April 5, 2021

लॉकडाउन का एक वर्ष व महिलाओं की स्थिति

 कोविड-19 (कोरोना) महामारी को एक वर्ष पूरा हो गया है । अलग-अलग देशों तथा भारत के अलग-अलग शहरों में यह बीमारी भले ही हल्की
पड़ी हो पर सारी दुनिया के पैमाने पर यह अभी भी चढ़ती पर है । कोविड-
19(कोरोना)  फिर नई लहरों के रूप में सामने आ रहा है जिसका असर भारत में भी दिखने लगा है।

एक वर्ष पूर्व सरकार ने कोरोना वायरस की रोकथाम के नाम पर 22 मार्च 2020 को अचानक जनता कर्फ्यू और बाद में पूर्ण लॉकडाउन लगाया । सरकार ने लॉकडाउन से पूर्व मजदूर मेहनतकश जनता को होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए कोई तैयारी नहीं की, न ही जनता को भरोसे में लिया। जिस वजह से प्रवासी मजदूरों, वृद्ध,  छोटे-छोटे मासूम बच्चों, गर्भवती महिलाओं में कईयों को कई हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ी । गर्भवती महिलाओं को सड़क पर बच्चे जनने पड़े। सरकार के तुगलकी तरीके से लगाए लॉकडाउन व बीमारी के कारण लाखों लोगों ने अपनी जान गवाई । स्वास्थ्य सेवाओं की हालत हमारे देश में पहले से ही खस्ताहाल थी। खस्ताहाल अस्पतालों से मजदूर मेहनतकश जनता को मामूली सी राहत मिलती मिलती थी । सरकार ने उन अस्पतालों को भी कोविड सेंटरों में बदल  दिया। जिस वजह से इलाज ना मिलने के कारण कईयों ने अपनी जान गवाई । बड़ी संख्या में रोजगार खत्म हो गए । रोजगार छिनने से गृह क्लेश व घरेलू हिंसा बढ़ी। राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन मे सामान्य परिस्थितियों की अपेक्षा घरेलू अपराध व हिंसा में दोगुनी वृद्धि हुई । नशाखोरी व्यापक स्तर पर बड़ी जिससे घरेलू अपराध में वृद्धि हुई ।

कोविड-19 (कोरोना ) महामारी के इस पूरे दौर में दुनिया सहित भारत की अर्थव्यवस्था जो पहले से ही कमजोर थी और रसातल में गई । ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल में भारतीय एकाअधिकारी पूंजीपतियों की अपनी संपत्ति में 35% की बढ़ोतरी हुई तो दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों ने लगभग 12 करोड़ 20 लाख नौकरियां खोई। मजदूर मेहनतकश से बड़े स्तर पर रोजगार छीना गया । बेरोजगारी की सर्वाधिक मार गरीब मजदूर मेहनतकश लोगों में भी महिलाओं पर पड़ी है। जिन महिलाओं की नौकरी बची हुई है उसमें 83% की कमी आई है । लॉकडाउन में कई महिलाएं अनैच्छिक गर्भवती हुई जिसमें 1800000 महिलाओं ने गर्भपात कराया। गर्भपात कराने के दौरान 2 .165 महिलाएं मौत की ग्रास बनी। रोजगार छीने जाने की वजह से घरेलू अपराधों व हिंसा में 60% की बढ़ोतरी हुई। महिला व बाल कुपोषण में पहले से ज्यादा कई गुना वृद्धि हुई । देश के कोने-कोने में मासूम बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद नृशंस हत्या का चक्र बढ़ गया है।

एक तरफ सरकार स्वास्थ्यकर्मियों पर फूल बरसा रही है तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार की नाक के नीचे दिल्ली के कई अस्पतालों में कर्मचारियों को तनख्वाह नहीं दी गई । यही हाल देश के अलग-अलग हिस्सों में भी हो रहा है ।

कोविड-19 महामारी की रोकथाम पर लगे लॉकडाउन को सरकार ने आपदा को अवसर में बदला। पिछले वर्ष की शुरुआत में हो रहे एनआरसी आंदोलन व कई अन्य आंदोलनों को खत्म किया । श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर 29 श्रम कानूनों को चार श्रम संहिता में बदलकर मजदूरों पर हमला बोला वहीं कृषि में सुधार के नाम पर काले कृषि कानून का किसानों द्वारा विरोध किए जाने के बावजूद लागू किए जाने की कवायद जारी है । शिक्षा नीति में सुधार के नाम पर नई शिक्षा नीति लागू की जा रही है। इन सभी कानूनों , संहिताओं व शिक्षा नीति लागू होने से मजदूर मेहनतकश जनता के जीवन में पहले से ही व्याप्त कष्ट-पीड़ा, अशिक्षा, भुखमरी, कुपोषण में और तेजी के साथ वृद्धि होगी। सरकार द्वारा लाई गई वैक्सीन को वैज्ञानिक प्रयोगों की कसौटी पर सही से उतारा नहीं गया । दवाई का सही ट्रायल नहीं हुआ है। वैक्सीन के प्रयोग से कईयों की मौत हुई है।

