1905 की क्रांति ने मजदूर व अन्य महिलाओं को सदियों पुरानी निद्रा से झकझोर कर जाग्रत कर दिया था। वे राजनीतिक सरगर्मी में जोश-खरोश के साथ हिस्सेदारी कर रही थीं। इसके पहले तक वे सिर्फ अपनी मांगों- आर्थिक मांगों के लिए लड़ती थीं। लेकिन अब वे ‘आम हड़ताल’ में शिरकत कर रही थीं। 1905 के पहले ट्रेड यूनियनें भी कानूनी नहीं होती थीं। अब ट्रेड यूनियनों को कानूनी तौर पर गठित किया जा सकता था। पहली और दूसरी दूमा के चुनाव में उन्हें मताधिकार नहीं मिला था। वे महिलाओं के मताधिकार के लिए संघर्ष में कूद पड़ी थीं। यहीं पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन और सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन के बीच उद्देश्यों को लेकर तीखे मतभेद जाहिर हो गये थे।
पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन जारी आंदोलन को महज मताधिकार और औपचारिक समानता तक सीमित रखना चाहता था। वह ऊपरी तौर पर गैर वर्गीय दिखता था, लेकिन दरअसल वह नारी आंदोलन को पूंजीवादी शोषण से मुक्ति दिलाने तक नहीं ले जाना चाहता था। 1909 में कोल्लोन्ताई का प्रपत्र ‘‘नारी प्रश्न का सामाजिक आधार’’ महिलाओं के एक सम्मेलन में पढ़ा गया। इस प्रपत्र में स्पष्ट तौर पर पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन और सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन के बीच न हल होने वाले विरोध की बात की गयी थी। उन्होंने 1905 की क्रांति और 1904 में जापान के विरुद्ध युद्ध के लिए किसानों के बेटों की फौज में जबरन भर्ती के विरोध में खड़े होने वाले किसान महिलाओं के आंदोलन से सबक निकालते हुए पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन की सीमायें ही नहीं बताईं बल्कि उसे मजदूर-किसान महिलाओं का विरोधी भी सिद्ध किया।
1905-07 की क्रांति को कुचल दिये जाने के बाद जहां एक तरफ मजदूर आंदोलन और इसके साथ ही नारी मुक्ति आंदोलन में तात्कालिक तौर पर गिरावट आ गयी थी, वहीं 1905 की क्रांति में मजदूर महिलाओं की भागीदारी ने उनकी राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ा दिया था। अब वे अधिकाधिक सचेत रूप में महिलाओं को संगठित करने के काम में लग गयी थीं। इस दौरान गांवोें से उजड़ कर आने वाली महिला मजदूरों की संख्या तेज रफ्तार से बढ़ रही थी। उनको पुरुषों के मुकाबले बहुत कम मजदूरी मिलती थी और उन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता था। जब 1912 में लेना की सोने की खान के मजदूरों का कत्लेआम किया गया तो एक बार फिर से मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार दिखाई पड़ने लगा। इस उभार में व्यापक रूप से मजदूर महिलाओं ने भागीदारी की।
प्रथम विश्व युद्ध की शुरूवात में ही जारशाही ने युद्ध में जाने का फैसला ले लिया। युद्ध में जारशाही के शामिल होने के फैसले के साथ ही अंधराष्ट्रवाद की आंधी जोर-शोर से तेज की गयी। जारशाही ने राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति के नाम पर थोड़े दिनों के लिए एक ऊपरी एकता भी पैदा कर ली। बोल्शेविक पार्टी ने शुरू से ही साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध किया और घोषणा की कि साम्राज्यवादी युद्ध से निकलने का एक मात्र रास्ता जारशाही का तख्ता उलटने से ही होकर जाता है।
प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव रूसी महिलाओं के ऊपर अलग-अलग तरह पड़ रहा था। यह उनके वर्ग, हैसियत, राजनीतिक विश्वास और भौगोलिक स्थिति के अनुसार पड़ रहा था। मजदूर और किसान महिलाओं के लिए यह अत्यन्त कठिनाई लाने वाला था। उनके पतियों और पुत्रों को जबरन भर्ती कर लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा रहा था। इससे इन महिलाओं का काम करने के लिए बाहर जाना और तेज हो गया था। ग्रामीण इलाकों में महिलायें ही रह गयी थीं। काम का सारा बोझ उन पर पड़ रहा था।
