रूस की फरवरी क्रांति का सूत्रपात अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन से व्यापक महिला मजदूरों के प्रदर्शन के साथ हुआ था। इन महिला मजदूरों के साथ बड़े पैमाने पर वे महिलायें भी हिस्सेदारी कर रही थीं, जिनके पतियों को जारशाही ने प्रथम विश्व युद्ध में झोंक रखा था। लेकिन यह अचानक नहीं हुआ था। रूस में क्रांतिकारी महिलाओं को संगठित करने का प्रयास लम्बे समय से चल रहा था।
दरअसल, उन्नीसवीं सदी के अंत में रूस में क्रांतिकारी महिलायें नरोदवाद से प्रभावित होकर क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन में शामिल हुयी थीं। इन शुरूवाती क्रांतिकारी महिलाओं में वेरा फिगनर और सोफिया पेरोव्सकाया थीं। सोफिया पेरोव्सकाया को 1881 में जार अलेग्जेण्डर द्वितीय की हत्या करने के आरोप में चार अन्य क्रांतिकारियों के साथ फांसी दे दी गयी थी। वेरा फिगनर को भी जल्द ही गिरफ्तार कर लिया गया था और वे लम्बे समय के लिए जारशाही की जेल में डाल दी गयी थीं।
इन महिलाओं ने व्यक्तिगत आत्मबलिदान की भावना को प्रदर्शित करते हुए उच्च नैतिक मानदण्ड का परिचय दिया था। ऐसी ही एक महिला वेरा जासुलिच थी, जिन्होंने, 1878 में पेत्रोग्राद के गवर्नर त्रेयोव नाम के जनरल की हत्या करने का प्रयास किया था। इस प्रयास में वेरा जासुलिच सजा से बच गयी थीं और रूस की जनता की निगाह में एक नायिका के बतौर स्थापित हो गयी थीं। वे फिर से गिरफ्तारी से बचने के लिए निर्वासित होकर विदेश चली गयी थीं। विदेश जाने पर उन्होंने क्रांतिकारी आतंकवाद को छोड़कर मार्क्सवाद को अपना लिया था। वेरा जासुलिच ने आतंकवाद को एक अलग-थलग व्यक्तिगत कार्रवाई के बतौर समझ लिया था जिसे वह अनवरत काम करके जन आंदोलन खड़ा करने के काम का कोई विकल्प नहीं मानती थीं।
इसी दौरान महान रूसी साहित्यकार लियो टालस्टाय किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्कूल खोल रहे थे और उनकी दुर्दशा पर लिख रहे थे। इससे प्रभावित होकर 1887 में 18 वर्षीय लड़की नादेज्दा क्रुप्सकाया गरीब लोगों के बच्चों को पढ़ाने लगी थीं। वे अध्ययन करने की प्रक्रिया के दौरान मार्क्सवादी साहित्य के सम्पर्क में आयीं और अपना जीवन उन्होंने मजदूरों को शिक्षित और संगठित करने में लगा दिया था।
1880 के दशक में रूस में उद्योगों का विकास तेज गति से हुआ और इससे महिला मजदूरों की संख्या में वृद्धि होती गयी। इसी दशक के अंत में रूस के विभिन्न शहरों में सामाजिक-जनवादी ग्रुप बनने लगे थे। ऐसे ग्रुपों में पहले सिर्फ पुरुष शामिल होते थे, लेकिन 1890 के अंत में कुछ महिला मजदूर भी शामिल होने लगीं। क्रुप्सकाया इतवार के दिन मजदूर बस्तियों में जाकर स्कूल चलाने लगी थीं। उन्होंने 1891 से लेकर 1896 तक मजदूरों के बीच स्कूल चलाये। ऐसे ही कुछ अन्य क्रांतिकारी महिलायें भी स्कूल चला रही थीं।
मजदूरों को शिक्षित करने के ऐसे ही प्रयासों का प्रभाव यह पड़ा कि 1896 में जब टेक्सटाइल मजदूरों की हड़तालों का सिलसिला चल पड़ा तो क्रांतिकारियों ने अपने छिटपुट प्रयासों को व्यापक उद्वेलन में तब्दील करने का तरीका अपनाया। 