सरकार द्वारा लाई गई जन विरोधी नीतियों का विरोध करने वालों पर सरकार ने लॉकडाउन लगाने के साथ ही कई सामाजिक कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज , फर्जी मुकदमा लगाकर जेल में डालने का कार्य शुरू कर दिया जो लगातार जारी है।

सरकार एक तरफ दमन कर रही है तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध का स्वर मुखर से मुखर हो रहा है । संभावनाएं अब वहां पहुंच रही हैं कि यह प्रतिरोध सरकार के विरोध से आगे बढ़ कब व्यवस्था बदलाव तक चले जाएगा। मजदूर मेहनतकश की व्यवस्था समाजवाद के निर्माण तक कब जाएगा यह समय की बात है पर यह होना लाजमी है।

केंद्रीय कमेटी

महिलाओं से रात की पाली में काम कराने का विरोध

केन्द्र सरकार ने संसद के मानसून सत्र 2020 में श्रम संबंधी बिलों को पास करा लिया है। देशी-विदेशी पूंजीपति लम्बे समय से इन श्रम कानूनों में अपने पक्ष में बदलाव करवाना चाहते थे। पूंजीपतियों की इस इच्छा को मोदी सरकार ने पूरा कर दिया। सरकार ने इन श्रम सुधारों के नाम पर मजदूर-मेहनतकशों के अधिकारों पर हमला किया है। इन अधिकारों को मजदूरों ने अपने अकूत संघर्षों- बलिदानों की बदौलत हासिल किये थे।

सरकार ने 29 श्रम कानूनों को 4 श्रम संहिताओं में बदलने का काम किया है। इन चारों श्र
म संहिताओं में सरलीकरण के नाम पर भारी असमंजसता, अस्पष्टता व भ्रम की स्थिति को पैदा कर दिया गया है। जो सरकार के द्वारा पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से की गई कार्यवाही है। इन्हीं श्रम संहिताओं में एक बिन्दू महिलाओं का रात की पाली (नाइट शिफ्ट) में काम करने का है। इन चारों श्रम संहिताओं के साथ ही ‘‘महिलाओं का रात की पाली में काम’’ करवाने का कानून एक अप्रैल 2021 से पूरे देश में लागू हो जायेगा।

अभी तक औद्योगिक संस्थानों में महिलाओं से रात की पाली में काम कराने पर प्रतिबन्ध था जिसके तहत शाम 7 बजे से सुबह 6 बजे तक महिलाओं से औद्योगिक संस्थानों में कार्य नहीं करवाया जा सकता था। किन्तु ‘‘व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संबंधी संहिता 2020’’ की धारा 43 में इसे बदलकर रात की पाली में भी महिला मजदूरों से काम लेने का अधिकार पूंजीपतियों को सौप दिया गया है। साथ ही सरकार ने इस नये कानून में अब खतरनाक उद्योगों में भी महिला मजदूरों से काम कराने का रास्ता खोल दिया है। महिलाओं से रात की पाली में काम का प्रावधान ऊपरी तौर पर ‘‘स्त्री-पुरूष की बराबरी’’ और ‘‘महिला सशक्तिकरण’’ जैसी बातों को आधार बनाता है। परन्तु हकीकत यह है कि पूंजीपति वर्ग महिलाओं के सस्ते श्रम की हर समय आवक चाहता है और इस तरह महिलाओं का रात की पाली में काम करना पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को और अधिक बढ़ाने का ही रास्ता है।

महिलाओं का रात की पाली में काम करने का देश के पूंजीपतियों सहित पूंजीवादी राजनैतिक-सामाजिक संगठनों ने स्वागत किया है। वे इसे ‘‘स्त्री-पुरूष की बराबरी’’ व महिलाओं को रोजगार में समानता और अवसर के रूप में देखते है। लेकिन महिलाओं द्वारा रात की पाली में काम करने के कारण उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और बच्चों के ऊपर पड़ने वाले घातक प्रभाव और निजी व पारिवारिक जीवन के चौपट होने का भूल कर भी कोई जिक्र नहीं करता है।