जारशाही फौज में पुरुषों की जबरन भर्ती से और युद्ध उद्योग में बढ़ रही मजदूरों की मांग ने महिलाओं और नौजवानों को उन उद्योगों की तरफ भी खींचा जो तब तक कुशल पुरुष मजदूरों के एकाधिकार में थे। वैसे अब भी अधिकतर महिला मजदूर अकुशल मजदूर ही थीं। चूूंकि ट्रेड यूनियनें कुशल मजदूरों की रही थीं। और ट्रेड यूनियनों में ज्यादातर कुशल मजदूर पुरुष थे।
1914 में युद्ध की घोषणा होने से पहले ही महिला मजदूरों का अग्रणी हिस्सा राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रहा था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि 1905 की क्रांति ने महिलाओं की राजनीतिक चेतना बढ़ा दी थी। बोल्शेविकों और मेंशेविकों दोनों ने महिलाओं के लिए पत्रिका निकालना शुरू कर दिया। बोल्शेविकों ने राबोत्नित्सा निकालना शुरू किया। इसके सात अंक निकले। इसके सात अंकों में तीन अंक जब्त कर लिए गये। जून, 1914 तक आते-आते राबोत्नित्सा पत्रिका को जारशाही ने बंद कर दिया क्योंकि यह युद्ध का विरोध करती थी। इसके बावजूद पेत्रोग्राद में महिलाओं को संगठित करने का प्रयास बोल्शेविक पार्टी कर रही थी।
1912 में लेना हत्याकाण्ड के बाद मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार आने के बाद महिला मजदूरों की ट्रेड यूनियनों में और हड़ताल आंदोलनों में बढ़ती आ रही थी। 1913 और 1914 में महिला मजदूर राजनीतिक हड़ताल आंदोलनों में अधिकाधिक शिरकत कर रही थीं। इसके अलावा वे रोटी के लिए होने वाले दंगों में भारी तादाद में हिस्सेदारी करने लगी थीं। खासकर, खाद्य संकट और ईंधन की आपूर्ति की कमी से महिला मजदूर और सैनिकों की पत्नियां सबसे ज्यादा प्रभावित हुई थीं। जमाखोरों और मुनाफाखोरों के विरुद्ध सर्वप्रथम ये महिलायें ही आगे आयीं।
युद्ध की घोषणा होने से ठीक पहले पेत्रोग्राद की एक रबर फैक्टरी में हड़ताल हो गयी। इस हड़ताल का कारण जहरीला खाना था जिसको खाने से कई महिला मजदूर बेहोश हो गयी थीं। यह 1914 की घटना थी। इसके बाद फिर इसी रबर फैक्टरी में नवम्बर, 1915 में 39 महिलायें बीमार पड़ गयीं। इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस घटना के दो दिन बाद एक 25 वर्षीय महिला मजदूर बेहोश हो गयी, उसके तीन घण्टे के भीतर 11 अन्य मजदूर बेहोश हो गयीं। इस तरह की घटनायें अन्य उद्योगों में भी हो रही थीं।
पुलिस और मालिकों के लिए इन दुर्घटनाओं का सिर्फ इतना ही अर्थ था कि इनसे उत्पादन में बाधा पड़ रही है। लेकिन 1914 की घटना के बाद जितनी तीखी प्रतिक्रिया महिला मजदूरों ने हड़ताल करके दी थी, उसका असर यह पड़ा कि ऐसी दुर्घटना के बाद महिला मजदूरों की तुरंत उपचार की व्यवस्था की जाने लगी। और उन्हें पाली तक काम करने के बजाय घर भेज दिया जाने लगा। यह असंतोष से बचने का एक उपाय था। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध खिंचता जा रहा था, महिला मजदूर अधिकाधिक संघर्षों में कूदने के लिए बैचेन होती जा रही थीं। बोल्शेविक पार्टी ने महिला मजदूरों की उद्वेलन और संगठन की इस सम्भावना को समझा और उनको सक्रिय करने की योजना को लागू किया।
1915 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च (तत्कालीन रूसी कलेण्डर के अनुसार 23 फरवरी) को ‘‘रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के महिला मजदूरों के संगठन’’ के नाम से जारी एक पर्चे में बताया गया कि युद्ध के दुष्प्रभाव से मजदूर वर्ग के संगठनों को खत्म किया जा रहा है, क्रांतिकारी अखबारों को कुचला जा रहा है, बेटों, पतियों और मजदूरों को पूंजी के फायदे के लिए विदेशी जमीनों में भेजकर मौत के मुंह में धकेला जा रहा है। युद्ध का बोझ महिलाओं के कंधों में डाल दिया गया है। इन सीलन भरे कमरों, ईंधन और भोजन की आप कितनी कीमत अदा करती हैं? यदि कीमतें दोगुनी होने की कोई शिकायत करता है तो सरकार उसको गिरफ्तार तक कर लेती है। इसलिए महिला मजदूरों, चुपचाप सहना बंद करो और अपने पुरुष साथियों की हिफाजत के लिए आगे कार्रवाई करो! जारशाही मुर्दाबाद!