1890 के दशक के मध्य में मजदूरों के ग्रुपों के बीच अध्ययन करने के लिए एक पुस्तिका निकाली गयी जिसमें यह बताया गया कि पूंजीवाद के अंतर्गत महिलाओं की स्थिति कितनी खराब है। इस पुस्तिका में महिलाओं की कठिन काम की परिस्थितियों के साथ-साथ बहुत कम मजदूरी तथा काम के स्थान पर यौन उत्पीड़न की चर्चा की गयी थी। इस पुस्तिका में भारी काम का बोझ, अस्वास्थ्यकर व असुरक्षित काम के हालात, मातृत्व सुविधाओं का अभाव और यौन रोग की व्यापक मौजूदगी के कारण ऊंची शिशु मृत्यु दर के बारे में बताया गया था। इस पुस्तिका में वर्गीय शोषण के साथ महिलाओं के उत्पीड़न की चर्चा की गयी थी और यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि पूंजीवाद मशीनों का प्रयोग मजदूरों के हालात को सुधारने के लिए नहीं बल्कि मजदूरी घटाने के लिए काम पाने की होड़ को बढ़ाने और मजदूरों को महिला और पुरुष के बीच, कुशल और अकुशल के बीच फूट डालने के लिए करता है। इस पुस्तिका में बताया गया था कि इससे निपटने का एकमात्र रास्ता एक संयुक्त वर्ग के रूप में एकताबद्ध होकर मालिकों के विरुद्ध महिलाओं के द्वारा ट्रेड यूनियनों में शामिल होने और सक्रिय होकर संघर्ष करने में है।
इसी प्रकार, महिला मजदूरों की परिस्थितियों पर केन्द्रित कुछ और पुस्तिकायें प्रकाशित की गयीं। 1901 में क्रुप्सकाया द्वारा लिखित महिला मजदूर पुस्तिका विदेश में प्रकाशित हुई। 1890 के दशक में नारी प्रश्न पर क्लारा जेटकिन के लेखों का महिला मजदूरों के बीच अध्ययन किया जाता था। एक अन्य रचना चेर्निशेविस्की के उपन्यास ‘‘क्या करें’’ को भी मजदूर ग्रुपों के बीच काफी पढ़ा जाता था। एक महिला, अलेक्जांडा आर्तिउस्वीना जो ऐसे ही मजदूर ग्रुपों में शामिल होती थीं और जिसने 1917 की क्रांति में हिस्सा लिया था, ने इस बारे में लिखा थाः
‘‘जब हम इतवार और सांध्य स्कूलों में जाते थे तो हमने पुस्तकालय से किताबों को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था और हमने चेर्निशेविस्की जो कि एक महान रूसी जनवादी था, के बारे में जाना। हमने उनकी पुस्तक ‘‘क्या करें’’ को गुप्त रूप से पढ़ा और हमने पाया कि वेरा पाव्लोव्ना की तस्वीर भविष्य की महिला की तस्वीर बहुत ज्यादा आकर्षक थी।’’
इसके अतिरिक्त जर्मन सामाजिक जनवादी अगस्त बेबेल की पुस्तक ‘‘नारी और समाजवाद’’ को पढ़ा जाता था। इस पुस्तक ने अलेक्जांद्रा कोल्लोन्ताई पर काफी प्रभाव डाला था। अलेक्जांद्रा कोल्लोन्ताई ने अपने सक्रिय क्रांतिकारी जीवन की शुरूवात 1890 के दशक के अंत में की थी। क्रांति के दौरान उन्होंने महिला मजदूरों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कोल्लोन्ताई के अनुसार, बेबेल की रचना प्रकाशित होने के पहले महिलायें आमतौर पर पूंजीवादी अवस्थिति अपनाया करती थीं। बेबेल का योगदान नारी प्रश्न को वर्गीय आधार पर स्पष्ट पेश करना था। बेबेल ने अपनी रचना में यह दिखाया था कि महिलाओं की स्थिति ऐतिहासिक तौर पर निर्धारित थी न कि प्राकृतिक तौर पर। बेबेल की राय में नारी आंदोलन को आम समाजवादी आंदोलन का हिस्सा होना चाहिए और समाजवादी क्रांति के जरिए ही नारी मुक्त हो सकती है।
उन्नीसवीं सदी के अंत में पूंजीवादी उद्योगों की बढ़ोत्तरी के साथ महिला मजदूरों की संख्या बढ़ रही थी। महिला मजदूरों की मजदूरी पुरुषों की तुलना में बहुत कम होती थी। कोल्लोन्ताई के अनुसार, महिला तिहरे बोझ के नीचे थी। मजदूर, पत्नी और मां के बोझ का वह सामना करती थी। कोल्लोन्ताई ने बताया कि नारी और पुरुष के बीच असमानता मजदूर आंदोलन को कमजोर करती है और मजदूरों का शोषण बढ़ाने में पूंजी की मदद करती है।
जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है कि 1890 के दशक के मध्य से व्यापक मजदूर आंदोलन की शुरूवात हो चुकी थी। टेक्सटाइल उद्योग में मजदूरों का जुझारूपन बढ़ता जा रहा था। टेक्सटाइल और तम्बाकू तथा कन्फेक्शनरी उद्योग के महिला मजदूर उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरूवात में आंदोलन में शामिल हो रही थीं। कारेलिना नाम की महिला मजदूर ने 1893 में छः महीने की सजा काटने के बाद 1896-97 की हड़तालों में शामिल करने के लिए महिलाओं को खींचने में विशेष ध्यान दिया था।