प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र महिलाओं से रात की पाली में काम कराने का पुरजोर विरोध करता है। यह एक सामाजिक सच्चाई है कि कुछ कानूनी या औपचारिक तौर पर ‘स्त्री-पुरूष की बराबरी’ के बावजूद महिलाओं और खासकर मजदूर-मेहनतकश महिलाओं को दोयम दर्जे का जीवन जीना पड़ता है। महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की बात करें तो हम जानते ही हैं कि महिलाओं के साथ हर स्तर पर गैरबराबरी, हिंसा/यौन हिंसा और अत्याचार की घटनाऐं लगातार बढ़ रही हैं। छोटी-छोटी बच्चियों से लेकर बूढ़ी महिलाऐं दिन के उजाले में भी सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में रात के अंधेरे में कैसे सुरक्षित रह पायेंगी? हम देखते हैं कि देश के भीतर विशेष आर्थिक क्षेत्र में काम की परिस्थितियां बहुत कठिन हैं। हम जानते हैं कि मजदूरों को उद्योगों में जाने के लिए सार्वजनिक वाहन (ऑटो, बस) दूर पैदल यात्रा करके मिलते हैं। यह रास्ता कई बार सुनसान होता है। यानि अगर इस धारा के अनुसार यह मान भी लिया जाये कि औद्योगिक संस्थानों के अन्दर महिलाओं को सुरक्षा मिल भी जायेगी लेकिन घर से संस्थान तक जाने में महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी होगी?

दूसरे महिलाओं में प्रत्येक माह होने वाली माहवारी और गर्भावस्था के दौरान हॉरमोन्स बदलते रहते हैं। ऐसे समय में कठिन परिस्थितियों में काम, थकान व नींद पूरी न होने के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। हम यह भी जानते हैं कि महिलाऐं आम तौर पर आराम नहीं कर पाती हैं। जब महिलाऐं रात की पाली में रात भर जग कर काम करेंगी और फिर घर व बच्चों की जिम्मेदारियों के कारण दिन में भी आराम नहीं कर पाती हैं। यह अभी रात की पाली में काम करने वाली महिलाओं (अस्पतालों, कॉल सेन्टरों, सुरक्षा बलों व सेवा संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं) के जीवन में अच्छे से देखा जा सकता है। इसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ-साथ उनके बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा।

महिलाओं का रात की पाली में काम के सवाल को एक और नजरिये से सोचने की जरूरत है। पूंजीवाद ने अपने एकदम शुरूआती दौर में महिलाओं को सामाजिक उत्पादन में खींच लिया था। लेकिन ऐसा करते समय उसकी मंशा महिलाओं को बराबरी या मुक्ति दिलाने की नहीं रही। इसलिए उसने कभी भी महिलाओं को घरेलू श्रम से मुक्त करने की बात तक नहीं की। उसे तो सिर्फ और सिर्फ सस्ता श्रम चाहिए था। इसलिए इस पूंजीवादी व्यवस्था ने मजदूर-मेहनतकश वर्ग की महिलाओं को किसी भी कीमत पर अपना सस्ता श्रम बेचने को मजबूर कर दिया।

क्रांतिकारी संगठनों के साथ-साथ समूचे मजदूर-मेहनतकश वर्ग को महिलाओं का रात की पाली में काम करने का तीखा विरोध करना चाहिए। ‘महिला श्रम की मुक्ति’ और ‘लिंग भेद का अन्त’ आदि पूंजीपतियों के जुमलों का विरोध करना चाहिए। पूंजीपति वर्ग की इन नीतियों का भण्डाफोड़ करने की जरूरत है। हकीकत में पूंजीवाद सस्ते श्रम की लूट व लिंग भेद को खत्म करना नहीं चाहता है और न ही इस पूंजीवाद में यह खत्म हो सकता है। महिलाओं की सामाजिक बराबरी, आर्थिक स्वतन्त्रता व महिलाओं की पूर्ण मुक्ति का सवाल इतिहास से जुड़ा हुआ है। और इस सवाल को इस पूंजीवादी व्यवस्था में हल नहीं किया जा सकता है। यानि मजदूर राज समाजवाद में ही महिलाओं को हर स्तर पर बराबरी व पूर्ण मुक्ति मिल सकती है। समाजवाद में महिलाओं को सामाजिक बराबरी व आर्थिक समानता मिल सकती है। समाजवाद में ही ‘‘सस्ते श्रम से मुक्ति’’ व ‘‘लिंग भेद का अन्त’’ हो सकता है।