महिला मजदूर कार्रवाई में उतरने लगीं। 9 अप्रैल, 1915 को पेत्रोग्राद की एक कन्फेक्शनरी फैक्टरी की 80 महिला मजदूरों ने अपनी मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग की। इसके एक महीने से थोड़ा ज्यादा समय बाद मई, 1915 में एक टेक्सटाइल फैक्टरी की 450 महिला मजदूरों ने टूल डाउन कर दिया और मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग की। उन्होंने कारखाने से बाहर जाने से भी इंकार कर दिया। इन आंदोलनों में सिर्फ महिला मजदूर ही शामिल थीं। हालांकि बाद में 1916 में ट्राम वर्कर्स के संघर्ष में महिला और पुरुष दोनों मजदूर शामिल थे।
16 दिसम्बर, 1916 को पेत्रोग्राद के गोला बारूद के स्टोर में 996 महिलायें कैण्टीन के पास इकट्ठा होकर मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग करने लगीं। इसमें भी सिर्फ महिला मजदूर ही शामिल थीं।
महिला मजदूरों का जुझारूपन लगातार बढ़ता जा रहा था। इनेसा आरमाण्ड ने लिखा कि युद्ध के दौरान जब भी महिला मजदूरों को किसी भी हड़ताल व प्रदर्शन में शामिल किया जायेगा तभी उसे सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। 1915 में एक पर्चे में बोल्शेविक पार्टी ने अपने अभियानों में महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता तथा उसमें आने वाली कठिनाइयों पर यह कह कर जोर दिया:
‘‘युद्ध में भेजे गये लोगों के परिवारों पर और विशेष तौर पर मजदूरों की पत्नियों पर नजदीकी से ध्यान देना आवश्यक है। मजदूरों की पत्नियों को भोजन आपूर्ति अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। मजदूरी में बढ़ोत्तरी और काम के दिन को कम करने का संघर्ष तभी सम्भव है जब महिला मजदूरों की पूरी भागीदारी हो। इस समय का कार्यभार उनकी वर्ग चेतना के स्तर को उठाना है।
बोल्शेविक पार्टी ने प्रथम विश्व युद्ध को मजदूर वर्ग (जिसमें विशेष तौर पर महिला मजदूर भी शामिल थीं) की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में महत्वपूर्ण माना था। हालांकि 1914 के पहले अनेक महिलाओं ने परिवार को चलाने के लिए काम किया था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में भौतिक चीजों के अभाव के साथ-साथ मोर्चे पर पुरुषों की उच्च मृत्यु दर ने महिलाओं को मजबूर कर दिया था कि वे घर के मुखिया की परम्परागत पुरुषों वाली भूमिका को अपनायें। इससे भी बढ़कर अधिकाधिक महिलायें शहरी मजदूरों में शामिल होती जा रही थीं और उन्हें फैक्टरी के काम की कठोर स्थितियों का सामना करना पड़ रहा था, इसके कारण वे भी अधिकाधिक राजनीतिक सरगर्मियों में हिस्सा लेने की ओर गयीं। इन महिलाओं को वर्ग शोषण के साथ-साथ यौनिक उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता था। युद्ध और अभाव ने उनकी राजनीतिक सक्रियता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
एक तरफ काम की कठिन स्थितियां और लम्बे काम के दिन थे और दूसरी तरफ महिला मजदूरों को भोजन के लिए लम्बी कतारों में घण्टों खड़े रहना पड़ता था। 1915 तक पेत्रोग्राद और उत्तर के शहरों में खाद्यान्न की काफी कमी हो गयी थी। 1916 के अंत तक महिला मजदूरों को दो पालियों में काम करना पड़ता था। तकरीबन वह सप्ताह में 40 घण्टे काम करती थीं। इसके बाद उन्हें लम्बी कतारों में भोजन के लिए खड़ा होना होता था। जहां एक तरफ भोजन की मात्रा और उसका गुण लगातार घटता जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ कीमतें बढ़ती जा रही थीं और वे मजदूरी से बहुत ज्यादा हो जाती थीं। किसी ने अनुमान लगाया था कि मजदूरी बामुश्किल दोगुना बढ़ी होगी जबकि इस दौरान कीमतें कम से कम चार गुनी बढ़ गयी थीं। इसके अतिरिक्त चूंकि अधिकांश महिलायें अकुशल मजदूरों की श्रेणी में रखी जाती थीं, इसलिए उनकी मजदूरी और भी कम होती थी।
