August 15, 2024

ड्यूटी के दौरान महिला डाक्टर बलात्कार व हत्या की शिकार

कोलकाता के आरजी मेडिकल कॉलेज में ड्यूटी के दौराफिर एक रेजीडेंट महिला डाक्टर बलात्कार व हत्या की शिकार हुई। इस मामले में मेडिकल कालेज प्रशासन व पुलिस का रुख लीपापोती वाला रहा। पहले मामले को आत्महत्या के मामले के बतौर पेश किया गया व बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्कार पुष्ट होने पर एक आरोपी को गिरफ्तार कर सारा दोष उस पर मढ़ दिया गया। जबकि घटना के तथ्य सामूहिक बलात्कार व कई व्यक्तियों की संलिप्तता की ओर इशारा कर रहे हैं। पुलिस व कालेज प्रशासन के ढीलमढाल रुख को देखते हुए हाईकोर्ट ने मामले को सीबीआई को जांच को सौंप दिया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ‘न्याय’ से ज्यादा अपनी चमड़ी बचाती नजर आयीं।

आर जी मेडिकल कालेज के इस मामले ने कामकाजी महिलाओं की कार्यस्थलों पर सुरक्षा का मामला एक बार फिर बहस में ला दिया है। स्पष्ट है कि मेडिकल कालेजों में यदि रेजीडेंट डाक्टर तक यौन हिंसा से सुरक्षित नहीं है तो आम मजदूर मेहनतकश महिलाओं की सुरक्षा की तो बात ही करना बेमानी है।

भारत में कामकाजी महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा-यौन उत्पीड़न के मामले लगातार बढ़ते गये हैं। विशाखा गाइडलाइन के अनुरूप हर संस्थान में महिला कर्मचारियों को लेकर बनायी जाने वाली कमेटी का प्रावधान व्यवहार में महज कागजी खानापूरी तक सिमट गया है। क्या तो सरकारी संस्थान, सरकारी फैक्टरियों और क्या निजी संस्थान सब जगह इस मामले में एक सा ही हाल है। हर जगह कामकाजी महिलायें गंदी नजरों, गिद्ध निगाहों का सामना करते हुए काम करने को मजबूर हैं।

जिस देश में संसद से लेकर शीर्ष न्यायपालिका में यौन हिंसा के आरोपी बैठे हों, जिस सरकार के मंत्रियों पर भी यौन हिंसा के आरोप हों, वहां आम मेहनतकश कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा की बुरी दशा का अनुमान लगाया जा सकता है। अभी कुछ दिन पहले महिला पहलवान यौन हिंसा के आरोपी सांसद को कुश्ती संघ से हटाने की लड़ाई लड़ रही थीं पर सरकार सांसद के खिलाफ कार्रवाही को तैयार तक नहीं हुई।

संघ-भाजपा के शासन में महिलाओं की सुरक्षा का मसला और गम्भीर हुआ है। संघ-भाजपा की हिन्दू फासीवादी सोच महिलाओं को पुरुषों से कमतर, बच्चा पैदा करने वाली, घर संभालने वाली के बतौर परिभाषित करती है। ऐसे में उसके नेता अक्सर ही यौन हिंसा के लिए महिला के वस्त्रों से लेकर खुद महिला को दोषी ठहराते रहते हैं। स्पष्ट है इस सोच की सरकार में काम पर जाती महिलाओं के लिए जिन्दगी कठिन ही होनी है।

मजदूर महिलाओं की स्थिति इस मामले में सबसे बुरी है। सरकार ने नयी श्रम संहिताओं में उनसे रात की पाली में भी काम कराने की छूट मालिकों को देकर उनसे होने वाली हिंसा में इजाफे का इंतजाम कर दिया है। ‘रखो व निकालो’ की छूट का इस्तेमाल कर भी महिलाओं को मजबूर कर उनसे यौन हिंसा की जा रही है।