आज से 150 वर्ष पूर्व मजदूरों के पहले राज पेरिस कम्यून ने अपने 72 दिन के शासन में ही सबको एक समान वेतन (6 हजार फ्रैंक सालाना) व रात की पाली में नानबाईयों के काम पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया था। 1917 में रूस में समाजवाद ने महिलाओं को घर के कामों से मुक्त कर सामाजिक उत्पादन में उनकी पूर्ण भागीदारी बनाई। छोटे बच्चों के कार्यक्षेत्रों में क्रेच की व्यवस्था, बच्चों के लालन-पालन व शिक्षा व बुजुर्गो की देखभाल की जिम्मेदारी सरकार ने ले ली। समाजवादी व्यवस्था ने ही महिलाओं की पूर्ण मुक्ति के सवाल को हल किया। हमें भी आज पूंजीपतियों की नीतियों का भण्डाफोड़ कर पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने की जरूरत है। समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने की जरूरत है।

February 1, 2021

बॉम्बे हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति के फैसले (स्किन-टू-स्किन) के विरोध में

 बॉम्बे हाई कोर्ट ने 25 जनवरी 2021 को बच्चियों के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के संबंध में एक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति 12 वर्ष की बच्ची के कपड़े उतरे बिना उसकी ब्रेस्ट को दबाता है तो वह यौन हमला नहीं माना जाएगा। ऐसी हरकतें पोक्सो एक्ट (Prevention of Children from Sexual Offence Act) के तहत यौन उत्पीड़न के बतौर नहीं गिनी जाएगी।

यह फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने सुनाया। न्यायमूर्ति गनेडीवाला के अनुसार जब कोई गंदी मंशा से त्वचा से त्वचा (स्किन-टु-स्किन) का संपर्क नहीं करेगा तब तक वह हरकत (हमला) यौन उत्पीड़न का हमला नहीं माना जा सकता है। कपड़े के ऊपर से लड़कियों के प्राइवेट पार्ट को छूना भर यौन हमले की परिभाषा नहीं है।

दरअसल, नागपुर निवासी सतीश दिसंबर 2016 में 12 साल की बच्ची को खाने के सामान का लालच देकर अपने घर ले गया, जहां उसने बच्ची के ब्रेस्ट को दबाया व उसके कपड़े उतारने की कोशिश की। इस बात की गवाही बच्ची ने सेशन्स कोर्ट में दी थी। इसके बाद सेशन्स कोर्ट ने इस मामले मे सतीश को पोक्सो एक्ट के तहत 3 वर्ष कारावास की सज़ा सुनाई थी।

न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को बदल दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह की हरकत को पोक्सो एक्ट के तहत यौन हमले के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। हालांकि न्यायमूर्ति ने आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 (शीलभंग) के तहत मुकदमा चलाये जाने की बात कही है जिसमें अपराधी को न्यूनतम एक वर्ष कारावास की सज़ा है।

सेशन्स कोर्ट ने आरोपी को पोस्को एक्ट और आईपीसी की धारा 354 के तहत 3 वर्ष कैद की सज़ा सुनाई थी और आरोपी की दोनों सज़ाएँ साथ साथ चलनी थी। लेकिन हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति ने आरोपी को पोक्सो एक्ट से मुक्त कर तीन वर्ष की सज़ा माफ कर दी और आईपीसी की धारा 354 के तहत एक वर्ष की सज़ा सुनाई गई। फिलहाल सूप्रीम कोर्ट ने इस फैसला पर रोक लगा दी है।

इस फैसले से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि बच्चियों के साथ यौन हमला होता है और अपराधी बच्चियों के कपड़े उतारे बिना ही उनका यौन उत्पीड़न करता है जैसे फ्रॉक या बनियान उतरे बिना उसके ब्रेस्ट को छूना, दबाना, दांतों से काटना या पैंटी उतारे बिना उनके हिप्स को दबाना या वैजाइना मे उंगली (फिंगर) डालना आदि हरकतें पोक्सो एक्ट के तहत नहीं आएगी।

आज देश में छोटी-छोटी बच्चियों के साथ अपराध, यौन हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं जिसके खिलाफ लगातार मांग उठ रही है कि यौन हिंसा के मामलों में कठोर कानून बनाए जाने चाहिए कि अपराधी को फांसी दी जानी चाहिए। लेकिन हम देख रहे हैं कि कानून बने हुए हैं। यहाँ तक कि महिलाओं को घूरने, छूने और पति द्वारा पत्नी के साथ ज़बरदस्ती करने तक पर कानून बने हैं। सज़ा तय है। लेकिन क्या उसके बाद भी अपराध नहीं हो रहे हैं?