सैनिकों की पत्नियों की अत्यन्त कठिन स्थितियां थीं, उनको मिलने वाला भत्ता न सिर्फ अत्यन्त कम था बल्कि उसका भुगतान भी अक्षम व भ्रष्ट नौकरशाही की दया पर निर्भर करता था। जमाखोरी और मुनाफाखोरी के अलावा परिवहन और वितरण प्रणाली भी ध्वस्त हो चुकी थी। इससे महिलाओं को रोटी और ईंधन के लिए शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाना पड़ता था। राशन की कतारों में सुबह तड़के खड़े होने के लिए रात वहीं गुजारनी पड़ती थी। महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों की लम्बी कतारों की परेशानी और महिला मजदूरों की कठिन काम की स्थितियों ने उनकी राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाने में योगदान दिया।
कम से कम 1915 से बोल्शेविक पार्टी ने मजदूर वर्ग के बढ़ते आंदोलनों को, पुरुष और महिला मजदूरों दोनों को सम्बोधित करने पर जोर दिया। वे अपने पर्चों में मांग करने लगे कि 8 घण्टे काम का दिन हो, जारशाही को उखाड़ फेंका जाये और अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की स्थापना हो तथा सारी जमीनें किसानों की हों। ऐसा ही एक पर्चा 14 फरवरी, 1917 को जारी किया गया। इस पर्चे में मजदूरों को सलाह दी गयी कि वे अपने विरोध को मई दिवस जैसे महत्वपूर्ण दिनों में केन्द्रित करें।
बोल्शेविक पार्टी के आलोचक मशहूर मेंशेविक निकोलाई सुखानोव जो 1917 में पेत्रोग्राद में काम करते थे, ने फरवरी क्रांति की पूर्ववेला में बैचेनी की आम मनोदशा को बताया था। उन्होंने आने वाले राजनीतिक तूफान को, जो आम लोगों के बीच चर्चा का विषय था, खारिज कर दिया था। वे अपने को समझदार क्रांतिकारी समझते थे। वे इसे महज कार्यालयों में काम करने वाली ‘‘लड़कियों’’ की ‘‘गप्पबाजी’’ समझते थे। वे सोचते थे कि आखिर इन लड़कियों को क्रांति के बारे में क्या जानकारी है। सुखानोव ने दो टाइपिस्टों को आपस में गप करते हुए सुना कि भोजन की भयावह कमी है और लोग जमाखोरों को खोज रहे हैं और कि गोदामों में हमले हो रहे हैं। क्लर्क लोग भोजन के लिए अंतहीन महिला कतारों की चर्चा कर रही थीं। वे उनके अंदर फैली बैचेनी की चर्चा कर रही थीं। वे महिलाओं के बीच चल रही बहसों और तर्क-वितर्कों की बात कर रही थीं और उन क्लर्क लड़कियों ने निष्कर्ष निकाला कि यह क्रांति की शुरूआत थी।
और यह सचमुच में क्रांति की शुरूआत थी। 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन (उस समय के रूसी कलेण्डर के अनुसार 23 फरवरी के दिन) महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों ने जारशाही को खत्म करने की शुरूवात करके एक नये समाज के निर्माण की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया था।
बोल्शेविक पार्टी ने महिला मजदूरों को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभायी थी, महिला मजदूरों ने फरवरी क्रांति की शुरूवात कर क्रांति में अपनी गौरवशाली भूमिका को सिद्ध कर दिया था। (क्रमशः)
पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन जारी आंदोलन को महज मताधिकार और औपचारिक समानता तक सीमित रखना चाहता था। वह ऊपरी तौर पर गैर वर्गीय दिखता था, लेकिन दरअसल वह नारी आंदोलन को पूंजीवादी शोषण से मुक्ति दिलाने तक नहीं ले जाना चाहता था। 1909 में कोल्लोन्ताई का प्रपत्र ‘‘नारी प्रश्न का सामाजिक आधार’’ महिलाओं के एक सम्मेलन में पढ़ा गया। इस प्रपत्र में स्पष्ट तौर पर पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन और सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन के बीच न हल होने वाले विरोध की बात की गयी थी। उन्होंने 1905 की क्रांति और 1904 में जापान के विरुद्ध युद्ध के लिए किसानों के बेटों की फौज में जबरन भर्ती के विरोध में खड़े होने वाले किसान महिलाओं के आंदोलन से सबक निकालते हुए पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन की सीमायें ही नहीं बताईं बल्कि उसे मजदूर-किसान महिलाओं का विरोधी भी सिद्ध किया।
1905-07 की क्रांति को कुचल दिये जाने के बाद जहां एक तरफ मजदूर आंदोलन और इसके साथ ही नारी मुक्ति आंदोलन में तात्कालिक तौर पर गिरावट आ गयी थी, वहीं 1905 की क्रांति में मजदूर महिलाओं की भागीदारी ने उनकी राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ा दिया था। अब वे अधिकाधिक सचेत रूप में महिलाओं को संगठित करने के काम में लग गयी थीं। इस दौरान गांवोें से उजड़ कर आने वाली महिला मजदूरों की संख्या तेज रफ्तार से बढ़ रही थी। उनको पुरुषों के मुकाबले बहुत कम मजदूरी मिलती थी और उन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता था। जब 1912 में लेना की सोने की खान के मजदूरों का कत्लेआम किया गया तो एक बार फिर से मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार दिखाई पड़ने लगा। इस उभार में व्यापक रूप से मजदूर महिलाओं ने भागीदारी की।
प्रथम विश्व युद्ध की शुरूवात में ही जारशाही ने युद्ध में जाने का फैसला ले लिया। युद्ध में जारशाही के शामिल होने के फैसले के साथ ही अंधराष्ट्रवाद की आंधी जोर-शोर से तेज की गयी। जारशाही ने राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति के नाम पर थोड़े दिनों के लिए एक ऊपरी एकता भी पैदा कर ली। बोल्शेविक पार्टी ने शुरू से ही साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध किया और घोषणा की कि साम्राज्यवादी युद्ध से निकलने का एक मात्र रास्ता जारशाही का तख्ता उलटने से ही होकर जाता है।
प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव रूसी महिलाओं के ऊपर अलग-अलग तरह पड़ रहा था। यह उनके वर्ग, हैसियत, राजनीतिक विश्वास और भौगोलिक स्थिति के अनुसार पड़ रहा था। मजदूर और किसान महिलाओं के लिए यह अत्यन्त कठिनाई लाने वाला था। उनके पतियों और पुत्रों को जबरन भर्ती कर लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा रहा था। इससे इन महिलाओं का काम करने के लिए बाहर जाना और तेज हो गया था। ग्रामीण इलाकों में महिलायें ही रह गयी थीं। काम का सारा बोझ उन पर पड़ रहा था।
जारशाही फौज में पुरुषों की जबरन भर्ती से और युद्ध उद्योग में बढ़ रही मजदूरों की मांग ने महिलाओं और नौजवानों को उन उद्योगों की तरफ भी खींचा जो तब तक कुशल पुरुष मजदूरों के एकाधिकार में थे। वैसे अब भी अधिकतर महिला मजदूर अकुशल मजदूर ही थीं। चूूंकि ट्रेड यूनियनें कुशल मजदूरों की रही थीं। और ट्रेड यूनियनों में ज्यादातर कुशल मजदूर पुरुष थे।
