रभावों से उबारने का लक्ष्य अत्यन्त कठिनाइयों भरा था।
सोवियत सत्ता ने महिलाओं की सदियों पुरानी दासता को खत्म करने तथा महिला और पुरुष के बीच सम्पूर्ण तथा असली समानता कायम करने के काम को अपना लक्ष्य बनाया। ये सिद्धान्त उन सभी सोवियत कानूनों में रेखांकित होते थे जो महिलाओं की स्थिति और महिला श्रम की परिस्थिति को प्रभावित करते थे।
जारशाही रूस में महिलायें उन सभी राजनीतिक अधिकारों से आम तौर पर वंचित थीं जो उस काल की विशेषता थी तथा इसके साथ ही वे कमोवेश सभी नागरिक अधिकारों से वंचित थीं। उनकी स्थिति उनके पतियों और परिवार के सम्बन्ध में विशेष रूप से अपमानजनक थी। जारशाही कानून के तहत कोई महिला पूरी तरह से अपने पति की गुलाम थी। एक विवाहित महिला को बगैर बंदिश के कहीं आने-जाने का कोई अधिकार नहीं था। उसका पति हर वक्त जब अपना निवास बदलता था तो वह उसका अनुसरण करने को मजबूर थी। उसकी परिसम्पत्तियां उसके पति के पूर्ण कब्जे में होती थीं। वह अपने पति की आज्ञा लेकर ही काम पर जा सकती थी। अगर उसकी शादीशुदा जिंदगी खराब निकल जाये तो उसे अपने भाग्य के भरोसे रहना पड़ता था, क्योंकि उसके पास उसे सुधारने का कोई कानूनी तरीका नहीं था। अगर वह अपने पति को छोड़ देती थी, तो उसके पति को यह अधिकार था कि वह पुलिस की मदद से उसे खोज निकाले। तलाक की मंजूरी केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही मिलती थी और उसके बावजूद भी तलाक लेने की प्रक्रिया में उस औरत को अतिशय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था और अपमानजनक औपचारिकताओं से गुजरने तथा उसे न्यायाधीश तथा पुलिस द्वारा उसकी निजी जिंदगी के बारे में पूरी दखलंदाजी के बाद ही तलाक मिल पाता था। इसके अलावा, एक धनी महिला के अतिरिक्त तलाक लेना आम महिलाओं की पहुंच से बाहर था।
महिलाओं की इस गौण स्थिति का मतलब यह था कि बच्चों पर पिता का पहला अधिकार था। चर्च में की गयी शादी को ही कानूनी मान्यता प्राप्त थी। बगैर कानूनी शादी के बच्चे पैदा करने वाली महिला न तो बच्चे के पिता के खिलाफ कोई कदम उठा सकती थी और न ही उसे खोज सकती थी। इस तरह के ‘गैर कानूनी’ बच्चे के भरण-पोषण का पूरा भार उसी के ऊपर पड़ता था।
सत्ता में आने के शुरूवाती वर्षों में ही सोवियत सरकार ने शादी तथा परिवार के उन सभी कानूनों को ध्वस्त कर दिया जो औरतों की गुलामी पर आधारित थे। सोवियत सत्ता ने एक नयी कानूनी व्यवस्था का निर्माण किया जो विवाह और परिवार में महिलाओं को पूर्ण बराबरी देता था। सोवियत सत्ता ने इसके साथ परिवार को मजबूत तथा टिकाऊ व स्थायी वैवाहिक सम्बन्धों के सिरे को जोड़ दिया जो केवल पति-पत्नी के बराबरी के अधिकारों और आपसी सम्मान पर आधारित था।