महिलाओं के साथ बढ़ रही यौन हिंसा के लिए समाज में व्याप्त पुरुष प्रधान सामंती मूल्यों के साथ महिला शरीर को उपभोग वस्तु के बतौर पेश करने वाली पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति जिम्मेदार है। फिल्मों-इण्टरनेट के जरिये परोसी जा रही इस अपसंस्कृति ने महिलाओं के साथ यौन हिंसा को बढ़ाया है। ऐसे में समाज से इस पतित संस्कृति व उसके पोषक पूंजीपतियों पर नकेल कसे बिना महिला सुरक्षा के सारे दावे बेमानी हैं। जाहिर है पूंजीवादी दल या नेता इस काम के लिए आगे नहीं आयेंगे। इस काम का बीड़ा भी मेहनतकश महिलाओं के संगठनों-मजदूरों की ट्रेड यूनियनों को ही उठाना पड़ेगा। संघर्षरत डाक्टरों को भी समझना होगा कि समूचे समाज में महिलाओं की सुरक्षा इंतजाम के बिना अस्पतालों में महिला डाक्टर भी सुरक्षित नहीं हो सकती। इसलिए उन्हें भी संघर्ष की दिशा पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ मोड़नी होगी।
 
प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र इस घटना  की घोर निंदा करता है‌। छात्रों-युवाओं, किसानों, मजदूरों-मेहनतकश स्त्री-पुरुष व इंसाफ पंसद आवाम से आवाह्न करते है कि सामंती मूल्य-मान्यताओं पतित उपभोक्तावादी संस्कृति को बनाये रखने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे के लिए अपने संघर्ष को आगे बढ़ाओ। जिससे मजदूरों-मेहनतकश अपने समाज समाजवादी समाज के निमार्ण कर सके। 
*प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र*

August 8, 2024

बांग्लादेश का आंदोलन और प्रधानमंत्री शेख हसीना का इस्तीफा

बांग्लादेश में लंबे समय से आरक्षण विरोधी आंदोलन चल रहा था। आरक्षण खत्म करने की मांग को लेकर छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया था। लेकिन ये आरक्षण विरोधी आंदोलन वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे तक पहुंच गया।  क्योंकि ये आंदोलन केवल आरक्षण तक सीमित न होकर सामाजिक समस्याओं को भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी, अन्याय को उठाया। प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री आवास पर कब्जा कर लिया। फिलहाल प्रधानमंत्री शेख हसीना इस्तीफा देकर विदेश जा चुकी हैं। इस समय बांग्ला देश में अराजकता का माहौल बना हुआ है।


फिलहाल देश की सत्ता सेना के हाथों में आ चुकी है। सेना प्रमुख जनरल वकार-उल-जमान ने कहा है कि वे शीघ्र अंतरिम सरकार का गठन करेंगे। उन्होंने प्रदर्शनकारियों से प्रदर्शन खत्म करने को कहा है। 

दरअसल मामला यह है कि 1971 के आजादी के आंदोलन में मारे गये शहीदों के परिवारजनों को मिलने वाले आरक्षण के साथ अन्य तरह के आरक्षण को सीमित करने की मांग के साथ छात्रों का आंदोलन शुरु हुआ था। इस आंदोलन में 440 से ज्यादा लोग मारे गये थे। इनमें अधिकतर छात्र थे। साथ ही भारी संख्या में छात्रों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण कोटे को काफी सीमित कर दिया था। लेकिन सरकार गिरफ्तार छात्रों को रिहा करने पर सहमत नहीं हुई। छात्र मारे गये लोगों के परिवारजनों को उचित मुआवजा और गिरफ्तार छात्रों को रिहा करने की मांग कर रहे थे। 

इसके बाद धीरे धीरे मांग शेख हसीना के इस्तीफे तक पहुँचती गयी। शेख हसीना पिछले 15 सालों से सत्ता पर कब्जा किये हुए थीं। इन 15 सालों में लोगों की स्थिति खराब ही हुई जिसके कारण स्वाभावतः ही एक आक्रोश उनके खिलाफ बनता था। शेख हसीना के तानाशाही पूर्ण व्यवहार से जनता परेशान हो चुकी थी। इस आंदोलन की वजह से विपक्षी पार्टी को सत्ता पर आने का सुनहरा मौका दिखाई दे रहा था। अतः वह भी इस आंदोलन में सक्रिय थी। शेख हसीना ने गिरफ्तार छात्रों को छोड़ने और आंदोलनरत छात्रों से बात करने की पेशकश भी की लेकिन तब तक चीजे हाथ से निकल चुकी थी। छात्रों ने बात करने से मना कर दिया और अब वे शेख हसीना के इस्तीफे से कम पर मानने को तैयार नहीं थे।