1914 में युद्ध की घोषणा होने से पहले ही महिला मजदूरों का अग्रणी हिस्सा राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रहा था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि 1905 की क्रांति ने महिलाओं की राजनीतिक चेतना बढ़ा दी थी। बोल्शेविकों और मेंशेविकों दोनों ने महिलाओं के लिए पत्रिका निकालना शुरू कर दिया। बोल्शेविकों ने राबोत्नित्सा निकालना शुरू किया। इसके सात अंक निकले। इसके सात अंकों में तीन अंक जब्त कर लिए गये। जून, 1914 तक आते-आते राबोत्नित्सा पत्रिका को जारशाही ने बंद कर दिया क्योंकि यह युद्ध का विरोध करती थी। इसके बावजूद पेत्रोग्राद में महिलाओं को संगठित करने का प्रयास बोल्शेविक पार्टी कर रही थी।
1912 में लेना हत्याकाण्ड के बाद मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार आने के बाद महिला मजदूरों की ट्रेड यूनियनों में और हड़ताल आंदोलनों में बढ़ती आ रही थी। 1913 और 1914 में महिला मजदूर राजनीतिक हड़ताल आंदोलनों में अधिकाधिक शिरकत कर रही थीं। इसके अलावा वे रोटी के लिए होने वाले दंगों में भारी तादाद में हिस्सेदारी करने लगी थीं। खासकर, खाद्य संकट और ईंधन की आपूर्ति की कमी से महिला मजदूर और सैनिकों की पत्नियां सबसे ज्यादा प्रभावित हुई थीं। जमाखोरों और मुनाफाखोरों के विरुद्ध सर्वप्रथम ये महिलायें ही आगे आयीं।
युद्ध की घोषणा होने से ठीक पहले पेत्रोग्राद की एक रबर फैक्टरी में हड़ताल हो गयी। इस हड़ताल का कारण जहरीला खाना था जिसको खाने से कई महिला मजदूर बेहोश हो गयी थीं। यह 1914 की घटना थी। इसके बाद फिर इसी रबर फैक्टरी में नवम्बर, 1915 में 39 महिलायें बीमार पड़ गयीं। इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस घटना के दो दिन बाद एक 25 वर्षीय महिला मजदूर बेहोश हो गयी, उसके तीन घण्टे के भीतर 11 अन्य मजदूर बेहोश हो गयीं। इस तरह की घटनायें अन्य उद्योगों में भी हो रही थीं।
पुलिस और मालिकों के लिए इन दुर्घटनाओं का सिर्फ इतना ही अर्थ था कि इनसे उत्पादन में बाधा पड़ रही है। लेकिन 1914 की घटना के बाद जितनी तीखी प्रतिक्रिया महिला मजदूरों ने हड़ताल करके दी थी, उसका असर यह पड़ा कि ऐसी दुर्घटना के बाद महिला मजदूरों की तुरंत उपचार की व्यवस्था की जाने लगी। और उन्हें पाली तक काम करने के बजाय घर भेज दिया जाने लगा। यह असंतोष से बचने का एक उपाय था। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध खिंचता जा रहा था, महिला मजदूर अधिकाधिक संघर्षों में कूदने के लिए बैचेन होती जा रही थीं। बोल्शेविक पार्टी ने महिला मजदूरों की उद्वेलन और संगठन की इस सम्भावना को समझा और उनको सक्रिय करने की योजना को लागू किया।
1915 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च (तत्कालीन रूसी कलेण्डर के अनुसार 23 फरवरी) को ‘‘रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के महिला मजदूरों के संगठन’’ के नाम से जारी एक पर्चे में बताया गया कि युद्ध के दुष्प्रभाव से मजदूर वर्ग के संगठनों को खत्म किया जा रहा है, क्रांतिकारी अखबारों को कुचला जा रहा है, बेटों, पतियों और मजदूरों को पूंजी के फायदे के लिए विदेशी जमीनों में भेजकर मौत के मुंह में धकेला जा रहा है। युद्ध का बोझ महिलाओं के कंधों में डाल दिया गया है। इन सीलन भरे कमरों, ईंधन और भोजन की आप कितनी कीमत अदा करती हैं? यदि कीमतें दोगुनी होने की कोई शिकायत करता है तो सरकार उसको गिरफ्तार तक कर लेती है। इसलिए महिला मजदूरों, चुपचाप सहना बंद करो और अपने पुरुष साथियों की हिफाजत के लिए आगे कार्रवाई करो! जारशाही मुर्दाबाद!
