हिंदी साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारने वाली शख्सियत, मुंशी प्रेमचंद जी के जन्मदिवस पर क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं। मुंशी प्रेमचंद्र जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमहि ग्राम में हुआ था।कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने तत्कालीन इतिहास की रूढ़ीवादी परंपराओं का विरोध करते हुए, मध्यम वर्गीय मजदूरों की, किसानों की, महिलाओं की समस्याओं की यथार्थवादी परंपराओं की नींव राखी। उनकी कहानियां केवल कहानियां नहीं है, हमारे जीवन के अंधेरों को मिटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाली प्रेरणा हैं। मुंशी प्रेमचंद जी ने 20 वी सदी के पूर्वार्ध से लगभग 3 दशक तक मानवीय जीवन में घटित होने वाली तमाम घटनाओं के केवल मानवीय पक्ष को ही नहीं रखा बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन के तमाम पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई। ऐसा लगता है कि मुंशी प्रेमचंद के अंतर्मन की आवाजें उनमें प्रदर्शित हो रही हैं। उनकी आत्मा बोल रही है।
प्रेमचंद्र हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुए है। प्रेमचंद जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न एक सफल कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार है। तत्कालीन सामंती समाज में यद्यपि तकनीकी सुविधाओं का नितांत अभाव था तथापि उनकी कृतियां बोलती हैं। उनकी कृतियों में अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग, शोषण, उत्पीड़न, अन्याय व मानव जीवन के हर पक्ष को उजागर करती है। उनकी कहानियां की सचेत और सजीव हैं। वे परंपरागत, रूढ़िवादी विचारों को झकझोर कर रख देती हैं। कुरीतियों और कुप्रथाओं का प्रेमचंद जी ने अपनी कृतियों में खंडन ही नहीं किया बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है। "साहित्य समाज का दर्पण होता है।" इस उक्ति को सही साबित किया है।
तत्कालीन सामंती समाज में किसानों की दुर्दशा महाजनी कर्ज जाल में डूबे, दबे-कुचले कृषक जीवन को सजीवता से उकेरा है। बंधुआ मजदूरों की मजबूरी का सजीव चित्रण किया है। मुंशी प्रेमचंद जी का साहित्य राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। "दुनिया का अनमोल रत्न" उनकी अनमोल रचना है। वह मानते हैं कि खून का आखिरी कतरा भी वतन की हिफाजत में गिरे, इससे बढ़कर गर्व की बात क्या हो सकती है। देश प्रेम की भावना से युक्त उनकी पांच कहानियों का संग्रह जो सबसे पहले प्रकाशित हुआ, "सोजे वतन", देश का मातम जिसमें आजादी के दीवानों की शहादत का ओजपूर्ण, भावपूर्ण, देशभक्तिपूर्ण अपूर्व वर्णन है। उनकी देशभक्ति से ओतप्रोत इस प्रस्तुति व लोकप्रियता से घबराकर तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी तमाम कृतियों को जप्त कर लिया था। देश प्रेम के मुंशी जी के जज्बे ने अंग्रेजी हुक्मरानों की नींद ही नहीं उड़ाई, नीव भी हिला दी थी। सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने लगभग 300 कहानियां, 15 उपन्यास व 3 नाटक लिखे।उन्होंने समाज की कुरीतियों व कुप्रथाओं के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। उनकी कहानी कफन, इसका जीता जागता उदाहरण है- मालिक!...क्या हुआ रे विश्वा! काहे रो रहा है। गरीबों का खून चूस-चूस कर धन इकट्ठा करने वाले पूंजीपतियों पर करारा व्यंग है। माधव के जरिए सेठ साहूकार पर व्यंग करते हुए, अरे! जीवित रहते जिसे पहन को कपड़ा नसीब नहीं हुआ उसे मरे बाद नए कफन की क्या जरूरत है।