सोवियत सत्ता ने पति को परिवार का मुखिया मानने की अवधारणा को समाप्त कर दिया। शादी के बाद किसी महिला को अपने पति का उपनाम लगाना जरूरी नहीं रह गया था। पति और पत्नी, दोनों को व्यवसाय या आजीविका का चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। विवाह के बाद अर्जित की गयी सम्पत्ति को संयुक्त माना जाता था और उसके बंटवारे को लेकर होने वाले किसी भी विवाद को कानूनन सुलझाया जाता था। किसी भी पक्ष के लिए उसके विवाह के पहले की जायदाद उसकी अपनी अलग सम्पत्ति के रूप में बरकरार रहती थी। इस प्रकार, सोवियत सत्ता ने विवाह के स्वार्थपूर्ण मकसद को समाप्त कर दिया था। दहेज के लिए किये जाने वाले विवाह को सोवियत संघ ने असम्भव बना दिया था। सोवियत कानून ने विवाह को नागरिक पंजीकरण के रूप में स्थापित कर दिया था। विवाह को दो पक्षों के बीच का निजी मामला बना दिया गया था। चाहे कोई विवाह धार्मिक रीति रिवाज से हुए हों या नहीं।
जारशाही के जमाने में प्रचलित रीति-रिवाजों के विपरीत सोवियत संघ में विवाह और तलाक दोनों पक्षों का आपसी मामला बना दिया गया था। सोवियत विवाह कानूनों का एक विशिष्ट लक्षण यह था कि तलाक के मामले में पति-पत्नी की निजी जिंदगी में कोई बाहरी दखलंदाजी नहीं होती थी। इसके बावजूद, हालांकि वैवाहिक जीवन बराबरी और स्वेच्छा के सिद्धान्त पर आधारित था तब भी सोवियत सत्ता ने कभी भी विवाह को तुच्छ भावना के रूप में नहीं लिया। सोवियत सत्ता का विश्वास था कि अल्पकालीन सम्बन्ध विवाह के बुनियादी लक्ष्य- यानी एक स्वस्थ परिवार का निर्माण- के रास्ते में विकृति पैदा करता है।
मां के रूप में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून विशेष महत्व के थे। जब बात बच्चों के लालन-पालन और शिक्षा की आती थी, तो सोवियत कानून दोनों अभिभावकों (माता-पिता) को समान अधिकार देता था और उन पर बराबर जिम्मेदारी डालता था। यदि पिता परिवार को त्याग देता था तो ऐसे में राज्य उस पर बच्चों की यथोचित उम्र होने तक उनके भरण-पोषण में योगदान करने को बाध्य करता था। यही करार तब भी लागू होता था जब बच्चे पंजीकृत विवाह से नहीं पैदा होते थे। न्यायाधीश पिता की कमाई के अनुपात में भुगतान हेतु एक नियत राशि तय कर देता था। उस समय के कानून के तहत पिता को बच्चों के निर्वाह के लिए उसकी कमाई का 50 प्रतिशत तक देना पड़ सकता था। एक पिता के लिए बच्चों के पालन-पोषण का पूरा भार मां पर डालना या फिर उसे केवल राज्य के भरोसे छोड़ देना सोवियत राज्य के अंदर एक कानूनी जुर्म माना जाता था।
बच्चों अथवा गर्भवती पत्नियों को त्यागने वाले पुरुषों के खिलाफ लगे सार्वजनिक अभियोेग के तहत मां की सुरक्षा के लिए काफी मदद दी जाती थी। सार्वजनिक मत और इससे भी बढ़कर प्रेस आदि के जरिये सार्वजनिक नैतिकता के कानून का उल्लंघन करने के लिए दोषियों पर सार्वजनिक निंदा अभियान के जरिए एक मुहिम चलायी जाती थी। सोवियत विवाह कानून के तहत यदि विवाह के खात्मे के बाद पूर्व पति या पत्नी, दोनों में से कोई काम करने में असमर्थ हो जाता था तो दुर्बल पक्ष का यह हक बनता था कि वह सामर्थ्यवान पक्ष से मदद प्राप्त करे।