महिला मजदूर कार्रवाई में उतरने लगीं। 9 अप्रैल, 1915 को पेत्रोग्राद की एक कन्फेक्शनरी फैक्टरी की 80 महिला मजदूरों ने अपनी मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग की। इसके एक महीने से थोड़ा ज्यादा समय बाद मई, 1915 में एक टेक्सटाइल फैक्टरी की 450 महिला मजदूरों ने टूल डाउन कर दिया और मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग की। उन्होंने कारखाने से बाहर जाने से भी इंकार कर दिया। इन आंदोलनों में सिर्फ महिला मजदूर ही शामिल थीं। हालांकि बाद में 1916 में ट्राम वर्कर्स के संघर्ष में महिला और पुरुष दोनों मजदूर शामिल थे।
16 दिसम्बर, 1916 को पेत्रोग्राद के गोला बारूद के स्टोर में 996 महिलायें कैण्टीन के पास इकट्ठा होकर मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग करने लगीं। इसमें भी सिर्फ महिला मजदूर ही शामिल थीं।
महिला मजदूरों का जुझारूपन लगातार बढ़ता जा रहा था। इनेसा आरमाण्ड ने लिखा कि युद्ध के दौरान जब भी महिला मजदूरों को किसी भी हड़ताल व प्रदर्शन में शामिल किया जायेगा तभी उसे सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। 1915 में एक पर्चे में बोल्शेविक पार्टी ने अपने अभियानों में महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता तथा उसमें आने वाली कठिनाइयों पर यह कह कर जोर दिया:
‘‘युद्ध में भेजे गये लोगों के परिवारों पर और विशेष तौर पर मजदूरों की पत्नियों पर नजदीकी से ध्यान देना आवश्यक है। मजदूरों की पत्नियों को भोजन आपूर्ति अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। मजदूरी में बढ़ोत्तरी और काम के दिन को कम करने का संघर्ष तभी सम्भव है जब महिला मजदूरों की पूरी भागीदारी हो। इस समय का कार्यभार उनकी वर्ग चेतना के स्तर को उठाना है।
बोल्शेविक पार्टी ने प्रथम विश्व युद्ध को मजदूर वर्ग (जिसमें विशेष तौर पर महिला मजदूर भी शामिल थीं) की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में महत्वपूर्ण माना था। हालांकि 1914 के पहले अनेक महिलाओं ने परिवार को चलाने के लिए काम किया था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में भौतिक चीजों के अभाव के साथ-साथ मोर्चे पर पुरुषों की उच्च मृत्यु दर ने महिलाओं को मजबूर कर दिया था कि वे घर के मुखिया की परम्परागत पुरुषों वाली भूमिका को अपनायें। इससे भी बढ़कर अधिकाधिक महिलायें शहरी मजदूरों में शामिल होती जा रही थीं और उन्हें फैक्टरी के काम की कठोर स्थितियों का सामना करना पड़ रहा था, इसके कारण वे भी अधिकाधिक राजनीतिक सरगर्मियों में हिस्सा लेने की ओर गयीं। इन महिलाओं को वर्ग शोषण के साथ-साथ यौनिक उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता था। युद्ध और अभाव ने उनकी राजनीतिक सक्रियता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
एक तरफ काम की कठिन स्थितियां और लम्बे काम के दिन थे और दूसरी तरफ महिला मजदूरों को भोजन के लिए लम्बी कतारों में घण्टों खड़े रहना पड़ता था। 1915 तक पेत्रोग्राद और उत्तर के शहरों में खाद्यान्न की काफी कमी हो गयी थी। 1916 के अंत तक महिला मजदूरों को दो पालियों में काम करना पड़ता था। तकरीबन वह सप्ताह में 40 घण्टे काम करती थीं। इसके बाद उन्हें लम्बी कतारों में भोजन के लिए खड़ा होना होता था। जहां एक तरफ भोजन की मात्रा और उसका गुण लगातार घटता जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ कीमतें बढ़ती जा रही थीं और वे मजदूरी से बहुत ज्यादा हो जाती थीं। किसी ने अनुमान लगाया था कि मजदूरी बामुश्किल दोगुना बढ़ी होगी जबकि इस दौरान कीमतें कम से कम चार गुनी बढ़ गयी थीं। इसके अतिरिक्त चूंकि अधिकांश महिलायें अकुशल मजदूरों की श्रेणी में रखी जाती थीं, इसलिए उनकी मजदूरी और भी कम होती थी।