जहां एक तरफ, सामाजिक जनवादी महिला मजदूरों को संगठित करने, उनको मजदूर आंदोलन में एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे वहीं आतंकवादी नरोदनिक संगठन से जुड़े लोग समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी के इर्द गिर्द संगठित हो रहे थे। इन दोनों धाराओं में महिलायें सक्रिय थीं। ऐसी ही एक आतंकवादी क्रांतिकारी महिला एकातेरिना ब्रेश्को-ब्रेश्कोवस्काया थीं। उन्हें ‘‘क्रांति की दादी’’ कहा जाता था। वे बीसवीं सदी की शुरूवात में समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गयी थीं। वे लगातार दुस्साहसवादी कार्रवाइयों की हिमायत करती थीं।
इन दो धाराओं के अतिरिक्त पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन में सक्रिय कुछ महिलायें थीं। इस आंदोलन की शुरूवात परस्पर दानदाता समाज के नाम से गठित एक संगठन के जरिए उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई थी।
जहां एक तरफ सामाजिक जनवादी पार्टी में सक्रिय क्रुप्सकाया, आन्ना कारिया, शुस्काया और कोल्लोनताई जैसी क्रांतिकारी महिलायें थीं जो मजदूर महिलाओं को संगठित करने का प्रयास कर रही थीं। वहीं जुबातोव जो जारशाही खुफिया पुलिस का मुखिया था, मजदूर आंदोलन के भीतर अपनी घुसपैठ बनाने के लिए खुद भी यूनियनें बनाने की कोशिश कर रहा था। यहां यह भी ज्ञात हो कि जारशाही के जमाने में 1905 तक ट्रेड यूनियनें बनाना भी गैर कानूनी था। ऐसी मजदूर महिलायें जिनमें सांगठनिक कुशलता और नेतृत्वकारी क्षमता होती थी, उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता था, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता था, उन्हें पुलिस निगरानी में रखा जाता था या उन्हें निर्वासित कर दिया जाता था। ऐसा पुरुष मजदूरों के साथ और भी ज्यादा किया जाता था। लेकिन ऐसी महिलायें और पुरुष अपने क्रांतिकारी कार्य में लगातार लगे रहते थे। वे एक काम से दूसरे काम में और एक शहर से दूसरे शहर में लगातार जगहें बदलते रहते थे। ऐसी महिलायें जहां भी जातीं वे महिला मजदूरों को संगठित करने के प्रयास में लग जातीं।
यह वह समय था जब मजदूर आंदोलन लगातार आगे बढ़ रहा था। यह वह समय भी था, जब रूस में क्रांतिकारी पार्टी, सामाजिक जनवादी पार्टी का गठन हो गया था और उसकी दूसरी कांग्रेस में उसका दो धड़ों में विभाजन भी हो गया था। इस विभाजन के बावजूद, मजदूर आंदोलन तेज गति से बढ़ रहा था।
तभी 1905 में खूनी रविवार के दिन क्रांति फूट पड़ी थी। हजारों मजदूर पादरी गैपन के नेतृत्व में अपनी खराब स्थिति सुधारने की मांग करने के लिए जार के सामने नतमस्तक होकर गये थे। लेकिन जार की पुलिस ने उनकी प्रार्थना का जवाब गोलियों की बौछार से दिया था। इसके बाद 1905 की क्रांति फूट पड़ी थी। लड़ाकू जहाज पोतेमकिन के नाविक भी मजदूरों के समर्थन में उतर पड़े थे। इस क्रांति में महिला मजदूरों ने बढ़ चढ़ कर भूमिका निभाई थी। कारेलिना नामक मजदूर महिला ने, जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है, 1904-05 में हजार महिलाओं को संगठित किया था। पेत्रोग्राद में कारोलिना ने एक दूसरी महिला आन्ना बोव्दीरेवा के साथ मिलकर महिलाओं को 1905 की क्रांति में सक्रिय तौर पर भूमिका निभाने में नेतृत्व दिया था। 1905 में इन दोनों महिलाओं को 5 अन्य सामाजिक जनवादी महिला मजदूरों के साथ पेत्रोग्राद सोवियत में चुना गया था।
