कोविड-19 कोरोना महामारी की इस आपदा को मोदी सरकार ने पूंजीपति वर्ग के लिए आपदा में अवसर तलाशा है। मोदी सरकार ने मजदूर-मेहनतकश आवाम पर चौतरफा हमला बोला है। इस देशभक्त सरकार ने अधिकतर सरकारी संस्थानों को निजी हाथ में देने का काम किया तो वही शिक्षा में सुधार के नाम पर नई शिक्षा नीति लागू की गई। 44 श्रम कानूनों को चार श्रम संहिता में बदल डाला। हमारे मजदूर भाइयों ने अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष कर 1926 में ट्रेड यूनियन एक्ट हासिल किया था जिसे सरकार ने निष्प्रभावी करने का काम किया है।इस कोरोना महामारी के चलते सैकड़ों निर्दोष लोग अस्पतालों में बेड व ऑक्सीजन के अभाव में मारे जा रहे हैं। उन्हें सम्मानजनक अंतिम संस्कार तक मुहैय्या नहीं हो रहा है। ऐसे वक्त में दिल्ली के बॉर्डर पर जमे किसानों का संघर्ष सरकारी षड़यंत्रों व महामारी का मुकाबला करते हुए और फौलादी बन रहा है।
इस आंदोलन ने देशभक्त सरकार के चेहरे के पिछे छुपे खुखार पिचासु चेहरे को जनता के समाने खोल दिया है। इस आंदोलन ने सरकार के अंधराष्ट्रवाद-सांप्रदायिक उन्माद सरीखे जहरीले हत्यारों को भोथरा बनाने का, उनका असर कम करने का काम किया। इसने मोदी सरकार की वर्गीय पक्षधरता को बच्चे- बच्चे के सामने बेनकाब कर दिया। साथ ही सांप्रदायिक वैमनस्य के बजाय हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ाने का काम किया। संघर्ष के मैदान में कूदे हुए किसानों ने बहुत कुछ बार-बार सहा हो लेकिन सबसे बड़ा दुख अपने साथियों को खोने का था। अब तक लगभग 300 से ज्यादा किसान आंदोलन में शहीद हुए हैं। तमाम दमन को झेलते हुए किसान दिल्ली पहुंचे और वहां टिके रहने के लिए उन्हें बार-बार दमन का सामना करना पड़ा।
आखिर क्या कारण है कि मोदी सरकार अपने काले कृषि कानूनों को वापस लेने को तैयार नहीं हैं। क्यों वह पीछे हटना नहीं चाहती।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वित्तीय पूंजी नहीं चाहती है कि कानून वापस लिए जाएं। देशी-विदेशी एकाधिकारी घराने अंबानी-अडानी नहीं चाहते कि यह कानून वापस लिए जाएं।
यह काले कृषि कानून ही काली नई आर्थिक नीतियों का एक भाग है। जो पिछले तीन दशकों में एक-एक कर लागू की जाती रही है। यह काले कृषि कानून उन समझौते-निर्देशों के हिस्से हैं जो समय-समय पर साम्राज्यवादी संस्थाओं विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक द्वारा थोपे गए हैं।
यह काले कृषि कानून भारत की संसद में पास करवाए जा सके इसके लिए इसके इन साम्राजवादी संस्थाओं, देशी-विदेशी वित्तिय महाप्रभुओं और बड़े-बड़े एकाधिकारी घरानों ने हिंदू फांसीवाद को पहले सत्तासीन किया और फिर उसे वह करने दिया जो उसके मंसुबों को पूरा करने के लिए भारत में करना चाहते थे। हिंदू फासीवाद और वित्तीय पूंजी का गठजोड़ 2014 में आम चुनाव से पहले कायम हुआ था। इस गठजोड़ ने एक-दूसरे के हितों की पूर्ति के लिए भारत को लगभग वही पहुंचाना शुरू कर दिया जहां से पिछली सदी के तीसरे दशक में इटली, जर्मनी थे। हिटलर मुसोलिनी के पीछे चंद वित्तीय घराने थे। और ठीक उसी तरह मोदी के उत्थान के पीछे भी चन्द वित्तिय घराने हैं।
किसान आंदोलन का सामना भारत के इतिहास में अभूतपूर्व ताकत से हो रहा हैं। यहां ऐसी ताकत सामने हैं जो पूंजी की ताकत, राज्य की ताकत और हिंदू फांसीवादी संगठन से लेकर उनकी सेवा करने वाला मीडिया है।इस ताकत को किसान आंदोलन ने चुनौती दी है। भारत के इतिहास में किसानों ने एक से बढ़कर एक संघर्ष रहे हैं। इन संघर्षों में किसानों का सामना घोर प्रतिक्रियावादी ताकतों से हुआ है।
किसान आंदोलन की जीत हिंदू फासीवाद और वित्तीय पूंजी के गठजोड़ की हार होगी परंतु यह उनको और खूंखार और हमलावर भी बनाएगी। यह हार खाने के बाद और निर्लज्जता और धूर्तता और क्रूरता का परिचय देंगे। ऐसे में जरुरत बनती है कि भारत के मजदूर-किसान-अन्य शोषित- उत्पीड़ित एकजुट होकर फासीवाद, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के पूर्ण खात्मा के लिए आगे आए व मजदूर-मेहनकशों का समाज समाजवाद की स्थापना की जाएं।
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