सैनिकों की पत्नियों की अत्यन्त कठिन स्थितियां थीं, उनको मिलने वाला भत्ता न सिर्फ अत्यन्त कम था बल्कि उसका भुगतान भी अक्षम व भ्रष्ट नौकरशाही की दया पर निर्भर करता था। जमाखोरी और मुनाफाखोरी के अलावा परिवहन और वितरण प्रणाली भी ध्वस्त हो चुकी थी। इससे महिलाओं को रोटी और ईंधन के लिए शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाना पड़ता था। राशन की कतारों में सुबह तड़के खड़े होने के लिए रात वहीं गुजारनी पड़ती थी। महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों की लम्बी कतारों की परेशानी और महिला मजदूरों की कठिन काम की स्थितियों ने उनकी राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाने में योगदान दिया।
कम से कम 1915 से बोल्शेविक पार्टी ने मजदूर वर्ग के बढ़ते आंदोलनों को, पुरुष और महिला मजदूरों दोनों को सम्बोधित करने पर जोर दिया। वे अपने पर्चों में मांग करने लगे कि 8 घण्टे काम का दिन हो, जारशाही को उखाड़ फेंका जाये और अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की स्थापना हो तथा सारी जमीनें किसानों की हों। ऐसा ही एक पर्चा 14 फरवरी, 1917 को जारी किया गया। इस पर्चे में मजदूरों को सलाह दी गयी कि वे अपने विरोध को मई दिवस जैसे महत्वपूर्ण दिनों में केन्द्रित करें।
बोल्शेविक पार्टी के आलोचक मशहूर मेंशेविक निकोलाई सुखानोव जो 1917 में पेत्रोग्राद में काम करते थे, ने फरवरी क्रांति की पूर्ववेला में बैचेनी की आम मनोदशा को बताया था। उन्होंने आने वाले राजनीतिक तूफान को, जो आम लोगों के बीच चर्चा का विषय था, खारिज कर दिया था। वे अपने को समझदार क्रांतिकारी समझते थे। वे इसे महज कार्यालयों में काम करने वाली ‘‘लड़कियों’’ की ‘‘गप्पबाजी’’ समझते थे। वे सोचते थे कि आखिर इन लड़कियों को क्रांति के बारे में क्या जानकारी है। सुखानोव ने दो टाइपिस्टों को आपस में गप करते हुए सुना कि भोजन की भयावह कमी है और लोग जमाखोरों को खोज रहे हैं और कि गोदामों में हमले हो रहे हैं। क्लर्क लोग भोजन के लिए अंतहीन महिला कतारों की चर्चा कर रही थीं। वे उनके अंदर फैली बैचेनी की चर्चा कर रही थीं। वे महिलाओं के बीच चल रही बहसों और तर्क-वितर्कों की बात कर रही थीं और उन क्लर्क लड़कियों ने निष्कर्ष निकाला कि यह क्रांति की शुरूआत थी।
और यह सचमुच में क्रांति की शुरूआत थी। 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन (उस समय के रूसी कलेण्डर के अनुसार 23 फरवरी के दिन) महिला मजदूरों और सैनिकों की पत्नियों ने जारशाही को खत्म करने की शुरूवात करके एक नये समाज के निर्माण की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया था।
बोल्शेविक पार्टी ने महिला मजदूरों को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभायी थी, महिला मजदूरों ने फरवरी क्रांति की शुरूवात कर क्रांति में अपनी गौरवशाली भूमिका को सिद्ध कर दिया था। (क्रमशः)
0 comments:
Post a Comment