जब किसी महिला या बच्ची के साथ कोई घटना होती है, ऐसे में वह जब थाने मे रिपोर्ट लिखवाने जाती है तब पहले तो उनकी रिपोर्ट ही नहीं लिखी जाती है। अगर रिपोर्ट लिखी गई तो उनके केस की सही तरीके से पैरवी नहीं होती है और किसी तरह कोर्ट मे अपराधी को सज़ा मिल जाये तो ऊपरी कोर्ट मे जाकर अपराधी की सज़ा कम हो जाती है। कभी कभी तो सज़ा माफ भी हो जाती है। यह निर्भर करता है कि अपराधी कितने पैसेवाला व्यक्ति है क्योंकि जिसके पास जितना पैसा होगा वह उतना काबिल रख सकता है और तीन तिकड़म करके बच सकता है। यह तब और ज़्यादा हो जाता है जब सभी संस्थाओं, उच्च पदों पर पुरुष प्रधान मानसिकता के लोग मौजूद हों, चाहे वह थाने हों या न्यायपालिकाएं हों।

इस फैसले से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष प्रधान मानसिकता केवल पुरुषों के अंदर ही नहीं बल्कि महिलाओं के अंदर भी मौजूद है जो महिलाओं को पैर की जूती से ज़्यादा कुछ नहीं समझते हैं। उनको इंसान नहीं समझते हैं। ये महिलाओं पर पुरुषों का प्रभुत्व समझते हैं और महिलाओं को केवल उपभोग की वस्तु समझते हैं। और यह मानसिकता कमज़ोर, मज़दूर मेहनतकश महिलाओं के खिलाफ़ ज़्यादा इस्तेमाल की जाती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र बॉम्बे उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति के द्वारा सुनाये गए इस फैसले की निंदा करता है क्योंकि एक तो न्यायमूर्ति ने खुद पोक्सो जैसे कानून की मनमर्ज़ी व्याख्या की है जो गलत है। दूसरे कोई भी सामान्य व्यक्ति इस बात को समझ सकता है कि 12 साल की बच्ची के निजी अंगों को छूना गलत है, अपराध है। लेकिन न्यायमूर्ति ने अपराधी का पक्ष लेकर उसको बचाने की कोशिश की तथा अपने पद का गलत इस्तेमाल किया। प्रगतिशील महिला एकता केंद्र पुरुष प्रधान मानसिकता का पुरज़ोर विरोध करता है जो महिलाओं को इंसान ही नहीं समझती है।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र का मानना है कि महिलाओं के प्रति “यौन वस्तु” के विचार और संस्कृति को पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था रात-दिन खाद पानी देती है। इससे होता है कि समाज में महिलाओं को यौन वस्तु समझा जाता है। अश्लील विज्ञापनों, फिल्मों, गानों, पॉर्न साइटों के माध्यम से महिलाओं को यौन वस्तु समझना की घृणित मानसिकता पैदा हो रही है। फिर चाहे वह छोटी बच्ची हो या फिर चाहे वह कोई वृद्ध महिला हो, सभी यौन हमलों की शिकार हो रही हैं।

इन मामलों में केवल व्यक्ति को सज़ा देना या फांसी देने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा। जो व्यक्ति अपराध करता, उसको सज़ा तो मिलनी ही चाहिए। लेकिन जब तक ये पूंजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक महिलाओं के साथ हिंसा व अपराध खत्म नहीं होंगे। तो ज़रूरी यह है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त किया जाये और नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये।