प्रेमचंद जीवन भर राजनीतिक आंदोलनों, गतिविधियों से जुड़े रहे। राजनीतिक पट कथाए उनके साहित्य में खूब देखने को मिलती हैं। "शतरंज के खिलाड़ी" कहानी के जरिए, गुलामी के दौरान भारतीयों में कम होती राजनीतिक चेतना के बारे में प्रेमचंद जी कहते हैं कि विलासिता के रंग में डूबे हुए राजाओं और छोटे-बड़े, अमीर-गरीब की दुर्दशा ने हीं अंग्रेजों को शासन सत्ता पर काबिज होने का मौका दिया।
जमीदारी पर महाजनी शोषण के खिलाफ प्रेमचंद
की कहानी उनकी "पूस की एक रात" किसानों के कर्ज जाल में फंसे होने की मरमानतक
कहानी है। जिसका आति सजीवता पूर्ण चित्रण प्रेमचंद जी ने किया है। वे किसान की बदहाल
होती जिंदगी जीते कहानी के नायक हल्कू बेहद ठंडी, कड़कड़ाती रात में
फटे कपड़े पहने अपनी फसल की सुरक्षा के लिए खेत में पहरा रहा था। उसका कुत्ता गबरु
भी देखभाल करता था। परंतु रात्रि के तीसरे पहर में हल्कू को हल्की सी नींद आ जाने के
कारण पूरे खेत की फसल को नीलगाय चट कर जाती है। सुबह उसकी पत्नी यह सब देख कर भयभीत
हो जाती है और हल्कू से कहती है- अब मालिक का कर्ज और मालगुजारी कैसे चुकाएंगे?
अब दूसरों के खेत में
मजदूरी करनी होगी। आहा: अति अभावग्रस्तता में आदमी किस तरह टूट जाता है। मजदूरी करके
कर्ज की भरपाई करना कितना दुष्कर कार्य है। गरीब किसान मजदूर बनने को मजबूर हो जाता
है।
" नमक का दरोगा" कहानी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवेश पर आधारित अधिकारी वर्ग के शोषण को दर्शाती है। जो धन के लालच में गलत आदमी का साथ देने से नहीं चूकते। प्रेमचंद जी यहां यह बताना चाहते हैं कि किस प्रकार धन के आगे न्याय हार जाता है। तत्कालीन न्याय व्यवस्था पर बेहद करारा व्यंग है। जो आज की न्याय व्यवस्था और सरकारी महकमे में हमें सर्वत्र दिखाई देती है। आज भी प्रेमचंद की कहानी कितनी सार्थक कितनी सही है।
दलित समस्या को उठाती एक कहानी ठाकुर का कुआं समाज में व्याप्त अछूतों की समस्या को इसके माध्यम से उठाया गया है और साथ में नारी समस्या को भी अपनी कहानियों में पटकथा बनाया है। दरअसल मुंशी प्रेमचंद जी समकालीन सामाजिक परिवेश को आवाज देते हुए अपनी कहानियों में समेटते चले हैं। उन्होंने समाज का जीवन की गहराईयों से अध्ययन किया है और अपनी कहानियो में उकेरा है।
गोदान 1936 में लिखा एक कालजई उपन्यास है। इसकी सार्थकता आज भी बरकरार है। इंकलाब का आगाज होने लगा था। रेलवे लाइन बिछने लगी थी। गांव और शहर जोड़े जा रहे थे। भूरी और धनिया की करुण कथा है। इस उपन्यास में प्रेमचंद जी ने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव इस प्रकार पिरोकर रखा है। एक तरफ किसानों का शोषण करने वाला महाजन और पटवारी का गठबंधन है तो दूसरी और शहरों में कंपनी मालिक और दलालों का गठजोड़ है जो मजदूरों के श्रम का दोहन कर रहा है।
गबन 1931 में लिखा एक विशेष
चिंताकुल समस्या पूर्ण जीवन का चित्रण करता है। इसका विषय- टूटते जीवन मूल्यों के अंधेरों
में भटकते मध्यम वर्गीय परिवार की वास्तविकता का भावपूर्ण, मार्मिक चित्रण है।
जहां महिला का पति के जीवन पर विशेष प्रभाव है। इस उपन्यास में नारी समस्या को विशेष
आयाम देते हुए तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ते हुए जनादोलन के प्रति विशेष आकर्षण
को प्रदर्शित करता हुआ मध्यम वर्ग के बीच आज भी देखने को मिलता है।