व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों में स्त्री-पुरुष की पूर्ण बराबरी के साथ ही सोवियत संघ में पुरुषों और महिलाओं के लिए सभी राजनीतिक आयामों में भी पूर्ण बराबरी का प्रावधान था। सोवियत संविधान के अनुसार, सत्ता के सर्वोच्च पदों पर चुनने या चुने जाने का अधिकार 18 वर्ष से ऊपर के सभी स्त्री-पुरुषों को प्राप्त था।
लेकिन राजनीतिक और नागरिक अधिकारों में पुरुषों और महिलाओं, दोनों की बराबरी अपने आप में अपर्याप्त थी। महिलाओं को भी अपने अधिकारों का पूरा प्रयोग करने के अवसर, रोजमर्रा की जिंदगी में व्यावहारिक अभिव्यक्ति के तथा वास्तविकता में पुरुषों के समान जमीन पर खड़े होने के अवसर सोवियत राज्य देता था। सोवियत सत्ता यह जानती थी कि महिलाओं की सदियों पुरानी सांस्कृतिक और सामाजिक गैर बराबरी तथा अपने पतियों पर बनी भौतिक निर्भरता से मुक्ति ही उन्हें पुरुषों के साथ बराबरी पर खड़ा कर सकती थी। इसके लिए सोवियत सत्ता ने व्यापक महिलाओं को उद्योगों और अन्य सार्वजनिक गतिविधियों में प्रमुखता से नियोजित करने की योजना को लागू किया था।
सोवियत संघ में महिलाओं के उद्योग जगत में व्यापक प्रवेश की परिस्थितियां तैयार की गयी थीं। महिलाओं की योग्यता को आगे बढ़ाने के लिए सोवियत सत्ता द्वारा प्रयास किये गये। ट्रेनिंग स्कूलों व सार्वजनिक जीवन में पुरुषों के साथ बराबरी की शर्तों के आधार पर महिलाओं की भूमिका को बढ़ाया गया था। महिलाओं को अनुत्पादक घरेलू कार्यों के बोझ से मुक्त किया गया था। इससे उद्योग तथा सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के सामूहिक प्रवेश को संभव बनाने में मदद मिली थी।
सोवियत संघ में महिला मजदूरों के बीच मातृत्व की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मां और बच्चे, दोनों की सेहत ठीक रखने वाली काम की परिस्थितियां निर्मित की जाती थीं। कुछ कामों में जहां स्वास्थ्य के लिए खतरा हो वहां महिलाओं को काम पर नहीं लगाया जाता था।
सोवियत कानून महिला मजदूरों को गर्भावस्था तथा शिशुपालन के लिए छः माह की अनिवार्य छुट्टी देता था। यह कानून उन सभी महिलाओं पर लागू होता था जो उद्योग, कृषि, परिवहन, व्यवसायिक कार्यालयों, सहकारी संगठनों, घरेलू कामों आदि में वेतन प्राप्त करती थीं।
1935 में सामूहिक फार्मों में कार्यरत सभी महिलाओं को गर्भावस्था तथा शिशुपालन के लिए अनिवार्य छुट्टी दी जाती थी। सोवियत श्रम कानूनों की आचार संहिता के अनुसार, माताओं को सामान्य भोजन-अवकाश के अतिरिक्त अपने शिशु को दूध पिलाने के लिए सम्पूरक अवकाश की व्यवस्था थी। (कम से कम हर साढ़े तीन घंटे में एक बार जो कि कम से कम आधे घंटे का होता था) गर्भावस्था और शिशु धारणा के दौरान वेतनों का अनिवार्य भुगतान, मातृत्व सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। चूंकि गर्भावस्था और शिशुपालन के दौरान कामगार को अन्य अवस्था से 9गुना अधिक आराम की जरूरत होती है। अतः सोवियत संघ में सामाजिक बीमाकरण इस बात को सुनिश्चित करता था कि गर्भावस्था और शिशुपालन के दौरान उन सामान्य श्रेणियों की महिला श्रमिकों को जो समान पोस्ट पर एक साल या उससे ज्यादा समय तक काम करती आयी हैं, पूरा वेतन दिया जाये।