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कमेटी द्वारा पारित

किसान आंदोलन पर हो रहे हमलों के विरोध में

 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में जो हुआ वह ऐतिहासिक था। लगभग 2-4 लाख किसान 2 लाख ट्रैक्टरों के साथ दिल्ली परेड में शामिल हुए। एक तरफ जनपथ पर भारत सरकार द्वारा तीनों सेनाओं द्वारा शक्ति प्रदर्शन कर रही थी वहीं दूसरी तरफ इस देश के किसान अपने ऊपर थोपे जा रहे तीन कानूनों के खिलाफ अपने आंदोलन को एक नए स्तर पर ले जाने के लिए तैयार थे। तीनों कृषि विरोधी कानूनों के खिलाफ जून से ही किसान असंतोष दिखा रहे हैं। नवंबर अंत में किसानों ने अपने प्रदर्शन को दिल्ली लाने का प्रयास किया लेकिन सरकार द्वारा किए गए दमन की वजह से उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर ही रुक जाना पड़ा। समय के साथ-साथ किसानों का आंदोलन व्यापक होता गया। देश के कोने-कोने से न केवल किसान
बल्कि आम जनता इस आंदोलन के समर्थन के लिए उमड़ पड़ी। और यही कुछ दिख रहा था 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर जहां न केवल किसान बल्कि आम जनता का एक बड़ा हिस्सा न केवल परेड में शामिल था बल्कि वह सड़कों पर किसानों के उपर फूल बरसा रही थी और उनका अभिनंदन कर रहा था।

उसके बाद घटना जिस तरह भी घटी, किसान किस तरह भी दिल्ली पहुंचे, झंडा किसी ने भी फहराया लेकिन इस देश के चौथे खंभे ने सरकार को वह परोस दिया जो वह लंबे समय से चाहती थी। लाल किले में घुसने और झंडा फहराने को गोदी मीडिया ने इस कदर प्रचारित प्रसारित किया कि पूरे आंदोलन पर एक सवाल ख़ड़ा हो गया। वह किसान जिसकी मेहनत से इस देश की जनता का पेट भरता है वह अचानक आतंकवादी और देशद्रोही हो गया। वह लाल किला जिसका प्रबंधन 2018 में मोदी सरकार ने डालमिया भारत समूह को सौंप दिया था उसे नुकसान पहुंचाने का आरोप लगने लगा। राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा और उसके संगठनों ने किसानों की उन तमाम न्यायिक मांगों को देशद्रोह साबित कर दिया जिसका असर न सिर्फ किसानों पर पड़ने वाला है बल्कि इस देश की आम मेहनतकश जनता की रोटी की जरूरत पर भी पड़ने वाला है।

लेकिन सच है कि इस तमाम परिघटना में अगर कुछ गलत है तो वह है वह तीन कानून जो मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट जगत के हित में पास किए हैं। यदि कुछ गलत हुआ है तो वह किसान जो किसान विरोधी नीतियों की वजह से आत्महत्या कर अपने परिवार को बेसहारा छोड़कर जाने पर मजबूर हुए हैं। यदि कुछ गलत हुआ है तो सर्वोच्च न्यायालय का वह बयान जिसके अनुसार महिलाएं आंदोलन में जगह नहीं रखती हैं। यह बयान न सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय की पितृसत्तामक नजरिए को दिखाता है बल्कि अब तक महिला किसानों को किसान का दर्जा न मिलने की आधारभूत वजह को समझाता है।

26 जनवरी के बाद से ही किसान आंदोलन लगातार हमले का शिकार हो रहा है। एक तरफ इस देश का बिका हुआ मुख्यधारा का मीडिया है जो इसे तोड़ने की कोशिश कर रहा है दूसरी तरफ स्थानीय लोगों के नाम पर भाजपा के गुंडे हैं जो लगातार किसान आंदोलन के सभी धरना स्थलों पर किसानों तथा उनके समर्थकों पर हमले कर रहे हैं। किसानों के साथ-साथ अब केंद्र सरकार ने उन पत्रकारों पर भी हमले शुरु कर दिए हैं जो किसानों की संघर्ष की असली तस्वीर जनता के सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। मंदीप पुनिया की नाजायज गिरफ्तारी इस का स्पष्ट उदाहरण है। प्रगतिशील महिला एकता केंद्र सरकार द्वारा किसानों की जायज मांग को लेकर चल रहे आंदोलन पर इस नाजायज हमले तथा आंदोलन स्थल पर किसानों के साथ-साथ उनके पक्षधर पत्रकारों पर हमले की निंदा करता है तथा किसान आंदोलन का पुरजोर समर्थन करता है।

किंतु जैसा कि इतिहास में हर बार हुआ है जब-जब जुल्मतों का दौर आया है विरोध के गीत और तीखे हुए हैं। उसी तरह किसान भी अपनी लड़ाई में डटे हुए हैं और उनके साथ डटी हुई हैं इस देश की तमाम प्रगतिशील तथा इंसाफपसंद ताकतें। प्रगतिशील महिला एकता केंद्र किसानों की इस लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ खड़ा है और इसे इसके सफल मुकाम तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है।

इंकलाब जिंदाबाद

प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की केंद्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित

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