8 मार्च महिला मुक्ति के लिए संघर्ष का प्रतीक दिन है। 8 मार्च, उन मजदूर महिलाअों का दिन है, जिन्होंने अपने मजदूर साथियों के साथ मिलकर 8 घंटे काम, मताधिकार तथा महिलाअों के अन्य अधिकारों के लिए संघर्ष किया। तब से लेकर आज तक यह संघर्ष लगातार जारी है।
शासक वर्ग की सारी लफ्फाजी के बावजूद महिलायें शोषित-उत्पीडि़त हैं। दोहरी गुलामी में जकड़ी हुई हैं। लेकिन इस जकड़न से मुक्ति पाने की छटपटाहट भी बढ़ती जा रही है। कामगार महिलाअों ने अपने जुझारू संघर्ष के दम पर शासक वर्ग के कठोर पंजें से अपने लिए बहुत से अधिकार छीने। जिसके कारण पुराने सामन्ती समाज की तुलना में महिलाअों की स्थिति काफी हद तक सुधरी है। लेकिन आज भी घोषित तौर पर बराबरी व कानूनी समानता के बावजूद वास्तव में महिलायें बराबरी हासिल नहीं कर पाई हैं।
पूंजीवाद ने महिलाअों को पितृसत्ता से तो मुक्त नहीं किया लेकिन उन्हें सबसे सस्ते मजदूर के रूप में इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। घरों से निकलकर कारखानों में काम करने के बावजूद वास्तव में महिलाअों की स्थिति में कोई खास अंतर नहीं आया। पूंजीवाद के शुरुआती दौर में महिलायें बहुत कम वेतन पर अंधेरी, सीलन भरी कोठरियों में 16-16 घंटे काम करती थीं, जो बीमारियों का घर होती थीं। ये महिलायें युवावस्था में ही मरने की स्थितियों में पहुंच जाती, उनका अौसत जीवन मुश्किल से 36 वर्ष का होता था। अौद्योगिक क्रांति ने महिलाअों के श्रम का जबरदस्त शोषण किया लेकिन इसने उन्हें अपनी संगठित ताकत का एहसास कराया।
स्वतंत्रता-समानता-भ्रातृत्व का नारा बुलन्द करने वाली फ्रांसीसी क्रांति व 1793 के संविधान ने भी जब महिलाअों के कई अधिकार नहीं दिये तब 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद महिला श्रमिकों के संघर्ष की शुरुआत हुई।