3 अगस्त को आंदोलनरत छात्रों द्वारा एक रैली निकाली गयी। और 4 अगस्त को पूर्ण असहयोग आंदोलन की शुरुवात की गयी। लोगों से सरकार को बिजली के बिल, कर आदि न देने का आग्रह किया गया। 4 अगस्त को पूरे देश में हिंसा में 90 से ज्यादा लोग मारे गये। सरकार ने 4 अगस्त की शाम 6 बजे से अनिश्चित काल के लिए कर्फ्यू लगा दिया था। तीन दिन की छुट्टी घोषित कर दी गयी। 4 जी और 3 जी सेवाएं बंद कर दी गयीं। केवल ब्रॉडबेंड सेवाएं ही जारी रखी गयी। अफवाह को न फैलने देने के लिए फेसबुक, वहाट्सअप आदि को बंद कर दिया गया।

शेख हसीना का व्यवहार अभी भी तानाशाही पूर्ण बना हुआ था। आंदोलनरत छात्रों को वे आतंकवादी कहकर सम्बोधित कर रही थीं और आम लोगों का उनका विरोध करने के लिए आह्वान कर रही थीं। साथ ही उनकी सरकार के मंत्री भी पार्टी के कार्यकर्ताओं को आंदोलन में शामिल लोगों का मुकाबला करने के लिए तैयार कर रहे थे। दूसरी तरफ सेना के पूर्व अधिकारी सेना के जवानों से अपील कर रहे थे कि वे जनता का साथ दें और आंदोलन को कुचलना बंद करें। इस तरह एक गृह युद्ध की स्थिति बांग्लादेश में बनती जा रही थी।

दरअसल आज बांग्लादेश में जो स्थिति बनी है उसके लिए बांग्लादेश का शासक पूंजीपति वर्ग और उसकी दोनों मुख्य पार्टियां जिम्मेदार हैं। ये पूंजीवादी पार्टियां उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को आगे बढाती रही हैं। जिसने जहाँ जनता की आर्थिक स्थिति को खराब किया है वहीं नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर बहुत सीमित कर दिये हैं। सरकारी नौकरियां खत्म कर ठेके की नौकरियां पैदा की हैं। देश में मजदूर वर्ग की स्थिति अत्यंत खराब है। बहुत कम वेतन में वे अपनी जान जोखिम में डालकर फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं।

ऐसी परिस्थितियों में 15 सालों से सत्ता पर काबिज शेख हसीना के खिलाफ गुस्सा आरक्षण विरोधी आंदोलन के साथ फूट पड़ा। शेख हसीना के तानाशाहीपूर्ण व्यवहार ने मामले को शांत करने के बजाय उग्र किया और जिसकी परिणति शेख हसीना के इस्तीफे में हुई।  

शेख हसीना के इस्तीफे के बाद सेना ने देश की सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इस तरह पूंजीपति वर्ग ने सेना को आगे कर अपनी व्यवस्था को बचाने का काम किया। आज बांग्लादेश उसी स्थिति में है जिसमें कुछ समय पहले श्रीलंका पहुंच गया था। श्रीलंका में धीरे-धीरे पूंजीपति वर्ग ने व्यवस्था को नियंत्रित कर लिया। 

अब देखना है कि बांग्लादेश में नौजवान शेख हसीना के इस्तीफे के बाद शांत हो जाते हैं या फिर अपने मूल मुद्दों - शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई आदि के खिलाफ संघर्ष जारी रखते हैं।

प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र बांग्लादेश के छात्रों एवं मेहनतकश जनता के मुद्दों, आन्दोलन का समर्थन करता है और उम्मीद करता है कि यह आंदोलन और विकसित होकर मजदूर मेहनतकश जनता के जीवन में समस्याओं को लाने वाली इस पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर एक नए समाज का निर्माण कर सके।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी

February 19, 2024

ऩफरत की राजनीति बंद करो

उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर बनभूलपूरा क्षेत्र में मदरसा- मस्जिद तोड़- फोड़़ किए जाने पर पथराव व आगजनी हुई तो दूसरे पक्ष की ओर से फाईरिंग हुई| जिसमें 5 लोगों की मौत हुई व

