प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के अब पूरे सौ वर्ष बीत चुके हैं। यह युद्ध दुनिया के एक बड़े हिस्से में लड़ा गया और दुनिया की सारी बड़ी शक्तियों ने इसमें भाग लिया। यह युद्ध अपनी नृशंसता और तबाही में अप्रतिम था। ऐसा दुनिया ने अभी तक नहीं देखा था। इसमें नये-नये हथियार और यंत्र इस्तेमाल किये गये। टैंक, हवाई जहाज, रासायनिक गैस इत्यादि इसमें आते हैं। बहुत बड़े पैमाने के विध्वंस के साथ इसमें मानव क्षति भी पहले के मुकाबले अकल्पनीय थी। इसमें करीब एक करोड़ लोग मारे गये और पांच करोड़ लोग घायल हुए। यह यु़द्ध हर मायने में इतना नया और विध्वंसक था कि लोगों को इसे सही मायने में समझ पाने में ही सालों लग गये। पांच साल की भयंकर तबाही के बाद जब युद्ध समाप्त हुआ और इसी बीच रूस के मजदूर वर्ग ने लेनिन के नेतृत्व में माक्र्सवादी विचारधारा को अपनाते हुए रूस में क्रांति कर दी और वहां मजदूर वर्ग सत्ता पर काबिज हो गया।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर एक नयी ताकत दुनिया के दृश्य पटल पर आई। यह थी समाजवादी खेमे की मौजूदगी। यदि प्रथम विश्व युद्ध ने रूस में क्रांति को जन्म दिया था तो द्वितीय विश्व युद्ध ने पूर्वी यूरोप के कई देशों समेत वियतनाम, कोरिया व चीन में समाजवाद कायम किया। इस समाजवादी खेमे और अन्य देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने इतनी ताकत हासिल की कि 1950 के दशक में वास्तव में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अपनी व्यवस्था के खात्मे को लेकर भयभीत हो गये।
इतिहास हमें यह बताता है कि यदि साम्राज्यवादी कभी बड़े पैमाने का आपसी युद्ध या तीसरा विश्व युद्ध शुरु करते हैं तो उसका केवल एक परिणाम निकलेगा- वैश्विक क्रांति और सारी दुनिया से पूंजीवाद, साम्राज्यवाद का सफाया। इसलिए किसी नये विश्व युद्ध का हर स्तर पर तत्परता से विरोध करते हुए भी मजदूर वर्ग को इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है। यह पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की कब्र साबित होगा।
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