सोवियत राज्य में मां और बच्चे की देखभाल केवल कानून द्वारा ही लागू नहीं की गयी थी। राज्य ने संस्थाओं की एक पूरी ऐसी व्यवस्था की थी जो नवजात शिशुओं के कल्याण तथा छोटे बच्चों की सामाजिक शिक्षा के लिए काम करती थी। इनमें शिशुगृह, किंडरगार्टन (तीन से पांच वर्ष तक के बच्चों के स्कूल), खेल के मैदान आदि शामिल थे, जो एक बढ़ रहे बच्चे के स्कूल तक पहुंचने तक उनकी देखरेख करते थे।
इसके अतिरिक्त, जून 1936 में सोवियत सरकार ने मातृत्व की सुरक्षा के लिए एक नया कानून जारी किया था जिसमें महिलाओं के अधिकार और परिवार व विवाह के सवालों से जुड़े सोवियत कानूनों के मूलभूत सिद्धान्तों को और अधिक विस्तारित किया गया था। यह कानून माताओं को राजकीय मदद में यथोचित बढ़ोत्तरी करने का प्रावधान करता था। इस कानून के तहत परिवार त्यागने वाले पिता के लिए अपने बच्चों का खर्च न देने की हालत में दो साल की सजा का प्रावधान था।
लेकिन महिलाओं को मिले ये अधिकार एक साथ नहीं मिले थे। इन अधिकारों को हासिल करने और उन्हें व्यवहार में लागू करने के लिए कई चरणों से गुजरना पड़ा था। प्रथम विश्व युद्ध की भीषण तबाही से गुजरे देश में अक्टूबर क्रांति के बाद, युद्ध कम्युनिज्म, 1918-21 के दौरान महिला मजदूरों समेत सभी औद्योगिक मजदूरों की संख्या में भारी गिरावट आयी थी। यह वह समय था जब सब कुछ गृहयुद्ध की भेंट चढ़ रहा था। सर्वहारा के झुण्ड मोर्चे में तैनात लाल सेना में केन्द्रित थे। कच्चे माल तथा ईंधन के अभाव में कई औद्योगिक इकाइयां बंद पड़ी थीं और सबसे महत्वपूर्ण बात औद्योगिक जिले प्रतिक्रांतिकारियों के कब्जे में थे।
1921 की नयी आर्थिक नीति के बाद आर्थिक जीवन में आम पुनरुत्थान की शुरूवात हुई थी। इसके बाद साल दर साल महिला मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ती गयी थी। इतनी तबाही के बाद महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन क्रमशः बेहतरी की ओर बढ़ता गया था।
महिलाओं के अधिकारों तथा महिला मजदूरों की सुरक्षा के बारे में सोवियत संविधान में इसी तरह के अन्य अनेक प्रावधान किये गये थे। इनके तहत, महिलाओं के लिए पूरी नागरिक व राजनीतिक बराबरी, परिवार की चौमुखी मजबूती तथा उसमें महिलाओं की बढ़ती समान हैसियत, महिलाओं के स्वास्थ्य को हानि न पहुंचाने वाली सभी नौकरियों तथा पेशों में अबाधित प्रवेश, सभी प्रकार की शिक्षा तक मुफ्त पहुंच, महिलाओं के स्वास्थ्य, उनकी मातृत्व की अवस्थाओं, उनके बच्चों की सतर्क सुरक्षा। इस तरीके से महिलाओं के काम के क्षेत्र में सोवियत राज्य सत्ता ने एक मजबूत आधारशिला रखी थी।
इसी तरीके से पुरुष और नारी के बीच पूर्ण वास्तविक समानता और महिलाओं की वास्तविक मुक्ति की दिशा में सोवियत राज्य सत्ता ने अपने कदम बढ़ाये थे।
साभारः अक्टूबर क्रांति के बाद महिलाओं के जीवन में परिवर्तन
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