हालांकि 1905 की क्रांति कुचल दी गयी थी। तब भी इसने व्यापक मजदूर आबादी को संगठित करने में तथा विशेष तौर पर महिलाओं को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभायी थी। 1905 की असफल क्रांति ने क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं को व्यापक तौर पर संगठित करने की आवश्यकता को और ज्यादा तल्खी के साथ रेखांकित कर दिया था। 1905-06 के दौरान महिला मजदूरों के तरह-तरह के संगठन बनने लगे थे। न सिर्फ उद्योगों में बल्कि घरेलू काम करने वाली महिला मजदूरों, रेस्तराओं, होटलों, शराबखानों और वेश्यालयों में काम करने वाली महिलाओं को संगठित किया गया। 1906 में पेत्रोग्राद, मास्को और एकातिरानेस्लाव जैसे विभिन्न शहरों में नौकरों की यूनियनें बन गयीं। इन यूनियनों ने विभिन्न तरह के सुरक्षा कानूनों, काम के निश्चित घण्टों, स्वास्थ्य, बेरोजगारी बीमा और मातृत्व की सुविधा इत्यादि की मांग रखीं। 1905 की क्रांति के दौरान हालांकि इन महिला मजदूरों को पिछड़ा समझा जाता था, तब भी इन महिलाओें ने संगठन में न सिर्फ रुचि दिखाई बल्कि खुद की संगठित होने की क्षमता भी प्रदर्शित की।
1907 में जब जारशाही ने क्रांति को नृशंसतापूर्वक कुचल दिया और इसने राजनीतिक व ट्रेड यूनियन गतिविधियों को जो रियायतें दबाव में आकर दी थीं, उन्हें छीनना शुरू कर दिया तो ऐसी गतिविधियों को खुले तौर पर बरकरार नहीं रखा जा सका। लेकिन इन सबकों को भुलाया भी नहीं जा सका। ये सबक आगे चलकर 1917 की दोनों क्रांतियों में काम आये।
यहां यह भी ध्यान में रखने की बात है कि 1905 की क्रांति में उच्च तबके की पूंजीवादी नारीवादी भी सक्रिय थीं। पूंजीवादी नारीवादियों ने मताधिकार की मांग की। वे विभिन्न पेशों के संगठनों की गतिविधियों में शिरकत करती थीं और राजनीतिक लक्ष्यों को लेकर उन्होंने संगठन बनाये थे। ये पूंजीवादी-नारीवादी महिलाओं ने महिलाओं की समानता के लिए अखिल रूसी यूनियन और महिलाओं की प्रगतिशील पार्टी की स्थापना की। इन्होंने ये दोनों संगठन 1905 में गठित किये। इन दोनों संगठनों के अलावा परस्पर दानदाता समिति 1895 से ही अस्तित्व में थी।
इस तरह हम देख सकते हैं कि 1905-07 की क्रांति के दौरान समाज में चौतरफा जागृति ही नहीं बल्कि सामाजिक सक्रियता आ गयी थी। नारी आंदोलन में भी पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन की विभिन्न धारायें सक्रिय हो गयी थीं। पुरानी क्रांतिकारी आतंकवादी धारा की महिलायें भी समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी में सक्रिय थीं। इसी प्रकार मजदूर महिलाओं को संगठित करके क्रांति में उनकी भूमिका बनाने वाली तथा उनके मुक्ति संघर्ष को समाजवाद के लिए संघर्ष का अभिन्न अंग बनाने वाली धारा तेजी से बढ़ रही थी। ये सभी धारायें अपने-अपने वर्ग हितों के अनुसार अपनी मांगें और लड़ने के रास्ते तय कर रही थीं।
जब प्रतिक्रिया का दौर शुरू हुआ तो इन तीनों तरह की नारी आंदोलन की धाराओं के बीच संघर्ष तेज हुआ और तीनों के वर्ग हितों ने उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ करने में अपनी भूमिका निभायी।
(जेन मैकडरमिड और असा हिलयार की पुस्तक ‘मिडवाइफ्स आफ दि रिवोल्युशन’ के आधार पर)
साभारः रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका-I
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