प्रेमचंद्र जी का साहित्य समूचे हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा को नई दिशा प्रदान करने वाला है। सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत इस उपन्यास में नारी पराधीनता, दहेज प्रथा, वेश्यावृत्ति संबंधी समस्याओं को चित्राअंकित किया गया है। मध्यम वर्गीय परिवारों की आर्थिक और सामाजिक जीवन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है। आज हम देखते हैं कि वेश्यावृत्ति कॉल-गर्ल के रूप में आज भी बड़े पैमाने पर समाज में व्याप्त है। दहेज तो समाज में पूर्व के समान कितनी ही जिंदगियों को लील चुका है। नारी का एक बड़ा वर्ग आज भी पराधीनता का जीवन जीने को मजबूर हैं। तत्कालीन समाज की तमाम अच्छाइयों और बुराइयों का चित्रांकन है जो आज भी हर जगह दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचंद के उपन्यास में दिखाई देता है।
बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक भारत में फैली कुरीतियों, पाखंड, महाजनी व्यवस्था, गरीबी, बदहाली, क्रांतिकारी आंदोलन व राजनीतिक और आर्थिक जीवन के हर पहलू पर, हर समस्या पर अपनी लेखनी चलाई। भारतीय परंपराओं के सजग वाहक बन कर अपना दायित्व निभाया। उनका साहित्यिक जीवन की तमाम समस्याओं की गहराइयों का मानो उन्होंने स्वयं अनुभव किया। प्रेमचंद जी को याद करना उन चुनौतियों का अनुभव करना है जिनसे भारतीय समाज लंबे समय से जूझ रहा है और आज भी उन चुनौतियों का हल ढूंढ रहा है। दलितों की समस्या, नारी जीवन की तमाम समस्याएं, दहेज-प्रथा, विधवा-विवाह, बेमेल विवाह, मजदूर-किसान, रिश्वतखोरी, अन्याय, धार्मिक पाखंड, मानवीय मूल्यों का खत्म होना, ऐसे ही तमाम सारे प्रश्न हमारे जीवन में आज भी मुंह बाए खड़े हैं। यही सब कारण है कि प्रेमचंद जी की प्रासंगिकता आज भी पढ़ने वाले के विचारों को झकझोर कर रख देती है। उनकी सोच तत्कालीन समाज को लेकर जिस तरह से उन्होंने अपने साहित्य में उठाया है, मजबूती के साथ, दृढ़ता के साथ वे निश्चित तौर पर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जहां वर्ण, जाति, धर्म से ऊपर उठकर सबका सम्मान हो। वह समाज जहां सामाजिक बराबरी हो, स्त्री और पुरुष को समान शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता और अवसर प्राप्त हो सके। वे किसी भी प्रकार की छुआछूत के विरोधी थे जो आज भी समाज में व्याप्त है। जो आए दिन देखने को मिलती है- जैसे आजमगढ़ के गोधोरा में जिला पंचायत के चुनाव ने अन्याय को ना सहकर न्याय की मांग करने के बदले पुलिस में हैवानियत का नंगा नाच दलित महिलाओं के साथ खेला है। ऐसे ही हम देखते हैं आज किसान कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे लंबे समय से आंदोलनरत हैं। प्रेमचंद जी का कहना था किसान, दलित और महिलाएं देश के विकास के लिए धुरी के समान है और बार-बार जगह-जगह इस बात को दोहराया है कि इन के विकास के बिना देश के विकास की कल्पना बेमानी है। प्रेमचंद जी ने समाज के हर शोषित-उत्पीड़ित जन की आवाज बुलंद की है। उनके पात्र आज भी समाज में जिंदा है। हमें अपने आसपास पास में दिख जाते हैं। एक तरफ वे शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के लिए आवाज उठाते हैं तो दूसरी ओर शोषित-उत्पीड़ित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। कहीं वह सोई मानवता को आवाज देकर गहरी नींद से जागृत करने का काम करते दृष्टिगोचर होते हैं। आमजन को नायक बनाकर सच्चे रूप में जनतंत्र को स्थापित करना चाहते हैं। मानवता के पथ प्रदर्शक हैं और जब तक यह पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी तब तक मुंशी प्रेम चंद्र जी के साहित्य की प्रासंगिकता बनी रहेगी। कालजई, कलम के जादूगर, उपन्यास सम्राट प्रासंगिक बने रहेंगे।
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