300 से ज्यादा लोग घायल हुए है| इनमें पी०एस०सी० के नौजवान, होमगार्ड, पत्रकार व बस्ती के लोगों थे| इस घटना के शिकार होने वाले में  प्रशासन से लेकर आम नागरिक हुए हैं। जो मजदूर- मेहनतकश परिवारों से हैं। 

शहर में लगे कर्फ्यू ने आम जनजीवन व रोजगार को बूरी तरह प्रभावित किया। बनभूलपूरा क्षेत्र के छोड़ शहर के अन्य हिस्से से कर्फ्यू हटा दिया गया है|  


वनभूलपरा में मलिक का बगीचा नाम से एक जगह है| जिसमें एक मदरसा और मस्जिद 2002 बनाया गया था| 
 
अब्दुल मलिक और सफिया मलिक इस संपत्ति की देखरेख कर रहे थे और 4 फरवरी को हल्द्वानी नगर निगम की ओर  उत इस संपत्ति के सील कर दिया गया था।  नगर निगम ने इस साल  30 जनवरी  को इस जमीन को कब्जाने के लिए धवस्तीकरण का नोटिस दिया। नोटिस के खिलाफ 6 फरवरी को उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। अदालत ने 8 फरवरी को मामले की सुनवाई की और अगली सुनवाई 14 फरवरी को तय की थी। इसका इंतजार किए बिना ही तोड़- फोड़ की कार्यवाही की गयी। तब से लेकर अभी तक वहाँ कर्फ्यू लगा हुआ है|

यहाँ ज्यादातर आबादी मेहनत मजदूरी करती है। कर्फ्यू के कारण उनका रोजगार पूर्णता ठप हो गया है। ज्यादातर आबादी के पास राशन, सब्जी, ईंधन आदि खरीदने के पैसे भी नहीं बचे हैं।बुढ़े-बिमार व गर्भवती महिलाओं अपना सही से इलाज नहीं करवा पा रहे हैं| स्कूल बंद होने से छात्र- छात्राओं के अध्ययन में समस्या आ रही है। 

धामी सरकार ने नजूल की भूमि यानी सरकारी भूमि की आड़ में यहां हमला किया। सबसे बड़ा सवाल यही कि हल्द्वानी की लगभग अधिकांश नजूल भूमि पर बसे लाखों आवास और कई मंदिर  मस्जिद  बने है। लेकिन मस्जिद को ही क्यों निशाना बनाया। ऐसा सुनियोजित योजना और मंशा के बिना मुमकिन नहीं। तात्कालिक तौर पर, चुनाव में मुसलमानों को हिंदू समुदाय के लिए खतरे के रूप में यानी ' मुसलमानों के अपराधी होने के’ फर्जी दावे को मजबूत करके हिंदू वोटों का अपने पक्ष में सुदृढ़ीकरण और ध्रुवीकरण करना तो दूरगामी तौर पर उस जमीन को हड़पने की योजना, जिस पर रेलवे के फर्जी दावे का विवाद सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। सही मायनों में हल्द्वानी का वनभूलपुरा संघी सरकार का नफरती राजनीति कर प्रयोग स्थल बना हुआ है। 

सरकार द्वारा  नजूल भूमि वन भूमी खाली करवाने, के नाम पर अल्पसंख्यक के धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया जा रहा है।सरकार द्वारा अतिक्रमण हटाने, जी०-20 व विकास के नाम पर तोड़- फोड़ जारी है| जिसके लिए अदालती- कानूनी कार्रवाई व जनता को भरोसे लिए बिना सब कार्रवाई की जा रही है। 

प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र इस पूरी घटना की घोर निंदा करता है|

January 14, 2024

बिल्किस बानो मामले पर सर्वोच्च न्यायलय का फैसलाः केंद्र में अपराध या कानूनी प्रक्रिया?

 8 जनवरी 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा बिल्किस बानो के बलात्कारियों को रिहा करने के फैसले को खारिज करते हुए उन्हें दो हफ्तों के अंदर सरेंडर करने का आदेश दिया है।

गौरतलब है कि गुजरात सरकार ने 10 अगस्त   2022 को गुजरात सरकार की 1992 की सजा में छूट नीती के तहत सभी 11 बलात्कारियों को रिहा कर दिया। गुजरात सरकार के इस फैसले के खिलाफ देश के सर्वोच्च न्यायालय में तमाम जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं। जिसपर सुनवाई करते हुए 8 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार के इस फैसले को रद्द करते हुए बलात्कारियों को दो हफ्ते के अंदर आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का पूरे देश में स्वागत हो रहा है। इसे इंसाफ की जीत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

लेकिन इसमें गौर करने वाली बात यह है कि क्या वाकई इस फैसले ने देश में महिला हिंसा के अपराधों में न्याय स्थापित किया है?

खुद बिल्किस बानो के साथ हुए अपराध की बात करें तो 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिल्किस बानो, जो तीन महीने की गर्भवती थीं, के साथ बलात्कार किया गया तथा उनके परिवार के लोगों की, जिनमें उनकी तीन वर्षीय बच्ची भी शामिल थी, हत्या कर दी गई। गुजरात पुलिस ने साल 2002 में कहा था कि इस केस को बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह अपराधियों को ढूंढ़ नहीं पाई है.

इसके बाद बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि इस केस की जाँच सीबीआई (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन) से कराई जानी चाहिए.

इसके बाद ये मामला गुजरात से महाराष्ट्र भेजा गया.

साल 2008 में सीबीआई की विशेष अदालत ने इन 11 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी। 2002 में हुए बलात्कार का एक ऐसा केस जो पूरी दुनिया में मशहूर हुआ उसके लिए सजा मिलने में 6 साल का समय मिला। इस एक प्रकरण से महिला अपराधों के प्रति हो रहे इंसाफ की बानगी साफ देखने को मिलती है।

जहां एक तरफ देश में महिला हिंसा के अपराधों का ग्राफ उपर बढ़ता जा रहा है वहीं दूसरी तरफ महिला हिंसा के मामलों में न्याय तो दूर की बात है उनकी सुनवाई भी मुश्किल होती जा रही है।

यदि बिल्किस बानो केस में आए सर्वोच्च न्यायायल के इस फैसले को हम इंसाफ की जीत कहेंगे तो ठीक उसी समय उन्नाव बलात्कार केस में बलात्कारी विधायक सेनगर की जमानत, बलात्कारी विधायक चिन्मयानंद जैसे तमाम मामले हमारे सामने मुंह बाए खड़े हो जाते हैं।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला महज प्रक्रिया को गलत ठहराने से संबंधित है। यदि यह रिहाई गुजरात सरकार के बजाए महाराष्ट्र सरकार द्वारा की जाती तो इस रिहाई में कोई समस्या नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्किस बानो के अपराधियों को बचाने की गुजरात सरकार की हिंदू फासीवादी मानसिकता पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं किया। इस बात पर फैसले में कोई जिक्र नहीं है कि ऐसे जघन्य अपराधों में रिहाई का फैसला देना गलत है। यदि एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित अपराध में इस तरह की रिहाई के फैसले को निरस्त करते हुए अपराध की जघन्यता पर किसी तरह की कोई बात नहीं की जाती है। तो महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों के अन्य मामलों में क्या उम्मीद की जा सकती है।

मौजूदा फासीवादी सरकार के शासनकाल में जिस तरह से न्यायपालिका जनविरोधी चरित्र इख्तियार करती  जा रही है ऐसे समय में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आरएसएस जैसे फासीवादी संगठनों द्वारा अपने लोगों को बचाने के लिए तथ्यों को छुपाए जाने और मामले को भ्रमित करना तो खुलकर सामने आता है। किंतु मात्र प्रक्रिया के आधार पर रिहाई को निरस्त करना न्यायपालिका की ऐसे मामलों के प्रति संवेदनशीलता को भी खोलकर सामने लाती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र इस बात पर पुनः जोर देता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा इस देश के आम मजदूर मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे शोषण उत्पीड़न का ही एक हिस्सा है और इसकी समाप्ति का रास्ता इस शोषण उत्पीड़न से भरी व्यवस्था के खात्मे के साथ ही संभव है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी

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